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साँतवे सिलिंडर का इंतज़ाम (व्यंग्य) // शुभ्रांशु पाण्डेय

फिलहाल शादी का सीजन खत्म हो चुका है. शादी के सीजन के खत्म होने पर समझिये सभी के लिये आराम का समय. आराम यानि मन का आराम, तन का आराम, धन का आराम और पेट का आराम ! तन और मन की बातें तो जाने दें, लेकिन धन और पेट का आराम सभी के लिए सुकून देने वाला है. प्रत्येक निमंत्रण-पत्र का लिफ़ाफ़ा प्राप्तकर्ता से भी एक अदद लिफ़ाफ़े की उम्मीद तो करता ही है. वो लिफ़ाफ़ा कितना मोटा होगा ये निमंत्रण-पत्र के रूप में आनेवाले लिफ़ाफ़े पर निर्भर करता है. आपकी ओर से जाने वाला हर लिफ़ाफ़ा आपके घर का एकतरह से बजट बिगाड़ कर जाता ही है. बहरहाल, इन लिफ़ाफ़ों के आदान-प्रदान के बीच पेट तो एक ही है. बेचारा मज़ा लेते-लेते त्रस्त हो जाता है. खाने के बारे में सच ही कहा गया है... भले ही माल पराया हो, पेट तो अपना होता है.....
  
इसी नये-नये मिले आराम का फ़ायदा उठाते हुये हमसभी दोपहर की धूप का आनन्द लेने के लिये पार्क में जमा हुए थे. अबतक तो धूप भी शरीर का आनन्द लेने लगी थी. वातावरण शांत था. हवा नहीं चल रही थी. लेकिन हममें से सभी एक-एक कर अपने-अपने अपान और उदान वायु द्वारा वातावरण को बराबर प्रभावित किये हुए थे. तिवारी जी तो अपने साथ हिंगास्टक की गोली का पूरा डिब्बा ही ले आये थे. हम भी बेशर्मों की तरह उनके आगे हाथ फ़ैला कर बार-बार गोलियों की याचना कर रहे थे. दावत के समारोहों में हाथ में प्लेट लिये मांगते जाने से किसी से मांगने की झिझक भी खत्म हो जाती है. दावतों में हर स्टाल पर याचक की तरह थाली-कटोरा लिए खडे़ होने की ’फ़िलिंग’ तो होती है !
  
लाला भाई ने कहा, हर निमंत्रण पर जाना तो सम्भव नहीं हो पाता है्, जहाँ नहीं जा पाता हूँ वहाँ एक दो दिनों बाद फ़ोन कर के माफ़ी मांग लेता हूँ. और जहाँ कहीं गया, वहाँ भी सूप या काफ़ी लेने के बाद वापस आ जाता हूँ. घर का खाना सबसे प्रिय होता है. वर्ना तेल और मसालों से तो समझो सिर भन्नाने लगता है. मेरी ओर देख कर हँसते हुये कहा, आप तो फ़ुलकी-चाट खाकर ही मानते हैं. मैने कहा, इस उमर में अब ठेले-खोमचों पर खड़ा होना तो अच्छा नहीं ही लगता है. इस तरह के अरमान ऐसे दावतों में ही पूरा कर लेते हैं. लेकिन उसके बाद तो.. हा हा हा..  हँसते हुए मैने भी तिवारी जी की ओर हिंगास्टक की गोली के लिये हाथ फ़ैला दिया. सभी एक साथ हँस पडे़.
   
