बंसी का बजाना खेल भी है
गिरिवर का उठाना खेल नहीं
भक्तों के भारी संकट में
दुख दर्द मिटाना खेल नहीं है !!
एक विप्र सुदामा आया था
वो भेंट में तंदुल लाया था
पल भर में ही दीन दुखी को
धनवान बनाना खेल नहीं !!
कौरव दल द्रुपद दुलारी की
सुन कर पुकार दुखियारी की
दो गज की सारी में देखो
अंबार लगाना खेल नहीं !!
था कंस बड़ा अत्याचारी
देता था सबको दुख भारी
उसको जा मारा मथुरा…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on August 17, 2014 at 3:00pm — 29 Comments
221 2121 1221 212
जाने पड़ा हुआ है तू किसके खुमार में
दिल ही न टूट जाये कहीं ऐतबार में
मैं नाम लौहे दिल पे यूँ लिखता गया तेरा
इसके सिवा रहा नहीं कुछ इख़्तियार में
वो कारवाने वक्त गुज़र…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on August 17, 2014 at 2:00pm — 12 Comments
मैंने चुप की आवाज़ सुनी !
जबसे गूँगे से बात करी !!
वर्षों तक देखा है उनको !
तब जाके ये तस्वीर बनी!!
चोर-चोर मौसेरे भाई!
उनकी आपस में खूब छनी!!
कोई कैसे घायल ना हो!
वो थी ही मृग सावक नयनी !!
बीवी साड़ी माँग रही थी!
मेरी तो तनख़्वाह कटनी!!
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राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित
Added by ram shiromani pathak on August 17, 2014 at 11:25am — 8 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on August 17, 2014 at 11:23am — 12 Comments
अपना फ़र्ज़ निभाने दे!
फिर से वही बहाने दे !!
तेरा भी हो जाऊँगा !
खुद का तो हो जाने दे !!
गैरों के घर खूब रहा!
अपने घर भी आनें दे !!
मूर्ख दोस्त से अच्छा है !
दुश्मन मगर सयाने दे!!
कागज़ की फिर नाव बनें !
बचपन वही पुराने दे !!
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राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित
Added by ram shiromani pathak on August 17, 2014 at 11:00am — 15 Comments
1222 1222 1222 1222
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जहन की हर उदासी से उबरते तो सही पहले
जरा तुम नेह के पथ से गुजरते तो सहीे पहले
**
हमारी चाहतों की माप लेते खुद ही गहराई
जिगर की खोह में थोड़ा उतरते तो सही पहले
**
ये मिट्टी भी हमारी ही महक देती खलाओं तक
हमारे नाम पर थोड़ा सॅवरते तो सही पहले
**
तुम्हें भी धूप सूरज की बहुत मिलती दुआओं सी
घरों से आँगनों में तुम उतरते तो सही पहले
**
गलत फहमी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 17, 2014 at 9:30am — 18 Comments
लिख रही हैं यातनायें
अनुभवों से
लघुकथायें -
मौसम-घड़ी-दिक्काल की !
जय-जय कन्हैया लाल की !!
शासकों के चोंचले हैं
लोग गोवर्द्धन उठायें
हम लुकाठी…
Added by Saurabh Pandey on August 17, 2014 at 2:00am — 26 Comments
(चार ग़ज़लें)
1
रास्तों को देखिए कुछ हो गया है आजकल
इस शहर में आदमी फिर खो गया है आजकल
काँपते मौसम को किसने छू लिया है प्यार से
इस हवा का मन समंदर हो गया है आजकल
अजनबी-सी आहटें सुनने लगे हैं लोग सब
मन में सपने आके कोई बो गया है आजकल
मुद्दतों तक आईने के सामने था जो खड़ा
वो आदमी अब ढूँढने खुद को गया है आजकल
आदमी जो था धड़कता पर्वतों के दिल में अब
झील के मन में सिमटकर सो…
ContinueAdded by Dr. Rakesh Joshi on August 16, 2014 at 6:00pm — 37 Comments
मँच पर बुला बुला कर उन सभी बुज़ुर्गों को सम्मानित किया जा रहा था जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया था. उनमें से किसी ने जेल काटी थी, किसी ने अंग्रेज़ों की लाठियां खाईं थीं, कोई सत्याग्रह में शामिल था तो कोई भारत छोडो आंदोलन में. उन सभी की देशभक्ति के कसीदे मँच पर पढ़े जा रहे थे. हाथ में तिरँगा पकडे एक बूढा यह सब देख देख मुस्कुराये जा रहा था. जब भी किसी को सम्मान देने के लिए बुलाया जाता तो वह झट से दूसरों को बताता कि यह उसके गाँव का है, या उसका दोस्त है या उसका जानकार है. पास ही खड़े एक…
ContinueAdded by योगराज प्रभाकर on August 16, 2014 at 10:30am — 20 Comments
सुमन बदहवास सी घटना स्थल पर पहुंची, अपने बेटे प्रणव की हालत देख बिलखने लगी| भीड़ की खुसफुस सुन वह सन्न सी रह गयी, एक नवयुवती की आवाज सुमन को तीर सी जा चुभी "लड़की छेड़ रहा था उसके भाई ने कितना मारा, कैसा जमाना आ गया ......|" "अरे नहीं, 'भाई नहीं थे', देखो वह लड़की अब भी खड़ी हो सुबक रही है" बगल में खड़ी बुजुर्ग महिला बोली ....यह सुन सुमन का खून खौल उठा, और शर्म से नजरें नीची हो गयी| प्रणव पर ही बरस पड़ी "तुझे क्या ऐसे 'संस्कार' दिए थे हमने करमजले, अच्छा हुआ जो तेरे बहन नहीं है| प्राण ..."मम्मी…
