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दो भाई! -भाग 5 (अंतिम)

भाग -5

गतांक से आगे)

भुवन की लड़की पारो (पार्वती) शादी के लायक हो चली थी. एक अच्छे घर में अच्छा लड़का देख उसकी शादी भी कर दी गयी. शादी में भुवन और गौरी ने दिल खोलकर खर्चा किया, जिसकी चर्चा आज भी होती है. बराती वालों को गाँव के हिशाब से जो आव-भगत की गयी, वैसा गाँव में, जल्द लोग नहीं करते हैं.

******

चंदर का बेटा प्रदीप शहर में रहकर इन्जिनियरिंग की पढाई कर रहा था.. दिन आराम से गुजर रहे थे. पर विधि की विडंबना कहें या मनुष्य का इर्ष्या भाव, जो किसी को सुखी देखकर खुश नहीं होता…

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Added by JAWAHAR LAL SINGH on March 30, 2013 at 8:53pm — 2 Comments

प्राण-पल

       

                      प्राण-पल

 

पेड़ से छूटे पत्ते-सा समय की आँधी में उड़ा

मैं हल्के-से तुम्हारे सामने था आ गिरा,

तुमने मुझे उठाया, देखा, परखा, मुझको सोचा,

जाने क्यूँ मुझको लगा

कि वह पल मेरी बाकी ज़िन्दगी से अलग

मेरा ज़्यादा अपना था, अधिक प्रिय…

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Added by vijay nikore on March 30, 2013 at 3:30pm — 20 Comments

प्रेमिकाएं और डाक टिकट

अपनी पुरानी  डायरी में से आपके लिए कुछ हाज़िर कर रहा हूँ ! आशा है आपको पसंद आएगा !



ये प्रेमिकाएं बड़ी विकट  होती हैं

बिल्कुल  डाक टिकट होती हैं

क्योंकि जब ये सन्निकट होती हैं

तो आदमी की नीयत में थोडा सा इजाफा हो जाता है !

मगर जब ये चिपक जाती हैं तो

आदमी बिलकुल लिफाफा हो जाता है !!



सम्बन्धों के पानी से

या भावनाओं की गोंद से चिपकी हुई

जब ये साथ चल पड़ती हैं तो

अपने आप में हिस्ट्री बन जाती हैं !

जिंदगी के डाक खाने में उस लिफ़ाफ़े की

रजिस्ट्री…

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Added by Yogi Saraswat on March 30, 2013 at 10:44am — 16 Comments

एक फुटपाथी कवि का दर्द

कल मैंने अपनी अप्रकाशित

कविताओं का एक बण्डल

नुक्कड़ के कोने पर बैठने वाले

छोले बेचने वाले को सौंप दिया

उसने इसे मुँह बंद करके हँसते हुए…

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Added by RAJEEV KUMAR JHA on March 30, 2013 at 10:31am — 6 Comments

दॊ सवैया (मत्तगयंद) हॊली संदर्भ मॆं

दॊ सवैया (मत्तगयंद) हॊली संदर्भ मॆं

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1)

रंग बिरंग गुलाल लियॆ सखि, ताकत झाँकत गैल हमारी !!

संग दबंग लफंग लियॆ कछु, आइ गयॊ अलि छैल-बिहारी !!

मॊहन माधव मारि दई तकि, जॊबन बीच  भरी पिचकारी !!

भूल गई सुधि लाजनि तॆ सखि,भीगि गई रँग कॆशर सारी !!

2)

अंग अनंग उमंग  उठी सखि, भंग मतंग करैं किलकारी !!

हूक उठी…

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Added by कवि - राज बुन्दॆली on March 30, 2013 at 8:30am — 11 Comments

महाराष्ट्र का भीषण सूखा

पानी को ललात कहीं, दिखी भीड़ बिललात।

लम्बी सी कतार लगी, पात्र रीते घूरते।।

सूख गए कूप सारे, सूने पड़े नल कूप।

सूखी नदियों के घाट, मन देख खीझते।।

जल की…

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Added by Satyanarayan Singh on March 30, 2013 at 12:30am — 10 Comments

क्या खूब उसने मुझको , पर्दा हटा के मारा

क्या खूब उसने मुझको , पर्दा हटा के मारा 

उम्मीद के अंचल मैं , उसने सुला के मारा 

आयेगे कह गए वो ,मेरा इंतज़ार करना 

उम्मीद के दामन मैं, ऐसे फुला के मार 

बेमौत मर गया वह, ये दुनिया कह रही थी 

इन्सनियत में उसने , सर को कटा के मारा 

मेरा वजूद उसका हमशक्ल बन गया था 

यादों मैं उसने मुझको , ऐसा सता के…

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Added by Dinesh Kumar khurshid on March 29, 2013 at 9:22pm — No Comments

मांगना

किसी से

कुछ भी माँगना

मुझे लगता है

बहुत बुरा...