भास्करन ने सबकी हालत देख कर कहा, भाई, अपने तमिलनाडु में तो रसम खाने से पेट साफ़ हो जाता है. हम मियाँ-बीबी अकेले रहते हैं. ऐसे दावतों में मिलने-जुलने का काम हो जाता है. वर्ना एक मद्रासी को कुल्चा-नान और पनीर कहाँ पचने वाले ! तभी कुछ याद कर भास्करन ने कहा, हर दावत में गुप्ताजी जरुर मिलते हैं, भाई ! वो भी भरे प्लेट के साथ !
तभी तिवारी जी ने फ़िकरा कसा,  कौन गुप्ताजी, वही गोबर वाले !! 
सभी के सभी एक साथ ठठा कर हँस पडे़. तिवारी जी ने बात आगे बढाते हुये कहा, खाने-पीने के मौसम में तो उनका सारा परिवार ही नाक उठा कर बस यही सूँघता फिरता है कि कहीं से दावत की खुशबू आ भर जाये ! उनके लिये तो निमंत्रण-पत्र का आना या ना आना, जान-पहचान का होना या ना होना, कुछ भी मायने नहीं रखते. लेना-देना तो बाद की बातें हैं. उनसभी को केवल समारोह और खाने के प्लेट से मतलब रहता है. निमंत्रण-पत्र पर प्राप्तकर्ता के नाम के साथ ’सपरिवार’ का सही अर्थों में उपयोग तो गुप्ताजी ही करते हैं. उनके बच्चे तो बच्चे, उनका पोता तक बड़ा हो गया है. मतलब ये कि मुहल्ले के पुराने वाशिन्दों में से हैं और सभी की अपनी-अपनी सर्किल हो चुकी है. लेकिन निमंत्रण आया नहीं कि उनके परिवार के गणित की सेट-थ्योरी के सारे सर्किल वगैरह खत्म हो जाते हैं. मतलब ये कि वो MBBS (मियाँ-बीवी-बच्चों-सहित) आयोजनों में शिरकत करते हुये पाये जाते हैं. यानि, निमंत्रण भले ही गुप्ताजी के पोते का क्यों न हो...
  
ऐसा नहीं है कि गुप्ता जी की सामाजिकता अचानक बढ गयी है. यों भी वो अपने तशरीफ़ का टोकरा ले कर किसी न किसी के घर जब-तब  सपरिवार फ़ेविकोल के एड का नमूना बन कर जमते फिरते हैं . एक बार मुझे भी उनके साथ एक सज्जन के घर जाने का अवसर मिला था. जो कुछ अनुभव हुआ वह आज भी दिमाग की नसों में दौरे तेज़ कर देता है. गुप्ता जी ने सामाजिकता निभाते हुये न केवल उनके घर जा कर चार घंटे में चार दफ़े चाय पी, बल्कि जब अन्दर से चिल्लाहट के साथ यह सूचना आयी कि दूध खत्म हो गया है तो गुप्ता जी बेपरवाह होते हुये ठंढे शर्बत के साथ पहली बार में परोसी गयी नमकीन-दालमोठ भी दुबारा मंगा बैठे. मेजबान का हमारे जाने के बाद क्या हाल हुआ होगा ये कहने की जरुरत नहीं है. आज भी कभी उस बंधु से कहीं सामना होता है तो मेरे झेपने के पहले ही वे अपना रास्ता बदल लेते हैं. एक वो दिन और आज का दिन, मै दुबारा गुप्ताजी के साथ किसी के घर नहीं गया.

  
लाला भाई ने हँसते हुये कहा कि, भाई कु्छ भी हो, गुप्ता जी धीरजवाले भी तो बहुत हैं. उन्हे सूचना मिल भर जाये कि अमूक व्यक्ति निमंत्रण-पत्र बांट रहा है, वे आखरी समय तक अपने बुलाये जाने की बाट जोहते रहते हैं.  फिर भी नहीं तो उस व्यक्ति को याद दिलवाने के लिये किसी और से कहलवाते हैं. फ़िर भी काम न हुआ तो फ़िर सीधा उस व्यक्ति को काल ही कर लेते हैं, भाई आपके घर पर कार्यक्रम है और लगता है जिस व्यक्ति को आपने कार्ड बाँटने का जिम्मा दिया है वो मुझे कार्ड अबतक दे नहीं पाया है. फ़िर ये मत कहना कि गुप्ता जी आये नहीं !  झख मार कर अगला गुप्ताजी को आमंत्रित कर ही लेता है.
  
