Added by Shubhranshu Pandey on December 26, 2012 at 9:59pm — 8 Comments
ठीक है, ठीक है, ठीक है
मूर्खता घाघ की लीक है
चाटना, काटना, बाँटना
लूट की नीच तकनीक है
झूट है न्याय की भावना
आ रही देश को हीक है
लाल है हुक्म के होंठ क्यों
खून है या रची पीक है
राज है तो हमें डर नहीं
सोच ये तंत्र की ज़ीक़ है
ज़ीक़ – तंग
~अमितेष
Added by अमि तेष on December 26, 2012 at 8:47pm — 10 Comments
देश के प्रतिष्ठित सरकारी हस्पतालों में से एक में गर्मियों की दोपहर को डॉक्टरों के विश्राम कक्ष में बैठकर लस्सी पीते हुए, वे चारों डॉक्टर आपस में देश-दुनिया की 'गंभीर' चर्चा में लगे हुए थे। अचानक उनमे से एक की नज़र अपनी कलाई घड़ी पर घूम गई, जिसकी सुइयां उनके लिए निर्धारित विश्राम के समय से कुछ ज्यादा ही आगे घूम गईं थीं। उसने हड़बड़ाते हुए अपनी कुर्सी छोड़ी और बाकी के साथियों को घड़ी की तरफ इशारा करते हुए बोला-
- जरा टाइम देखो डियर, तुम लोगों का भी राउंड का वक़्त हो गया है।
- अबे बैठ…
Added by Dipak Mashal on December 26, 2012 at 6:37am — 11 Comments
बालक-वृंद सुनैं, यह भारत-भूमि सदा सुख-साध भरी है
पावन चार नदी तट हैं, इतिहास कहे छलकी ’गगरी’ है
नासिक औ हरिद्वार-उजैन क घाट प बूँद ’अमी’ बिखरी है
धाम प्रयाग विशेष सदा जहँ धर्म-सुकर्म ध्वजा फहरी है
पुण्यधरा तपभूमि महान जो बारह साल प कुंभ सजावैं
तीनहुँ…
Added by Saurabh Pandey on December 26, 2012 at 12:30am — 48 Comments
मन में मेरे जो आएगा लिख कर उसको रख दूंगा
चाह नहीं कुछ नाम कमाऊँ दिया ह्रदय में रख दूंगा !
घर में मेरे जो आएगा मान दिए खुश कर दूंगा
जीवन मेरे जो छाएगा प्यार किये जीवन दूंगा
उपवन मेरा जो सींचेगा खुशहाली छाया दूंगा
पथ में राही साथ चले मुस्कान भरे स्वागत दूंगा
मै एक तपस्वी कांटे बोकर प्राण भी लो ,
कभी नहीं कह पाऊँगा ..
मन में मेरे जो आएगा लिख कर उसको रख दूंगा ………..
सूरज के गर साथ चलेंगे गर्मी हम पाएंगे ही
अंगार अगर हम…
Added by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on December 25, 2012 at 10:30pm — 15 Comments
थर्रा गये मंदिर ,मस्जिद ,गिरिजा घर
जब कर्ण में पड़ी मासूम की चीत्कार
सहम गए दरख़्त के सब फूल पत्ते
बिलख पड़ी हर वर्ण हर वर्ग की दीवार
रिक्त हो गए बहते हुए चक्षु समंदर
दिलों में नफरतों के नाग रहे फुफकार
उतर आये दैत्य देवों की भूमि पर
और ध्वस्त किये अपने देश के संस्कार
दर्द के अलाव में जल रहे हैं जिस्म
नाच रही हैवानियत मचा…
ContinueAdded by rajesh kumari on December 25, 2012 at 7:38pm — 24 Comments
खास आदमी जीने के, मौके करे तलाश
Added by AVINASH S BAGDE on December 25, 2012 at 12:33pm — 11 Comments
मुल्क में कोहराम कैसा है
या खुदा ये निजाम कैसा है
बाद दंगों के क्या दिखा तुमको
कैसा अल्लाह राम कैसा है
हाथ जोड़े थे वोट लेने को
देखना अब के काम कैसा है
खातिरे हक़ चली ये आंधी को
रोकने इंतजाम कैसा है
बादशा से सवाल करता जो
बेअदब ये गुलाम कैसा है
मूक अंधी बधिर ये सत्ता से
जो मिला ये इनाम कैसा है
हुक्मरानों के शहर में देखो
भीड़ कैसी ये जाम कैसा है
कह रहा "दीप" देश की हालत
आप कहिये कलाम…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 25, 2012 at 11:00am — 8 Comments
सेवा का थोड़ा व्रत रख लें
सेवा का मीठा फल चख लें ।।
यह दुनिया खुद की मारी है ,
खुदगर्ज यहाँ हर मानव है ,
अपने छोटे पेट की खातिर
कुकर्म करे यह नित नव है ।
गैरों को थोडा अपना कह लें --सेवा का मीठा फल चख लें ।।
जो देख रहे वह दुनिया नही ,
यह तो बस केवल मरघट है ,
कहने वालेतो कहते ही रहेंगे
यहाँ लोभ-मोह का जमघट है ।
इससे तो अब थोड़ा बच लें ----सेवा का मीठा फल चख लें ।।
गीता-गुरु को भुला कर…
ContinueAdded by श्रीराम on December 25, 2012 at 8:58am — 6 Comments
मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
*
जहाँ से…
ContinueAdded by sanjiv verma 'salil' on December 25, 2012 at 8:30am — 9 Comments
बदल गयी नीयति दर्पण की चेहेरो को अपमान मिले हैं !
