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जहन की हर उदासी से उबरते तो सही पहले
जरा तुम नेह के पथ से गुजरते तो सहीे पहले
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हमारी चाहतों की माप लेते खुद ही गहराई
जिगर की खोह में थोड़ा उतरते तो सही पहले
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ये मिट्टी भी हमारी ही महक देती खलाओं तक
हमारे नाम पर थोड़ा सॅवरते तो सही पहले
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तुम्हें भी धूप सूरज की बहुत मिलती दुआओं सी
घरों से आँगनों में तुम उतरते तो सही पहले
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गलत फहमी तुम्हारी भी ‘गॅवारों’ की उतर जाती
हमारे गाँव में दो पल ठहरते तो सही पहले
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खुशी खुद ही फुदकती मेंमनों सी हर गली आँगन
गमों के बाज के पर तुम कतरते तो सही पहले
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( रचना - 8 अगस्त 2014 )
मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
Comment
आदरणीय सौरभ भाई जी, सराहना और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीया राजेश बहन आपको गजल पसंद आयी यह मेरे लिए हर्ष का विषय है । हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय विजय मिश्र जी प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार । स्नेह बनाए रखें ।
आदरणीय भाई राकेश जी ,गजल की प्रशंसा कर उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार ।
आदरणीया कल्पना बहन आपने सही कहा , जिस रोज हमें यह हुनर आ जाऐगा उस रोज हमद ुख का रोना बंद कर देगे । गजल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय भाई जवाहर लाल जी गजल की प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार ।
आदरणीय भाई गोपाल नारायन जी , आपका आशीष पाकर गजल का मान और बढ़ गया । इस प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय भाई गिरिराज जी गजल पर उपस्थिति देकर उसका मान बढ़ाने के लिए आभार । स्नेह बनाए रखें ।
आदरणीय भाई विजय शंकर जी गजल का अनुमोदन करने के लिए हार्दिक धन्यवाद । आप सहित सभी प्रबु़द्ध जनों से क्षमा याचना चाहता हूं कि आपकी प्रतिक्रियाओं पर समय से धन्यवाद ज्ञापित नहीं कर सका । स्नेह बनाए रखें ।
आदरणीय लक्ष्मण जी,
एक अच्छे प्रयास से आने खुश कर दिया. कहन में अब इंगितों से कह रहे हैं. अच्छा है.
दाद कुबूल करें.
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