तिवारी जी ने लगभग फ़ुसफ़ुसाते हुए कहा, गुप्ता जी खाने के लिये निमंत्रण-पत्र का भी इन्तजार नहीं करते. कभी-कभी तो बिना निमंत्रण के ही आयोजन स्थल पर उपस्थित हो जाते हैं. वैसे एक बात और है.. तिवारीजी ने बातचीत को और मसालेदार बनाया. वहां भी वो सपरिवार चले जाते हैं. वैसे तो उनके पास कार है, लेकिन ऐसी जगहों पर सारा परिवार अलग-अलग जाता है, और अलग-अलग समय पर ! मज़ा भी ये कि वे सभी एक-दूसरे से आयोजन-स्थल पर आपस में मिलते नहीं हैं. इतनी भीड में किसे पडी है कि कौन आया, कौन नहीं आया. अगर कोई एक से मिला तो दूसरे से मिले ये जरुरी नहीं है. लाला भाई ने जरा गंभीरता से तिवारी जी से पूछा आप ये कैसे कह सकते हैं ? तिवारी जी ने बस दो दिन पहले की एक घटना का जिक्र किया. सिविल-लाइन्स के मशहूर मिठाईवाले केसरवानी के लड़के की शादी थी. मुझे भी जाना था. अब वे मिठाईवाले हैं तो इन्तजाम भी चौचक ही होना था. मैने हल्के में गुप्ताजी से बस पूछ भर लिया, चलना है क्या ?  भाई, मेरे इतना कहने भर की देर थी, वे मेरे साथ हो लिये. और मुझसे कहीं ज्यादा इन्जाय किये. एक जगह इटालियन आइटम के स्टाल पर उनके दोनो बेटों से भी मुलाकात हो गयी. मैने जब गुप्ता जी से पुछा तो पता चला कि वे बस चले आये हैं...अब क्या कहें उन्हे !!..  
  
खाने के मामले में भी गुप्ताजी का अपना एक खास तरीका है. दावतों में वो सबसे पहले स्विट-डिश से शुरु होते हैं. उनका तर्क ये होता है कि शुरु उससे करो जो सबसे पहले खत्म हो जाता है. फिर, पूरा खाना तो वैसे भी मिल ही जाता है ! खाने का भी उनका एक अलग तरीका है. वे खाने को देर तक और कई फ़ेज में खाते हैं. उन्हें दावत से वापस आने की कत्तई जल्दी नहीं होती. आराम से आइटम-बाइ-आइटम लुफ़्त लेते हैं. उनके इस व्यवहार का एक फ़ायदा भी है. आप उनसे सारे व्यंजनों का स्वाद और उसकी सही लोकेशन यानि किस टेबुल या स्टाल पर उपलब्ध है, जान सकते हैं. यानि, आपकी समस्या का उचित निराकरण कि क्या खाया जाये और क्या नहीं ! 
  
इस खाने का शौक तो अब ये है कि एक बार उनके घर की दावत थी. इंतज़ाम और आइटम आदि बस ठीक-ठाक ही थे. तभी उन्हें पता चला कि बगल वाले गेस्ट हाउस में खाना ज्यादा अच्छा बना है. फ़िर क्या था, उनका सारा परिवार बारी-बारी उस दावत से चटखारे ले-ले कर निपट लिया. एक बात और, अपनी इन हरकतों को वे किसी से छिपाते भी नहीं हैं. उसी पडोस की दावत में अपने साथ एक-दो मित्रों को भी लिवा ले गये थे ! मित्र भी वैसे ही !! लौट कर आये तो उनसबों ने व्यंजनों का सबके सामने ग्रेडिंग भी कर दिया !  
  
