सब कुछ शांत है...मौन | दो छूहों पर टिकी छप्पर वाली दालान में रजाई ओढ़े हुए मैं इस सन्नाटे की आवाज़ सुनने की कोशिश करता हूँ | इस रजाई की रुई एक तरफ को खिसक गयी है; लिहाज़ा जिस तरफ रुई कम है उस तरफ से सिहरन बढ़ जाती है | हल्का सा सर बाहर निकालता हूँ तो तैरते हुए बादल दीखते हैं; कोहरा है ये जो रिस रहा है धरती की छाती पर | छूहे की खूँटी पर टंगी लालटेन अब भी जल रही है...हौले हौले | अम्मा देखेंगी तो गुस्सा होंगी; मिटटी का तेल जो नहीं मिल पाता है गाँव में....दो घंटों तक खड़ा रहा था कल, तब जाकर तीन लीटर…
ContinueAdded by neeraj tripathi on April 21, 2011 at 1:00pm — 2 Comments
करना रुखसत मुझे तो यूं करना ..
मेरे शब्दों को साथ कर देना..
मेरे स्वप्नों को हार कर देना..
गीत जो संग संग गाए थे..…
ContinueAdded by Lata R.Ojha on April 20, 2011 at 11:00pm — 7 Comments
Added by ASHVANI KUMAR SHARMA on April 20, 2011 at 9:30pm — 5 Comments
तुमने चाहा मेरा वजूद ही मर जाए
किन्तु तुम्हारे प्यार में मै बुत था,
मेरे प्रेम तप से अनजान बने क्यूँ.
क्या तुम्हें मेरा विश्वास कम था...........,
तुम शौके बहार बन आए जीवन में
मैंने भी सब कुछ नाम किया तुम्हारे
प्रीत प्याले को हाथ में देकर
तुम अमृत की जगह विष दे डाले.......
तुम एक प्रेयसी बन के आए थे
तुम्हारी खुशबू से महक उठा मै
नए जोश उमंग से घड़ियाँ प्रेम की बीतीं.
ऐसा जख्म दिया साथी, ये जिंदगी है मुझसे रूठी........
Added by Sanjay Rajendraprasad Yadav on April 20, 2011 at 8:00pm — 6 Comments
Added by Veerendra Jain on April 20, 2011 at 11:30am — 9 Comments
Added by वीनस केसरी on April 20, 2011 at 3:00am — 7 Comments
Added by देवDevकान्तKant पाण्डेयPandey on April 19, 2011 at 3:32pm — 3 Comments
Added by neeraj tripathi on April 19, 2011 at 12:03pm — No Comments
गजल-खुदी को खुदी से छुपाते रहें हैं हम ।
गैरो को मोहरा बनाते रहें हैं हम।।
भ्रष्टाचार को सबने अपना लिया हैं।
शिष्टता की बातें बनाते रहें हैं हम।।
रोशनी से चैंधिया जाती है आंखें ।
अंधेरे में खुशियां मनाते रहें हैं हम।।
जेब कतरों का पेट नहीं भरता।
मेहनत की अपनी खिलाते रहें हैं हम।।
लाखों भूखे पेट सोते हैं यहां।
बज्मों में रातें बिताते रहें हैं हम।।
अन्नाजी आपका बहुत आभार ।
अब तक सूखी खाते रहें हैं हम।।
दोस्तों नेकी कुछ करलो अभी…
ContinueAdded by nemichandpuniyachandan on April 19, 2011 at 10:30am — 1 Comment
Added by sanjiv verma 'salil' on April 19, 2011 at 8:30am — No Comments
Added by sanjiv verma 'salil' on April 19, 2011 at 8:25am — No Comments
बरसते नभ से नीर को सहर्ष अपनाते हैं...
नैन बरसें तो रूठ जाते हैं..
