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भाई(लघुकथा)

भाई

बुल्लु की शादी का कर्ज़ अभी सिर पर है..... और वह मर गई।इतना कह चेंथरु लगा फफक पड़ेगा, पर उसने अंदर के तूफान को थाम लिया।शायद पड़ोस के भाई से झिझक हो कि शिकायत हो जाएगी।पर, उसकी आँखें भींग गई थीं। अँधेरे में भी उसकी आवाज सब कुछ जाहिर कर रही थी।

दुख हुआ सब सुनकर, चेंथरु।ढाढस बांधते हुए मास्टर जी बोले।

भइया, कोई पूछेवाला नहीं था कि कुछ मदद चाहिए…

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Added by Manan Kumar singh on October 16, 2022 at 11:49am — 3 Comments

जिज्ञासा (लघुकथा)

जिज्ञासा

पार्क से आते ही मोनू ने सवाल किया, ‘पापा, अपनी कार रात को झुग्गीवाले मुहल्ले में क्यों जाती है?’

बिजनेस के सिलसिले में?’

तो उसमें चढ़कर लड़कियाँ कहाँ जाती हैं?’

काम पर, बेटे।सेठ ने बेटे को संतुष्ट करना चाहा।

रात को कौन-सा काम होता है,पापा?’

ढेर-सारे काम हैं,बेटे।जैसे कॉल सेंटर वगैरह,जो रात…

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Added by Manan Kumar singh on October 15, 2022 at 5:53pm — 7 Comments

एडमिशन(लघुकथा)

एडमिशन

‘मम्मी, मेरा एडमिशन………।' कॉलेज से आती बबली अपनी बात पूरी करती कि फोन की घंटी घनघनाई, ‘....ट्रीन..ट्रीन..।' मालती ने फोन उठाया। बबली अपने कमरे की तरफ बढ़ गई।  

हेलो मालती, मैं सुविधा बोल रही हूँ। सुविधा ठक्कर।'

हाँ बोलो।' मालती ने बेरुखी से कहा।  

तुम मिली समीर से?’

सोचती हूँ,मिल ही लूँ।'

‘अभी सोच ही रही है तू?’ सुविधा ने जरा डपट कर…

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Added by Manan Kumar singh on October 12, 2022 at 4:51pm — 14 Comments

ग़ज़ल : यही इक बात मैं समझा नहीं था

बह्र : 1222     1222     122

यही इक बात मैं समझा नहीं था

जहाँ में कोई भी अपना नहीं था

किसी को जब तलक चाहा नहीं था

ज़लालत क्या है ये जाना नहीं था

उसे खोने से मैं क्यूँ डर रहा हूँ

जिसे मैंने कभी पाया नहीं था

न बदलेगा कभी सोचा था मैंने

बदल जाएगा वो सोचा नहीं था

उसे हरदम रही मुझसे शिकायत

मुझे जिससे कोई शिकवा नहीं था

उसी इक शख़्स का मैं हो गया हूँ

वही इक शख़्स जो मेरा नहीं…

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Added by Mahendra Kumar on October 10, 2022 at 6:27pm — 15 Comments

काली कुतिया

कुत्तों के दो गुट थे,झबड़ा गुट और कबड़ा गुट।दोनों गुट एक –दूसरे के धुर विरोधी थे।पहले गुट का प्रभाव क्षेत्र विस्तृत था, दूसरे का सीमित। दूसरा गुट अपने क्षेत्र में छीनाझपटी, काटाकुटी के लिए ज्यादा मशहूर था।तीसरी जमात कबड़ी नाम की एक काली कुतिया की थी। वह धूर्तता के लिए विख्यात थी। गोस्त वगैरह की हवा लगते ही वह दुम हिलाती वहाँ पहुँच जाती। कबड़ी की गाढ़ी दोस्ती एक सफेद, भूरी आँखों वाली लबड़ी नाम की बिल्ली से थी। वह दूध -मलाई, गोस्त वगैरह की खबर कबड़ी कुतिया को देती रहती।

