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हमने चुना

अपने लिए

एक नर्क

या धकेल दिया था तुमने

हमें नर्क में...

कोई फर्क नहीं पड़ता...

 

नर्क

भले ही जैसा था

हमने उसमें बसने का

बना लिया मन

और ठुकरा दिया

तुम्हारे स्वर्ग को

उन लुभावने सपनो को

जिसे दिखलाते रहे तुम

और तुम्हारे दलाल...

 

और जिस स्वर्ग के लालच में

फंसती रहीं

हमारी कई कई पीढियां...

 

धरे रहो तुम अपना स्वर्ग

अपनी तिजौरियों में

हमें छोड़ दो

हमारे हालात पे...

 

हम खोज लेंगे

अपने लिए खुशी के क्षण

गंधाते हुए

बजबजाते हुए

तड़पाते हुए माहौल में भी....

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 29, 2013 at 3:47pm

अनवर सुहैल जी, आपकी इस रचना पर मैं मुग्ध भी हूँ और आपकी साहित्यिक ताकत का दीवाना भी. आपकी यह रचना इस मंच के लिए कम फख्र की बात नहीं है.

इस रचना के परिप्रेक्ष्य में यह कहना गलत न होगा कि आप जैसा सुधी और मानसिक रूप से इतना प्रखर सदस्य अपना सहयोगी है.

सादर

Comment by बृजेश नीरज on March 29, 2013 at 11:11am

अति सुन्दर!

Comment by coontee mukerji on March 28, 2013 at 10:23pm

अनवर जी , कितनी पीड़ा झलकती है इस रचना में,फ़िरभी कवि का  स्वाभिमानी मन झुकने को तैयार नहीं .अति सुन्दर .


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on March 28, 2013 at 8:10pm

जिस विधि राखे , उस विधि रहिये...... हर हाल में खुश 

फिर नर्क से क्या डरना..

जब चारों तरफ नारकीय हालात हों, तो भी उम्मीद की किरण और उस परमशक्ति पर विश्वास जो हमार भीतर ही विद्यमान है ऐसी ही सकारात्मक सोच देती है 

हम खोज लेंगे

अपने लिए खुशी के क्षण

गंधाते हुए

बजबजाते हुए

तड़पाते हुए माहौल में भी....

हार्दिक बधाई इस सुन्दर प्रस्तुति पर 

कृपया ध्यान दे...

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