प्रीत को तौलते हैं जो लफ़्ज़ों में..वो.…
Added by Lata R.Ojha on April 18, 2011 at 10:30pm — No Comments
Added by Raj on April 18, 2011 at 9:32pm — No Comments
Added by rajendra kumar on April 18, 2011 at 12:08pm — 1 Comment
Added by R N Tiwari on April 18, 2011 at 10:30am — No Comments
गजल
दौरे-जहाँ में बन गया कुफ्तार आदमी।
सरे-बाजार में बिकने को हैं तैयार आदमी।।
धर्म-औ-ईमाँ को जो बेच के खा गये।
मौजूद है जहाँ में ऐसे कुफ्फार आदमी।।
कातिल दिन-दहाडे जुल्मो-सितम ढा रहे हैं।
वक्त के हाथों हैं बेबस-औ-लाचार आदमी।।
इसे दुनियां का आंठवा अजूबा ही समझना।
दर्जा-ए-जानवर में हो गया शुमार आदमी।।
कानून-औ-कायदो को करके दरकिनार।
बेखौफ कर रहा आदमी का शिकार आदमी।।
नमकपाश तो बेशुमार मिल जायेंगे मगर।
बडी मुश्किल से…
Added by nemichandpuniyachandan on April 17, 2011 at 9:30am — 1 Comment
आराधना की वेदी पर अपनी हर एक सांस को न्यौछावर कर देने के लिए आतुर महिमायमयी महादेवी की जिंदगी विलक्षण रही। वह प्यार, करूणा, मैत्री और अविरल स्नेह की कवियत्री रही। मधुर मधुर जलने वाली ज्योति जैसी रही प्रतिपल युगयुग तक प्रियतम का पथ आलोकित करने के लिए आकुल रही। अपनी जिंदगी को दीपशिखा के समान प्रज्लवलित करके युग की देहरी पर ऐसे रख दिया कि मन के बाहर और भीतर उजियाला बिखर गया। महादेवी की रहस्यवादी अभिव्यक्ति को निरुपित करते हुए कवि शिवमंगल सिंह सुमन ने कहा था कि उन्होने वेदांत के अद्वैत की…
ContinueAdded by prabhat kumar roy on April 17, 2011 at 8:55am — 3 Comments
कुछ द्विपदियाँ :
संजीव 'सलिल'
वक्-संगति में भी तनिक, गरिमा सके न त्याग.
राजहंस पहचान लें, 'सलिल' आप ही आप..
*
चाहे कोयल-नीड़ में, निज अंडे दे काग.
शिशु न मधुर स्वर बोलता, गए कर्कश राग..
*
रहें गृहस्थों बीच पर, अपना सके न भोग.
रामदेव बाबा 'सलिल', नित करते हैं योग..
*
मैकदे में बैठकर, प्याले पे प्याले पी गये.
'सलिल' फिर भी होश में रह, हाय! हम तो जी गए..
*
खूब आरक्षण दिया है, खूब बाँटी…
ContinueAdded by sanjiv verma 'salil' on April 16, 2011 at 10:15pm — 3 Comments
Added by neeraj tripathi on April 16, 2011 at 4:46pm — 4 Comments
देशवासियों तन्द्रा तोड़ो।
आखें खोलो आलस छोड़ो।
उठो जगो बढ़ चढ़ो दुश्मनों
के रुण्डो मुण्डों को फोड़ो।
खुली चुनौती मिली मुम्बई
की कर लो स्वीकार ।
बचना पाये तुमसे कोई
घुसपैठी गद्दार
अगर हिफ़ाजत करे दुश्मनों
की कोई सरकार।
जड़ से उसे उखाड़ फेंकना
और करना ये हुँकार-
भारतमाता की जय।
आस्तीन में छिपे भुजंगों
के फण त्वरित मरोड़ो
जहर भरा है जितना भी
सबका सब आज निचोड़ो
छोड़ो…
ContinueAdded by आचार्य संदीप कुमार त्यागी on April 16, 2011 at 2:01am — 1 Comment
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