बेसुध वैतालिक गाते हैं
नारी का जननी में ढलना
जीवन का जीवन में पलना
नभ पर मधु-रहस्य-इन्गिति के आने का अवसर लाते है
बेसुध वैतालिक गाते हैं
जग में धूम मचे उत्सव की
अभ्यागत के पुण्य विभव की
मंगल साज बधावे लाकर प्रियजन मधु-रस सरसाते हैं
बेसुध वैतालिक गाते हैं
आशीषो के अवगुंठन में
शिशु अबोध बंधता बंधन में
दुष्ट ग्रहों से मुक्त कराने स्वस्ति लिए ब्राह्मण आते है
बेसुध वैतालिक गाते हैं
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
//आशीषो के अवगुंठन में
शिशु अबोध बंधता बंधन में//
सारी रचना ही सुन्दर है, पर यह भाव कुछ और ही है ! आपकी सोच को नमन, आदरणीय गोपाल जी।
आदरणीय सौरभ जी
सादर i स्तुत्य i
आदरणीय गोपाल नारायनजी,
रचनाओं को पाठक वाचन क्रम में एक सीमा के बाद न तो समय देता है, न रचनाकार पाठकों से मनोनुकूल समय ले पाते हैं. पाठकों से उचित समय मात्र और मात्र रचनाएँ लिया करती हैं.
इसी कारण मैं अक्सर कहता हूँ, कि सद्साहित्य रचनाकर्म और उसमें सतत शुद्धता का प्रयास हुआ करता है, बस !
कोई रचनाकर रचनाकर्म के अलावा साहित्य-जगत में जो कुछ करता है, वह उसका व्यक्तिगत व्यवहार होता है. और कुछ नहीं.
व्यवहार, संपर्क, स्वीकार्यता-अस्वकार्यता आदि साहित्यकर्म नहीं सामाजिक आचरण हुआ करते हैं.
सादर
आदरणीय सौरभ जी
भाव विह्वल हूँ कि आपने इस रचना को इतना समय दिया i आप की वाग्विदग्ध टिप्पणी ने मेरा पोर-पोर रोमांचित कर दिया I निःशब्द हूँ श्रीमन I
तिल-तिल संचित होते अनुभव वैयक्तिक रूप से किसी को जितना समृद्ध करते हैं, उतना ही वे सामाजिक रूप से उपादेय हुआ करते हैं. इन्हीं का प्रतिफल परम्पराओं और संस्कारों में परिलक्षित होता है. जब कोई संवेदनशील मन इन्हें शाब्दिक करता है तो वाचन-अनुभूतियों को चेतना और परम्पराओं के मानिक-मनकों का चकित करता भान होता है.
आदरणीय गोपाल नारायनजी, आपकी इस प्रस्तुति पर मन न केवल मुग्ध है बल्कि आपकी प्रस्तुति के तथ्यों की गहनता पर नत भी है.
बेसुध वैतालिकों का आना और मानव जन्मोत्सव के अवसर पर गाना जिन इंगितों का पर्याय है वह सनातनी संस्कारों का अत्यंत गूढ़ स्वरूप है.
// नारी का जननी में ढलना
जीवन का जीवन में पलना .//
अद्भुत !
// नभ पर मधु-रहस्य-इन्गिति के आने का अवसर लाते है //
नभ पर मधु-रहस्य के इंगित ! नक्षत्रों के प्रभाव को कितनी सुन्दरता से अभिव्यक्त किया गया है ! जीवन का स्वरूप और उसका होना मात्र भौतिक प्रक्रिया कैसे हो सकती है ? यदि यही था, तो मस्तिष्क की समस्त पराभौतिक प्रक्रियाओं को हम कैसे समझें, जिसे आजतक तथाकथित ’अत्यंत उन्नत’ विज्ञान समझ नहीं पाया !
प्रस्तुति का प्रत्येक बन्द अपने आप में विशद अनुभूति को सहेजे हुए है.
इस तरह की रचनाओं की आवश्यकता हर मंच को होती है.
// मंगल साज बधावे लाकर प्रियजन मधु-रस सरसाते हैं //
इस पद में तनिक परिवर्तन की आवश्यकता प्रतीत हो रही है, आदरणीय. ’प्रियजन मधु-रस सरसाते’ के वाचन में उच्चारण के लटपटाने का कारण बन रहा है. यह किसी पद के लिए दोष हुआ करता है, आदरणीय. पदों में अक्षरों के कारण ऐसी दुरूहता का होना और पदों में अनुप्रास होना दोनों भिन्न है. अनुप्रास वाचन में शब्द कौतुक और वाचन-लालित्य का सुखद कारण हुआ करते हैं.
अत्यंत गूढ़ विषय पर कलमगोई करने के लिए पुनः सादर धन्यवाद तथा हार्दिक शुभकामनाएँ
आदरणीया सविता जी i
आपका आभार i
सुंदर रचना _/\_
जीतू भाई !
आपका शुक्रगुजार हूँ i
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