निष्ठायों को वर्तमान में नित ऐसे अवसान मिले हैं !!
शहरों को रोशन कर डाला गावों में भर कर अंधियारे !
परिवर्तन की मनमानी में पनघट लहूलूहान मिले हैं !!
चाह कैक्टसी नागफनी के शौक़ जहाँ पलते हों केवल
ऐसे आँगन में तुलसी को जीवन के वरदान मिले हैं !!
भाग दौड़ के इस जीवन में , मतले बदल गए गज़लों के
केवल शो केसों में सजते ग़ालिब के दीवान मिले हैं !!
गीत ग़ज़ल की देह तौलते अक्सर सुनने वाले देखा !…
Added by ajay sharma on December 24, 2012 at 11:00pm — 4 Comments
वाह रॆ !
कानून
कानून बनानॆ वालॊ
और
कानून के रखवालॊ
अपनी आपनी पगड़ी सँभालॊ,
राज्य सभा मॆं
पचास प्रतिशत का आरक्षण
और
चौराहॆ पर आबरू का भक्षण,
कहनॆ कॊ अधिकार दियॆ हैं सम,
मॆरॆ जन्म पर छा जाता है मातम,
और ज्यॊं- ज्यॊं मॆरी उम्र बढ़नॆ लगती है
परिवार पर नई आफ़त चढ़नॆ लगती है,
घर की चौखट दायरा समेटनॆ लगती है,
जब बॆटी अपना दुपट्टा लपॆटनॆ लगती है,
मॆरी किस्मत चूल्हा चौंका बर्तन रॊटी,
ऊपर सॆ घर भर की सब…
Added by कवि - राज बुन्दॆली on December 24, 2012 at 5:30pm — 16 Comments
फुसलाने निकले
हम जिनको समझाने निकले
वो हमसे भी सयाने निकले
अनजाना समझा था जिनको
सब जाने पहचाने निकले
चेहरों पर लेकर खुशी
दर्द को छिपाने निकले
जिनको हमदम मान लिया था
दुश्मन वही पुराने निकले
जब पीने की दिल मे ठानी
बंद सभी मयखाने निकले
स्वांग ग़रीबी का करते थे
उनके घर तहख़ाने निकले
अब चुनाव जब सर पे आया
तो लोंगो को फुसलाने निकले
Dr. Ajay Khare Aahat
Added by Dr.Ajay Khare on December 24, 2012 at 12:00pm — 11 Comments
मात्री भगिनी भार्या रूप नारी
मान जिनका अब खो रहा
ठहाका लगा रहा दुराचारी
क्यों दुयोधन हो रहा
Added by ritesh singh on December 24, 2012 at 11:00am — 6 Comments
खुद को जब खुद से बचाना सीखिये
आप तब गोली चलाना सीखिये
पीर को खंजर, बनाना सीखिये
गर्दनें गम की उड़ाना सीखिये
पी रहे है खून दुनिया का बड़ा
खून के इनको बहाना सीखिये
दाग ये काले, घिनौने है बड़े
दाग को जड़ से मिटाना सीखिये
चोट से, मरते नहीं है नाग जो
आग से इनको जलाना सीखिये
.…
Added by अमि तेष on December 23, 2012 at 9:30pm — 9 Comments
==========ग़ज़ल===========
भेडियों के राज में शेरों की हस्ती देखिये
फिर रहे डंडा दिखाते सरपरस्ती देखिये
राजधानी में लगी यूँ आग गर्मी आ गयी
हो रही सड़कों में अब पानी से मस्ती देखिये
वो बुरा कहते नहीं सुनते नहीं देखें नहीं
खामखा ही…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 23, 2012 at 8:29pm — 11 Comments
ओ तरुणी
मेरे आंसू
तेरे दुख
कम नहीं कर पाएँगे
मेरी संवेदनाएँ
तेरे जख्म नहीं भर पायेंगे
तार -तार हैं सपने तेरे
रोम रोम में जहर भर गए
कुंठित होगा मन का कोना
घृणा के ज्वार पे तुम सवार
बदले की आग में भी जलोगी
ना कुछ करने की विवशता
आत्महत्या के लिए प्रेरित करेगी
ओ मेरी अनजान…
ContinueAdded by MAHIMA SHREE on December 23, 2012 at 6:30pm — 23 Comments
पुकार
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on December 23, 2012 at 12:52pm — 17 Comments
यही देश था वीरों की, गाता अद्भुत गाथा,
इसी देश की धरती पे थे, जन्मे स्वयं विधाता,
कभी यहाँ प्रेम -सभ्यता, की भी बात निराली,
आज यहाँ प्रणाम नमस्ते, से आगे है गाली,
इक मसीहा नहीं बचा है, कौन करे रखवाली,
शहरों में तब्दील हो रही, प्रकृति की…
Added by अरुन 'अनन्त' on December 23, 2012 at 11:43am — 10 Comments
नवीन लगे दिन रात नवीन सुहावत है हर बात नवीन/
नवीन खिले सब फूल-बहार,बयार चली भर शीत नवीन/
नवीन मिला जब साथ भई हथ हाथ लिए कुछ बात नवीन/
नवीन प्रसंग नवीन उमंग मिला मन को मन मीत नवीन//
करो न बचाव मिले उसको भरपूर सजा अरु दंड कठोर/
बने जहं भी नर कोय पिशाच, चुभे उसको गल फांस कि डोर/
जहां नित शोषित नार रहे सरकार में शामिल हों सब चोर/
वहाँ न सुरक्षित नार रहे घरबार न द्वार न मित्र न मोर/
Added by Ashok Kumar Raktale on December 23, 2012 at 9:30am — 14 Comments
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