कबड़ी कभी…

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Added by Manan Kumar singh on October 10, 2022 at 10:49am — 2 Comments

अपराधी

हाँ-हाँ मैं अपराधी हुँ बस, अधर्म करने का आदि हूँ

पर मुझको खुद पर लाज नहीं, जो किया मैं उसपर गर्वित हुँ

जो देखा सब यहीं देखा, जो सीखा सब यहीं सीखा

मैं माँ के पेट का दोष नहीं, ना हीं मैं सुभद्रा का बेटा

 

दूध की प्याली के खातिर, मैंने माँ को बिकते देखा है

अपने पेट की भूख मिटाने, बाप से पिटते देखा है

फटें कपड़ो से तन को ढकते, बहनों के संघर्ष…

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Added by AMAN SINHA on October 10, 2022 at 10:34am — No Comments

धरती के पुत्रों उठो

धरती के पुत्रों, उठो

उषा अवस्थी

शरद चन्द्र तुम न दिखे
घटा घिरी घनघोर
गरज - चमक कर बरसता
मेघा,ओर न छोर

जो अमृत था बरसता
हमें मिला न आज
पर्व न उस विधि मन सका
जैसा साजा साज़

वृक्ष, पहाड़ों का किया
अपने हाथ विनाश
अब रोने से है भला
क्या आएगा हाथ?

धरती के पुत्रों उठो
समय नहीं है शेष
चुन उपयोगी पौध को
रोपो , मिटे कलेश

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Usha Awasthi on October 9, 2022 at 11:05pm — No Comments

उपदेशक(लघुकथा)

आज इन्दुमति की शादी है। दलन पाठक पुरोहित हैं। इन्दु के घरवालों के सम्मुख उसे पातिव्रत्य-धर्म की शिक्षा दे रहे है, ‘औरत का सब कुछ पति के लिए होता है। अपना संचित पुण्य, सुरक्षित शील वह मिलन की पहली रात में अपने पति को समर्पित कर धन्य होती है ........।बाबा बोलते जाते हैं। घरवाले मुंड हिला-हिलाकर उनकी बातों का समर्थन करते हैं। बीच-बीच में इन्दु से भी पाठक जी पूछ लेते हैं, ‘समझ रही हो न कन्या?’ बेटी नहीं कहते हैं। उन्हें कुछ-कुछ…

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Added by Manan Kumar singh on October 8, 2022 at 5:34pm — 2 Comments

हर तरफ़ रौशनी के डेरे हैं (ग़ज़ल)

2122  /  1212  /  22

हर तरफ़ रौशनी के डेरे हैं

मेरी क़िस्मत में क्यूँ अँधेरे हैं [1]

एक अर्सा हुआ उन्हें खोये

अब भी कहता है दिल वो मेरे हैं [2]

और कुछ देर हौसला रखिये

शब के…

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Added by रवि भसीन 'शाहिद' on October 7, 2022 at 11:30am — 12 Comments

करनी-भरनी(लघुकथा)

बदलू नेता का चौदह वर्ष का एकमात्र बेटा ड्रग के ओवरडोज से मर गया। धंधेबाज गंगुआ की गिरफ्तारी हुई है।यह खबर शहर के गली-मुहल्ले में आग की तरह फैल गई।लोग कहने लगे, ‘यह बदलू तो पहले चवन्नी छाप पिछलग्गू नेता हुआ। इधर-उधर करके एक बार पार्षद भी बन गया था।इतना घपला-घोटाला किया-कराया कि इसका एक पैर हमेशा जेल में रहता।एक मामले में बाहर आता,दूसरे में गिरफ्तार हो जाता।बाद में इसने चरस-गाँजे का धंधा शुरू किया। जेल भी गया। जहाँ-तहाँ कुछ दे-लेकर…

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Added by Manan Kumar singh on October 7, 2022 at 10:42am — 2 Comments