कुछ भी मांगने से पहले

करना पड़ता है अभ्यास

कैसे हुआ जाएगा प्रस्तुत

देने वाले के सामने

समय कौन सा उचित हो

जब दाता का मूड ठीक हो

किस अंदाज़ में माँगा जाए

भाषा कैसी हो

कि पिघल जाए दाता...



मांगने का अर्थ है

कि गिरवी रख दिया जाए

अपना समूचा अस्तित्व

साथ ही मन में

रहा आये संशय

कि मांगने पर भी

कुछ न मिले तब....?



बड़ी शर्मिंदगी भर देता… Continue

Added by anwar suhail on March 29, 2013 at 8:59pm — 13 Comments

लम्बे दिन

याद है ....

पहले की दिन कितने

बड़े होते थे

अम्मा तीन बार जगाती थी..

तब कहीं ७(सात) बजा करते थे..

नाश्ता करके ..

उछलते हुए स्कूल जाना

रास्ते में ठेले से केले खींचकर खान

आधी छुट्टी में स्कूल के बाहर

खड़े ठेले से चाट खाना ...

छुट्टी होते ही दोड़ते हुए

घर की तरफ भागना ...

कितना मज़ा था ...

उन दिनों का ..

अम्मा का दौड़ा .. दौड़ा कर खाना खिलाना ..

और समय होता था बस दोपहर का २(दो)

वाकई पहले के दिन कितने

बड़े होते थे… Continue

Added by Amod Kumar Srivastava on March 29, 2013 at 5:03pm — 6 Comments

अब किसी रहनुमा की जरुरत नहीं

इस रहम इस वफ़ा की जरुरत नहीं
अब किसी रहनुमा की जरुरत नहीं

खुद मिलें ना मिलें अब मुझे रास्ते
मुझको तेरी दुआ की जरुरत नहीं

दो कदम चल के जाने कहाँ खो गया
दिल को उस गुमशुदा की जरुरत नहीं

कोई उसको भी जाके बता दे जरा
मुझको उस बेवफा की जरुरत नहीं

मेरे दामन में अब दाग ही दाग हैं
अब किसी बेख़ता की जरुरत नहीं

-पुष्यमित्र

Added by Pushyamitra Upadhyay on March 28, 2013 at 8:49pm — 4 Comments

गज़ल/ देह जलती है

शाम सी जिंदगी गुजरती है

रात कितनी करीब लगती है

 

याद नित पैरहन बदलती है

ये शमा बूंद बन पिघलती है

 

आंत महसूस अब नहीं करती

भूख पर आंख से झलकती है…

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Added by बृजेश नीरज on March 28, 2013 at 7:19pm — 14 Comments

होली (हाईकु)

हंसी ठिठोली

सबको मुबार‍क 

रंगों की होली ।

 

 बढ़ता मेल 

कोई गोरा न काला 

समझो न खेल…

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Added by नादिर ख़ान on March 28, 2013 at 5:21pm — 7 Comments

अभी बहुत कुछ सीखना है

मैं यह तो नहीं सकता कि मुझे सब कुछ आता है, पर यह बात मैं बहुत अच्‍छी तरह से जानता हूं कि मुझे अभी बहुत कुछ सीखना है. फिलहाल तो इतना ही सीख पाया हूं कि एक अदद नौकरी ठीकठाक चल सके. लेकिन इसमें भी एक पेंच है कि अगर काम अच्‍छे से नहीं किया तो समझो वह भी हाथ से गई. रोजमर्रा की दैनिक आवश्‍यकताओं को पूरा करने में लगा रहता हूं, जब कभी कहीं पर परीक्षा देने की बारी आती है तो हाथ पांव फूलने लगते है. न जाने क्‍यों परीक्षा के नाम से बचपन से ही डर लगता था, यह अलग बात है कि मैं परीक्षा में खरा ही उतरता…

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Added by Harish Bhatt on March 28, 2013 at 1:22am — 3 Comments

