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अभी बहुत कुछ सीखना है

मैं यह तो नहीं सकता कि मुझे सब कुछ आता है, पर यह बात मैं बहुत अच्‍छी तरह से जानता हूं कि मुझे अभी बहुत कुछ सीखना है. फिलहाल तो इतना ही सीख पाया हूं कि एक अदद नौकरी ठीकठाक चल सके. लेकिन इसमें भी एक पेंच है कि अगर काम अच्‍छे से नहीं किया तो समझो वह भी हाथ से गई. रोजमर्रा की दैनिक आवश्‍यकताओं को पूरा करने में लगा रहता हूं, जब कभी कहीं पर परीक्षा देने की बारी आती है तो हाथ पांव फूलने लगते है. न जाने क्‍यों परीक्षा के नाम से बचपन से ही डर लगता था, यह अलग बात है कि मैं परीक्षा में खरा ही उतरता हूं, लेकिन फेल होने का डर अपनी जगह डटा रहता है, क्‍योंकि सालों पहले दो तीन बार में फेल भी हो चुका हूं. इस डर की वजह से कभी किसी प्रतियोगिता परीक्षा में भाग नहीं लिया या खुद को परीक्षा में पास होने लायक नहीं समझा. नौ बार फेल होकर एक बार पास होने से अच्‍छा है कि परीक्षा ही न दी जाए, ताकि एक खुशनुमा भ्रम तो जिंदगी भर साथ रहेगा, हम भी पास हो सकते थे, हम भी अफसर बन सकते थे, लेकिन क्‍या करते वक्‍त और किस्‍मत ने साथ नहीं दिया. जबकि असल बात यह थी कि ईमानदारी और मेहनत से पढाई ही नहीं की. मन तो बहुत था, लेकिन फिर मस्‍ती कैसे मारनी थी. हीरोगिरी और मनमर्जी के चलते कॉलेज घूमने जाने का नतीजा यह निकला कि आज भी अधिकतर मोर्चों पर अपनी गिनती फेलियर्स में ही होती है. यहां दूसरों को क्‍या रास्‍ता दिखाएंगे, खुद की मंजिल का पता मालूम नहीं. बस यूं ही चलता जा रहा हूं, जो मिला उसको अपना बना लिया, ताकि वक्‍त बेवक्‍त कब जरूरत पड जाए. यूं भी जिंदगी बेहरम होती है. यह तभी मालूम चलता है जब आवश्‍यकताओं को पूरा करने की जिम्‍मेदारी स्‍वयं पर हो. वरना तो मां पिता और परिवार के भरोसे पर जिंदगी के रास्‍ते खुशनुमा ही लगते है. मां-पिता भी अपनी खुशियों को दरकिनार करते हुए अपने बच्‍चों पर ही ध्‍यान देते है. ताकि उनके बच्‍चों को जिंदगी का सफर पथरीला न लगे. थोडा बहुत समझ आने लगा है कि यदि वक्‍त रहते उनकी बातों पर ध्‍यान दिया होता, तो कम से कम आज मंजिल का पता तो मालूम होता ही.

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Comment by Saurabh Pandey on March 29, 2013 at 11:44pm

आपने अपनी क्या कही कइयों के जीवन के भूलेबिसरे पल याद आगये.

वाकई बहुत कुछ सीखना है.  ..हम कइयों ने न सीखी होशियारी. ..

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 29, 2013 at 6:51pm

सर्व गुण संपन्न तो प्रभु ही है, बाकी सभी को इस भौतिक जगत में निरंतर अपने से अधिक शिक्षित, गुनी,

अनुभवी और ज्ञानवान से सतत सीखते रहना होता है | तभी दायित्व बौध हो पाता है | कौन किस परिवेश में

पला बढ़ा और सत्संग में समय व्यतित करता है, वैसे ही परिपक्व हो कर अपना दायित्व निर्वहन कर पाता है |

और फिर देर आये दुरस्त आये,सुबह नका भूला शाम को भी लौट आवे तो भूला नहीं कहाता कहावते ध्यान में

रख, बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध ले जैसी कहावतों पर ध्यान देकर चिंतन करना चाहिए | बेबाक और स्पष्ट विचार रचना के लिए बधाई 

Comment by coontee mukerji on March 28, 2013 at 10:48pm

हरीश जी , अभी बहुत कुछ सीखना है. एक अच्छी खासी सीख है. परीक्षा के नाम  सुनकर बचपन में मेरे भी पेट में दर्द होता था.आज

सोचती हूँ तो हँसी आती है.टीचर को कैसे उल्लू बनाते थे.जब मैं टीच्रर बनी तब कभी भी पेट में दर्द की शिकायत  करने वाले बच्चे को

नहीं छोड़ा . खूब कड़वी दवा पिलाई. आज वे लोग उँचे उँचे पद पर आसीन है.अगर आपका  व्यक्तिगत अनुभव है तो चलिये -कहते है कि देर आये दुरूत आये.बहुत धन्यवाद.

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