ContinueAdded by savitamishra on August 16, 2014 at 12:00am — 22 Comments
हम पाखी जिन बाग वनों के, हरें वहाँ से शूल।
चन्दन सी जो खुशबू बाँटें, उपजाएँ वे फूल।
सावन साधें,…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on August 15, 2014 at 9:30pm — 10 Comments
बाजार से गुजरते हुए उसने एक बहेलिए के पास पिंजरे में कैद कुछ पंछी देखे। बहेलिए को पैसे देकर उसने पिंजरा खोल दिया। पिंजरा खुलते ही एक पंछी फुर्र से उड़ता आसमान की तरफ लपका। अनायास कुछ चीलें आई और उन्होनें उस पंछी को दबोच लिया। उड़ने के लिए तैयार बाकी पक्षी सहम कर पिंजरे में दुबक गए।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by Ravi Prabhakar on August 15, 2014 at 12:30pm — 14 Comments
Added by Zaif on August 15, 2014 at 5:34am — 5 Comments
आज पंद्रह अगस्त है, देश की स्वतंत्रता की याद दिलाने वाला एक राष्ट्रीय पर्व । एक ऐसा दिवस, जब स्कूल-कालेजों में मिठाई बंटती है, जिसका इंतजार बच्चों को रहता है – बच्चे जो अपने प्रधानाध्यापकों की उपदेशात्मक बातों के अर्थ और महत्त्व को शायद ही समझ पाते हों । एक ऐसा दिवस, जब सरकारी कार्यालयों-संस्थानों में शीर्षस्थ अधिकारी द्वारा अधीनस्थ मुलाजिमों को देश के प्रति उनके कर्तव्यों की याद दिलाई जाती है, गोया कि वे इतने नादान और नासमझ हों कि याद न दिलाने पर उचित आचरण और…
ContinueAdded by annapurna bajpai on August 14, 2014 at 1:30pm — 7 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on August 14, 2014 at 12:30pm — 14 Comments
" ये सब छोड़ क्यों नहीं देती ", कपड़े पहनते हुए उसने कहा । "एक नयी जिंदगी शुरू करो, इस गन्दगी से दूर, इज़्ज़त की जिंदगी" ।
"ऐसा है, ऐसे भाषण देने वाले बहुत मिलते हैं, लेकिन कपड़े पहनने के बाद । और ये काम मैं किसी के दबाव में नहीं करती, अपनी मर्ज़ी से करती हूँ और अच्छे पैसे भी मिल जाते हैं । मुझे पता है ज्यादे दिन नहीं चलना है ये , इसीलिए भविष्य के लिए भी कमा लेना चाहती हूँ । एक बात और, इज़्ज़त जब तुम लोगों की नहीं जाती, तो मेरी क्यों जाएगी" ।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on August 13, 2014 at 11:30pm — 11 Comments
बेसुध वैतालिक गाते हैं
नारी का जननी में ढलना
जीवन का जीवन में पलना
नभ पर मधु-रहस्य-इन्गिति के आने का अवसर लाते है
बेसुध वैतालिक गाते हैं
जग में धूम मचे उत्सव की
अभ्यागत के पुण्य विभव की
मंगल साज बधावे लाकर प्रियजन मधु-रस सरसाते हैं
बेसुध वैतालिक गाते हैं
आशीषो के अवगुंठन में
शिशु अबोध बंधता बंधन में
दुष्ट ग्रहों से मुक्त कराने स्वस्ति लिए ब्राह्मण…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 13, 2014 at 8:30pm — 15 Comments
देख तेरे देश की हालत क्या हो गयी बलिदानी
कितना बदल गया है यहाँ हर एक हिन्दुस्तानी|
की क्यों तुने स्वदेश पर मर मिटने की नादानी
अपनों में ही खोया यहाँ हर एक हिन्दुस्तानी|
की क्यों तुने स्वदेश पर मर मिटने की नादानी
अपनों में ही खोया यहाँ हर एक…
Added by savitamishra on August 13, 2014 at 8:00pm — 9 Comments
आकाश में उड़ने की चाह लिये
कल्पना रूपी पंखों को फैलाने की कोशिश करता हूँ
पर
अक्सर नाकाम होता हूँ
उस ऊँची उड़ान में,
फिर भी आस लगाये रहता हूँ
कि कभी तो वो पर निकलेंगे
जो मुझे ले जायेंगे
मेरे लक्ष्य की ओर,
और अनवरत ही
बढता जाता हूँ
अथक प्रयास करते हुए
सुनहरे ख्वाब की ओर अग्रसर करने वाले पथ पर।…
Added by Pawan Kumar on August 13, 2014 at 12:30pm — 8 Comments
‘ अकड़न ’
*********
जहाँ कहीं भी अकड़न है
समझ लेने दीजिये उसे
अगर वो ये सोचती है कि, दुनिया है , तो वो है
तो ये बात सही भी हो सकती है
और अगर वो ये सोचती है कि , वो है, इसलिए दुनिया है
तो फिर उसे देखना चाहिए पीछे मुड़कर
कि, कोई भी नहीं बचा है , ऐसी सोच रखने वालों में से
और दुनिया आज भी है ,
वैसे तो तुम्हारा होना बस तुम्हारा होना ही है , इससे ज्यादा कुछ नहीं
बस एक घटना घटी और तुम हो गए
एक और…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 13, 2014 at 9:30am — 17 Comments
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