ग़ज़ल

121 22 121 22 121 22



हरिक  धड़क पे  तड़प  उठें बद-हवास आँखें

बिछड़ के  मुझसे कहाँ गईं  ग़म-शनास आँखें



कहाँ  गगन  में  छुपे  हुये  हो ओ चाँद जाकर

तमाम  शब  अब  किसे  निहारें  उदास आँखें



बिछड़ के तुझसे सिवाय इसके रहा नहीं कुछ

कि  एक  बिगड़ा हुआ  मुक़द्दर क़यास आँखें



यक़ीन  होता  नहीं  कि  कैसे  चला  गया  वो

दिखा  रही थीं  डगर  उसी की  उजास…

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Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 5, 2022 at 7:00pm — 10 Comments

दिल से अपने हमें गिला है ये

2122   1212    22

खुद ब खुद हो गया जुदा है ये

दिल हमारा तो मनचला है ये

गुम है दिल ये किसी पहेली में

और कई दिन से सिलसिला है ये

ज़िन्दगी का कोई सबूत नहीं

बस धड़कता सा हादसा है ये

बात करता नहीं कुछिक दिन से

" दिल से अपने हमें गिला है ये "

है समन्दर भी ये हरा अब तो

चांद पूनम तो ज़लज़ला है ये 

बदहवासी रही है हावी दिल

भागता बेहिसी मरा है ये

आखिरी दांव…

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Added by Chetan Prakash on October 5, 2022 at 5:30pm — 1 Comment

गुमान (लघुकथा)



सुषमा ने तकिया समीर के सिरहाने कर दी थी।अपना सिर किनारे पर रखा था जो कभी ढुलक कर तकिये से उतर गया था।दोनों गहरी निद्रा में निमग्न थे।अचानक समीर ने करवट बदली।दोनों के नथुने टकराये।उसे आभास हुआ कि सुषमा का सिर तकिया पर नहीं, नीचे है।उसने आँखें खोली। उसे महसूस हुआ ,सुषमा दायीं करवट लेटी थी।उसकी उष्ण साँसें समीर को अच्छी लगीं।वह उसे तकिये पर लाने की कोशिश करने लगा।हालांकि वह चाहता था कि काम भी हो जाये और सुषमा की निद्रा भंग भी न हो।पर जैसे उसने उसे बाँहों में लेकर उसका…

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Added by Manan Kumar singh on October 5, 2022 at 5:15pm — 2 Comments

दशहरा पर्व पर कुछ दोहे. . . .

दशहरा पर्व पर कुछ दोहे. . . .

सदियों से लंकेश का, जलता दम्भ  प्रतीक ।

मिटी नहीं पर आज तक, बैर भाव की लीक।।

सीता ढूँढे राम को, गली-गली में  आज ।

लूट रहे हर मोड़ पर, देखो रावण लाज ।।

 मन के रावण के लिए, बन जाओ तुम राम।

अंतस को पावन करो,हृदय बने श्री धाम।।

कहते हैं रावण बड़ा, जग में था विद्वान ।

पर नारी के मोह ने, छीनी उसकी जान ।।

माँ सीता का कर हरण, इठलाया  लंकेश ।

मिटा दिया फिर राम ने, लंकापति…

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Added by Sushil Sarna on October 5, 2022 at 1:00pm — 6 Comments

ग़ज़ल (शुक्र तेरा अदा नहीं होता)

2122-1212-22

शुक्र तेरा अदा नहीं होता

और वा'दा वफ़ा नहीं होता

तू न तौफ़ीक़ दे अगर मौला 

एक सज्दा अदा नहीं होता 

सिर्फ़ तौबा पे बख़्शने वाले 

कोई तुझ-सा बड़ा नहीं होता 

घर नहीं, है वो एक वीराना 

ज़िक्र जिस में तेरा नहीं होता 

सबके अहवाल जानता है तू

कुछ भी तुझ से छुपा नहीं होता 

तेरी रहमत के आसरे पर हूँ 

तू जो चाहे तो क्या नहीं होता

और बे-ज़र 'अमीर'…

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on October 4, 2022 at 11:08pm — 7 Comments