कई बार हमसभी शेयर कर के छोटी सी पार्टी का आयोजन करते हैं. इसे हम TTMM कहते हैं, अर्थात ’तेरा तू, मेरा मैं’ ! गुप्ताजी यहां भी शामिल होने के लिये लालायित रहते हैं. अगर भोजन व्यवस्था नान्वेज हो तो उनकी बाँछे ही मानों खिल जाती हैं. ऐसा नहीं कि वे नान्वेज हैं. वे तो पूरी तरह से शाकाहारी हैं.  वे बस इतना ही करवाते हैं कि मुर्गे के शोरबे के साथ अपने लिये चार पांच आलू अलग से उबलवा लेते हैं. फिर तो खाना शुरु हुआ नहीं कि सालन (शोरबा) और आलू के साथ पूरे खाने का भरपूर मजा लेते हैं. खर्च-शेयर के नाम पर उन भाई साहब का तर्क ये होता है कि हमने मूर्गे के पीस तो लिये नहीं थे, उन उबले आलुओं के साथ शोरबा लिया है, बस. फ़िर खर्च में बँटवरा कैसा ?!  किसी शुद्ध शाकाहारी पवित्र आत्मा से सामिष का खर्च लोगे क्या ?
  
दावतों में गुप्ताजी जैसे और कई लोग आपको मिल जायेंगे. क्या करें, इस हिसाब से दो-तीन माह में अन्य बचत के साथ-साथ दो-तीन गैस-सिलिंडर तो बचाये ही जा सकते हैं. आखिर सातवें सिलेण्डर का खौफ़ सारी मर्यादाएँ पार कर चुका है. दावतों का सीजन समाप्त हो गया अब.  अब तो नये भोजन-श्रोत के लिये वकोध्यानम् गुरुद्वारों के लंगरों पर भी लगाना पड़ सकता है. आखिर मामला गैस का भी है. गैस यानि उदर के अपान गैस का नहीं, सिलिंडर के गैस का, जो आजकल विशिष्ट की श्रेणी का दर्ज़ा प्राप्त कर चुका है ...
  

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Comment by Shubhranshu Pandey on January 3, 2013 at 8:34am

धन्यवाद आदरणीय सौरभ भैया, आपके विचार हमेशा से हौसला बढा देते हैं. गुप्ता जी का स्वभाव और उनके विचार बिल्कुल से नये नहीं हैं. अभी शादियों का नया सीजन शुरु होने वाला है. कई गुप्ता जी जैसे इन समारोहों में शिरकत करते नजर आयेंगे. 

जहां तक बात रचना की लम्बाई पर है, उसका खुलासा मैने पहले भी किया है कि मेरी रचना एक दृश्य को तैयार कर उसका मजा दिलाती है, पाठक पात्रों के मनोभावों को समझते हुये आगे बढ़ता है...यहीं रचना .आज के समय के हिसाब से...बस थोडी़... लम्बी हो जाती है.

वैसे भी अगर हास्य और व्यंग को ज्यादा लघु करें तो वो चुटकुलों कि श्रेणी में चला जाता है और ओबीओ पर ऐसी रचनाओं के लिये अलग पन्ना है जिस पर जा कर मजा लिया जा सकता है.

एक बार आदरणीय गणेश जी ने ही मेरी रचना पर कहा था कि मैं अमुक जगह लाला भाई के विचारों को देखना चाहता था. ये एक हौसला बढा़ने वाला विचार था.जब पाठकों को हर पात्र अपना सा लगता है. 

आगे आपने सही कहा है कि प्रिण्ट में आप लम्बी रचना पढ़ लेते हैं, क्योंकि आपके पास या सामने एक बार में केवल एक रचना होती है..  लेकिन आज जब हम नेट पर होते हैं तो एक साथ FB, tweeter, blog, ओबीओ और एक दो मेल के साइट या विण्डो खुलते  हैं. अब उसी में पढ़ना जबाब देना और लगे हाथ एक दो से चैट करना. मतलब ये कि आदमी बहुआयामी होते हुये बहुकार्य का सम्पादन करने में  एक पेज से ज्यादा पढ़ ही नहीं पाता है. फ़िर दो पेज की रचना.... वो तो लम्बी है कि जयघोष के साथ खारिज होने के क्रम में चली जाती हैं. शायद इसी से फ़ेसबुक वालों ने लाइक और पोक करने का रिवाज भी चलाया है. कुछ ना कहो या लिखो बस एक कन्टाप लगा दो.

सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 2, 2013 at 3:20pm

सातवें सिलिण्डर को संदर्भ लेकर एक ऐसे पात्र की सोच को साझा किया गया है वह बहुत कुछ सोचने को बाध्य कर देता है. हास्य के लहजे में गुप्ताजी के माध्यम से बहुत कुछ साझा हुआ है. मुख्य पात्र के रूप में वर्णित महानुभाव की सोच वाले कई-कई महारथी हमारी जाती ज़िन्दग़ी में भी मिल जाते हैं.

कहने का ढंग रोचक है. कथ्य का निर्वहन भी समुचित है. किन्तु, यह अवश्य है कि यह थोड़ा लम्बा हो गया है.

प्रिण्ट मिडियम में पाठक भले इकट्ठे कई-कई पन्ने पढ़ जायँ, नेट पर कोई पोस्ट एक-दो पॉरा से आगे पाठक नहीं पढ पाता. तभी लोकप्रिय नेट पत्रिकाओं में भी कविताएँ, लघु-कथाएँ या छोटे-छोटे नोट्स अधिक प्रचलित हैं. इस बात को भी ध्यान में रखा जाय. 

शुभेच्छाएँ

Comment by Shubhranshu Pandey on December 29, 2012 at 7:16am

आदरणीय वीनस जी, 

रचना पसंद आयी धन्यवाद

गुप्ता जी के पकड़ में आने पर मुझे भी बहुत दुःख हो रहा है.:)))))) 

सादर

Comment by Shubhranshu Pandey on December 29, 2012 at 7:10am

आदरणीया प्राची जी, आपके विचारों प्रतिक्षा रहती है.

सात रंग के सपनों में भी अब सांतवा सिलेण्डर ही आता है, इसने तो सातो सुर हिला कर रख दिय है. अब तो सातवें आसमान में भी सातवां सिलेन्डर ही रहता है. सात बौने अब स्नोवाइट को छोड कर सिलेण्डर खोज रहे है.देवकी आठवे पुत्र ने कंस का नाश किया था लेकिन सरकार ने सात में ही हमसभी का निपटारा करने का फ़ैसला कर रखा है. 

रचना पसंद आयी इसके लिये धन्यवाद.

Comment by Shubhranshu Pandey on December 29, 2012 at 6:58am

आदरणीय अशोक जी, बहुत बहुत धन्यवाद,

सही कहा आपने ऎसे लोग हर जगह मिलते हैं. वह भी कई हमशक्लों के साथ, मैने इन्ही हमशक्लों को एक साथ लाने का प्रयास किया है. ऎसा करने में किनको और क्या क्या लिखु इसी उहापोह में रचना लम्बी हो गयी है. आपके बधाई के स्वर ने हौसला दिया है..

वैसे भी दावत का मजा स्टार्टर के कटलेट से अन्त के पान तक को चखने के बाद ही आता है......

Comment by वीनस केसरी on December 28, 2012 at 1:53am

बेचारे गुप्ता जी ... च च च ...


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 27, 2012 at 9:32pm

हाहाहा ..हाहाहा ... एक गैस सिलेंडर के लिए गुप्ता जी को क्या क्या नहीं करना पड़ता, वो भी सपरिवार. हाहाहा...

हास्य व्यंग में आपका जवाब नहीं आ. शुभ्रांशु जी 

हार्दिक बधाई, इस मजेदार हास्य रचना पर, पूरा पार्टियों का मज़ा रचना पढ़ कर ही आ गया, और सिलेंडर बचाने की तरकीब भी इल गयी. हाहाहा 

Comment by Ashok Kumar Raktale on December 27, 2012 at 6:41pm

आदरणीय शुभ्रांशु जी सादर, बहुत सुन्दर व्यंग कथा और आपकी कहानी के पात्र गुप्ता जी तो ऐसे हैं कि हर दावत ही नहीं हर शहर में पाये जाते हैं वह भी कई हमशक्लों के साथ. सुन्दर. बधाई स्वीकारें.

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