हिन्दी वैभव:
हिन्दी को कम आंकनेवालों को चुनौती है कि वे विश्व की किसी भी अन्य भाषा में हिन्दी की तरह अगणित रूप और उन रूपों में विविध विधाओं में सकारात्मक-सृजनात्मक-सामयिक लेखन के उदाहरण दें. शब्दों को ग्रहण करने, पचाने और विधाओं को अपने संस्कार के अनुरूप ढालकर मूल से अधिक प्रभावी और बहुआयामी बनाने की अपनी अभूतपूर्व क्षमता के कारण हिन्दी ही भावी विश्व-वाणी है. इस अटल सत्य को स्वीकार कर जितनी जल्दी हम अपनी ऊर्जा हिन्दी में हिंदीतर साहित्य और संगणकीय तकनीक को आत्मसात करेंगे, अपना और हिन्दी का उतना ही अधिक भला करेंगे.
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मगही में मातृभूमि वंदना
डॉ. रामाश्रय झा, बख्तियारपुर पटना.
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मातृभूमि हे! हमर प्रनाम.
सरगो से बढ़कर के सुन्दर, तोहर सोभा ललित ललाम....
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हरियर बाग़-बगीचा धरती, एको देग कहौं नन परती.
अन-धन से परिपूर्ण मनोहर, जनगन-मन पाबे विश्राम...
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सागर जेकर चरन पखारे, हरदम गौरव-गीत उचारे.
तीरथ राज प्रयाग बनल हे, मनहर-पावन चारों धाम...
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अनुपम वेद, रामायण, गीता, धर्म सुसंस्कृति परम पुनीता.
सुधा सरिस गंगा-यमुना जल, कर दे मन के पूरनकाम...
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जय-जय-जय हे भारत माता, तोरा से जलमों के नाता.
मरूं-जिऊँ तो ई माटी में, मुँह मा पर बस तोरे नाम...
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सोभे पर्वतराज हिमालय, पावन मन्दिर अउर शिवालय.
गऊ-गणेश के पूजा घर-घर, विजय मन्त्र हे जय श्री राम...
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भोजपुरी में मुक्तिका
ओमप्रकाश केसरी, बंगाली टोला, बक्सर.
बयार अलगाँव के चले लागल.
घरे में गली दर गली खले लागल..
रहे आस जवना दिया पे हमरा.
उहे दिया से घरवा जले लागल..
आ गइल अइसन दरार रिश्तन में.
आपन, अपने छले लागल..
हो गइल हे मुसीबत के अइसन चलन.
किनारा भी देख के गले लागल..
रास ना आइल इश्क के दुलार.
भूखल आँत के मले लागल..
कहवाँ ठौर मिली 'पवन नन्दन'
जिनगी के सवाल गले लागल..
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अंगिका में मुक्तिका :
राजकुमार, बालकृष्ण नगर, भागलपुर
आदमी छै कहाँ?, जो छै तs सहमलs डरलs
आरो हुनख थपेड़ से खै दुबलल डढ़लs..
जहाँ भी जाय छी पाबै छी भयानक जंगल.
कुंद चन्दन छै, कुल्हाड़ी रs मान छै बढ़लs..
बाघ-भालू भीरी भेलs छै आद्लौ बौना.
हुनख नाखून छै बदलs, कपोत पर पड़लs..
आय काबिज़ हुनी सागर, आकाश धरती पर.
जाल हुनखs छै, फ्रेप में भी छै हुती मढ़लs..
राज लागै छ बगदलs छै समुन्दर अबको.
आग लगत छै लहर छै कमान पर चढ़ल..
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बघेली में हाइकु गीत
श्रुतिवंत प्रसाद दुबे 'विजन', डगा बरगवां, सीधी.
बोले मुरैला
पहरे डहारे मा
बन मस्तान.
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पानी बरसा
दुआरे बगारे मा
धूरी पटान.
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नदिया बाढ़ी
कहा किनारे मा
मने उफान.
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हथलपकी
गोरिया अंगन से
रे बिदुरान.
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उर्दू में ग़ज़ल
चंद्रभान भारद्वाज, १६४ श्रीनगर, इंदौर.
साँकल को भरमानेवाले.
बाँटे दिन भर चाबी-ताले.
हर भूखे को भेजा न्यौता
घर में केवल चार निवाले.
नंगों की बस्ती में बेचें
सपनों के रंगीन दुशाले.
आशाएँ सड़कों को सौंपी
सपने फुटपाथों पर पाले.
खिड़की-दरवाजों के पीछे
बुनतीं रोज़ मकड़ियाँ जाले.
चाकू गोली आग बमों की
दहशत के हम हुए हवाले.
आँगन में बबूल बोये तो
चुभते काँटे कौन निकाले?
भाड़े की कुछ भीड़ जुटाकर
सिर्फ हवा में शब्द उछाले.
मिली वक़्त से हमें वसीयत
फटी बिमाई, रिसते छाले.
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खड़ी बोली में हाइकु मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
जग माटी का
एक खिलौना, फेंका
बिखरा-खोया.
फल सबने
चाहे पापों को नहीं
किसी ने ढोया.
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गठरी लादे
संबंधों-अनुबंधों
की, थक-हारा.
मैं ढोता, चुप
रहा- किसी ने नहीं
मुझे क्यों ढोया?
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करें भरोसा
किस पर कितना,
कौन बताये?
लुटे कलियाँ
बेरहमी से माली
भंवरा रोया..
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राह किसी की
कहाँ देखता वक्त
नहीं रुकता.
अस्त उसी का
देता चलता सदा
नहीं जो सोया.
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दोष विधाता
को मत देना गर
न जीत पाओ.
मिलता वही
'सलिल' उसको जो
जिसने बोया.
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