ना तुझे पाने की खुशी ना तुझे खोने का ग़म

ना तुझे पाने की खुशी, ना तुझे खोने का ग़म 

मिल जाए तो मोहब्बत, ना मिले तो कहानी है 

ना आँखों में आँसू और ना चेहरे पर पानी  

बेचैन मोहब्बत में, बदनाम जवानी है 

ना तेरे साथ की चाहत,…

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Added by AMAN SINHA on October 4, 2022 at 12:38pm — 3 Comments

असली चेहरा

फिर जंगल का राजा हाथी ही बना है।पर, अब उसके साथ बिल्लियाँ, भेड़ें आदि हैं। भेड़ियों की बहुतायत है।समरसता, न्याय, सबको काम देने का ऐलान हो चुका है।उधर शेर -मंडल दहाड़ मारकर जंगल को सिर पर उठाए है कि इस ढुलमुल हाथी को उनलोगों ने ही पाल -पोसकर बड़ा किया।काम लायक बनाया,पर यह तो पाला- बदलू निकला।इसपर कोई क्या भरोसा करेगा? राज -पक्ष की ओर से इन सब बातों को विधवा -विलाप करार दिया गया है। शेर -दल की अब बिल्लों के दल से…

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Added by Manan Kumar singh on October 4, 2022 at 10:40am — 2 Comments

ग़ज़ल (...महफ़ूज़ है)

2122 - 2122 - 2122 - 212

वो जो हम से कह चुके वो हर बयाँ महफ़ूज़ है

दास्तान-ए-ग़ीबत-ए-कौन-ओ-मकाँ महफ़ूज़ है 

मुश्त'इल करने की हम को कोशिशें कितनी हुईं

लो हमारे दिल में देखो सब यहाँ महफ़ूज़ है 

हक़-बयानी जिसका शेवा हो कभी झुकता नहीं 

दार तक रंग-ए-रुख़-ए-ताब-ओ-तवाँ महफ़ूज़ है 

ज़ब्त कहते हैं जिसे वो है समंदर में कहाँ 

ये उलट देता है सब-कुछ जो जहांँ महफ़ूज़ है 

ज़र्फ़ ये बख़्शा है रब ने…

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on October 3, 2022 at 10:54pm — 2 Comments

एनकाउंटर(लघुकथा)

'कभी- कभी  विपरीत विचारों में टकराव हो जाता है।चाहे- अनचाहे ढंग से अवांछित लोग मिल जाते हैं,या वैसी स्थितियाँ प्रकट हो जाती हैं। या विपरीत कार्य- व्यवसाय के लोगों के बीच अपने- अपने कर्तव्य- निर्वहन को लेकर मरने- मारने तक की नौबत आ जाती है। यदा- कदा तो परस्पर की लड़ाई- भिड़ाई में प्राणी इहलोक- परलोक के बीच का भेद भी भुला बैठते हैं।अभी यहाँ हैं,तो तुरंत ऊपर पहुँच जाते हैं।पहुँचा भी दिए जाते हैं।' प्रोफेसर  पांडेय ने अपना लंबा कथन समाप्त किया। मंगल और झगरू उनका मुँहदेखते रह…

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Added by Manan Kumar singh on October 3, 2022 at 8:03pm — 4 Comments

असली - नकली. . . .

असली -नकली . . . .

सोच समझ कर पुष्प पर, अलि होना आसक्त ।

नकली इस मकरंद पर  , प्रेम न करना व्यक्त ।।

गुलदानों में आजकल, सजते नकली फूल ।

सच्चाई के तोड़ते, नकली फूल उसूल ।।

गुलशन सूने से लगें, भौंरे लगें उदास ।

नकली फूलों से भला, कब बुझती है प्यास ।।

मरीचिका सी जिन्दगी, यहाँ प्यास ही प्यास ।

पतझड़ के परिधान में, मुस्काता मधुमास ।।

अब कागज के फूल से, गुलशन है गुलज़ार ।

नकली फूलों का नहीं, मुरझाता संसार…

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Added by Sushil Sarna on October 2, 2022 at 10:01pm — 6 Comments

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