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हम आज के इंसान हैं

हम आज के इंसान हैं, हम आज में जीते हैं.
वो और लोग होंगे, जो समाज में जीतें हैं.
गीता- कुरान पढ़तें हैं, मानते नहीं.
इंसान हैं, इंसानियत को जानते नहीं.
ज़ख़्मी को देखतें हैं, ठहरते नहीं.
लाल खून देखकर, सिहरते नहीं.
हम वो घड़े हैं जो, संवेदना से रीते हैं.
हम आज के इंसान हैं, हम आज में जीते हैं.
15 अगस्त आता है, तो राष्ट्र-गान गाते हैं.
घर के मुंडेर पर, तिरंगा भी फहराते हैं.
रचनाकार हैं, रचनाधार्मिता को पोसते हैं.
राष्ट्र की दुहाई देकर, शासन को कोसते हैं.
हम साहित्य के कुशल दर्जी हैं, पेबंद सीते हैं.
हम आज के इंसान हैं, हम आज में जीते हैं.
घर के आगे कूड़ा डालकर, गन्दगी दिखाते हैं.
नल हो या नाला, दोषी सरकार को ठहराते हैं.
हड़ताल का हथियार दिखा, रोज कुछ माँगते है.
कर्तव्य से भले मुहं मोड़ लें, अधिकार मगर चाहते हैं.
नशा- विमुक्ति पर लिखते भले मापतपुरी, हर शाम मगर पीते हैं.
हम आज के इंसान हैं,हम आज में जीते हैं.
गीतकार- सतीश मापतपुरी
मोबाइल - 9334414611

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Comment by Rash Bihari Ravi on September 23, 2010 at 5:28pm
namaskar

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 11, 2010 at 9:10am
गीता- कुरान पढ़तें हैं, मानते नहीं.
इंसान हैं, इंसानियत को जानते नहीं.
हम साहित्य के कुशल दर्जी हैं, पेबंद सीते हैं.
हम आज के इंसान हैं, आज में जीते हैं.
नशा- विमुक्ति पर लिखते भले मापतपुरी, हर शाम मगर पीते हैं.
हम आज के इंसान हैं, आज में जीते हैं.
जबरदस्त सतीश भईया, बहुत बहुत बधाई इस रचना पर, कथनी और करनी मे बहुत अंतर आ गया है, एक बार फिर सुंदर रचना .

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