सत्य कथा......‘‘जो ध्यावे फल पावे सुख लाये तेरो नाम...........।‘‘

सत्य कथा......‘‘जो ध्यावे फल पावे सुख लाये तेरो नाम...........।‘‘ . नाम दया का तू है सागर......सत्य की ज्योति जलाये........सुख लाये तेरो नाम..! जो ध्याये फल पाये........नाम सुमिरन का साक्षात् प्रभाव और महत्व दोनों का ही अनुभव मैंने सहज में परख लिया है। वास्तव में जो सुख में जीता है, उसे न तो नाम सुमिरन का महत्व समझ में आता है और न ईश्वर से साक्षात् ही कर पाता है। वह केवल अपने स्वार्थ में लिप्त रह कर केवल कपट और मोह मे ही फॅसा रहता है। वास्तविकता तो यह भी है जो व्यक्ति स्वयं को अकिंचन, शून्य…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 27, 2013 at 10:40pm — 6 Comments

होली पर मुक्तक--

मुक्तक-- जो कि होली के साथ सबको होली की शुभकामनायें...........

आज होली के नाम पर तरसे 

रोज तरसे जो आज भी तरसे, 

जिंदगी गम का इक पहाड हुई,

कल भी पत्थर थे आज भी बरसे।।

.......................................सूबे सिंह सुजान

Added by सूबे सिंह सुजान on March 27, 2013 at 10:08pm — No Comments

नरकवासी

हमने चुना

अपने लिए

एक नर्क

या धकेल दिया था तुमने

हमें नर्क में...

कोई फर्क नहीं पड़ता...

 

नर्क

भले ही जैसा था

हमने उसमें बसने का

बना लिया मन

और ठुकरा दिया

तुम्हारे स्वर्ग को

उन लुभावने सपनो को

जिसे दिखलाते रहे तुम

और तुम्हारे दलाल…

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Added by anwar suhail on March 27, 2013 at 7:52pm — 4 Comments

तन्हाई

ये तन्हाई अब काटने को दौड़ती है 

यह गुमनामी हमें अन्दर से  तोडती है 

हम उस कीड़े की तरह  हैं जो आबाद समंदर में होकर भी

एक सीपी में कैद है 

हम उस पेड़ की तरह हैं जो घने जंगल में 

होकर भी सूरज की रौशनी  से अब तक महफूज़  है 

हम उस कैद पंच्छी  की तरह हैं, 

 जो असमानों को छोड़ एक पिंजरे में कैद है…
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Added by Rohit Dubey "योद्धा " on March 27, 2013 at 11:24am — 3 Comments

दो भाई ! - भाग -४

(भाग -३ से आगे की कहानी )

जिस इलाके की यह कहानी है, वह पटना के पास का ही इलाका है, जहाँ की भूमि काफी उपजाऊ है. लगभग सभी फसलें इन इलाकों में होती है! धान, गेहूँ, के अलावा दलहन और तिलहन की भी पैदावार खूब होती है. दलहन में प्रमुख है मसूर, बड़े दाने वाले मसूर की पैदावार इस इलाके में खूब होती है. मसूर के खेत बरसात में पानी से भड़े रहते हैं. जैसे बरसात ख़तम होती है, उधर धान काटने लायक होने लगता है और इधर पानी सूखने के बाद खाली खेतों में मसूर की बुवाई कर दी जाती है. मसूर के खेत, केवाला…

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Added by JAWAHAR LAL SINGH on March 27, 2013 at 4:55am — 6 Comments

ऐसी ही एक शाम थी

ऐसी ही एक शाम थी

कुछ गुलाबी थोड़ी सुनहरी

सूर्य किरणें जल में तैरती

तरल स्वर्ण सी चमकीली

फैली थी घनी लताएँ

हरित पत्तों बीच गहरी

बैगनी फूलों की छाया

हृदय में थी ठहरी सी

मन झील सा शांत

इच्छाएँ थीं चंचल , अकिंचन

पहेलियाँ कितनी अनबुझी

तैर रही थी मीन सी

गोद में खुला पड़ा था

पत्र एक , किसी अंजान का

उपेक्षित सा यूँ ही

बरसों पहले था पढ़ा

कितनी रातें बीती थी

सपनों में भटकती थी

उपवन में कभी , कभी –

निविड़…

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Added by coontee mukerji on March 27, 2013 at 12:30am — 8 Comments

फाग अनुरागी बना, जगत बिरागी मन

Ecstacy                 ओबीओ के समस्त सदस्यों को होली की मंगलमय शुभ कामनाएं

फाग अनुरागी बना, जगत बिरागी मन।

       सुन्दर बसंती छटा, लगी मन…

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Added by Satyanarayan Singh on March 27, 2013 at 12:00am — 8 Comments

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