नया साल चढ़ा है
कुछ बुदबुदाता हुआ
आया है नया साल
ओढ़े बबूलपन के संग
बुद्धी की सचाई की
मुरझाई पुष्पलता
हो सकता है यह पहनावा
नया…
ContinueAdded by vijay nikore on February 6, 2020 at 6:30am — 4 Comments
दो क्षणिकाएँ
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(1) थप्पड़
मुझे पता भी न था
उस शब्द का अर्थ
गुस्से में किसी को बोल दिया था
'साला....'
गाल पर झन्नाटेदार थप्पड़ के साथ
माँ ने समझाया था
गाली देना गंदी बात !
काश,
उनकी माँ ने भी
लगाया होता
थप्पड़
तो आज...
नहीं देते वे
माँ, बहन को इंगित
गालियाँ ।
(2) बारुद
उनको दिखाई देता है
बारूद
मेरी दीया-सलाई की काठी में,
जिससे जलता है
हमारे घर का…
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 5, 2020 at 8:30am — 5 Comments
हर शासन अब गद्दारों को यार बहुत हितकारी है
जो करता है बात देश की उसको बस लाचारी है।१।
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सर्द हवाओं के चंगुल में ठिठुराती आशाएँ बैठी
सुन्दर सपनों की खेती पर पाला पड़ता भारी है।२।
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पहले लगता था हम जैसा गम का मारा कोई नहीं
पर जब देखा पाया दुनिया हमसे भी दुखियारी है।३।
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तुमको भी पत्थर आयेंगे वक्त जरा सा…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 3, 2020 at 5:30am — 4 Comments
वो एक नींद ही तो थी
कि जिसमे
मै जाग रहा था /
सपने
तितलियों से कोमल
हथेलिओं की कोटर में
छुपा कर
चला था मैं
कि
बिखेर दूंगा इन रंगों को
चुपचाप
आसमान के कोने कोने में,
और चल दूंगा
अपने झोले में
कुछ मुस्कुराहटें
कुछ खुशियां
कुछ उम्मीदें
कुछ शरारतें लेकर
एक खुशनुमा सफर पर
एक बंजारे सा भटकता हुआ
गांव - गांव
शहर - शहर
कि
शायद मेरा होना
किसी के होठों की…
Added by ARVIND BHATNAGAR on February 2, 2020 at 3:30pm — 4 Comments
आँख-मिचौनी
साँझ के रंगीन धुँधलके ...
आँख-मिचोनी खेलते
एक दूसरे को टटोलते
मद्धम रोशनी में उभरती रही
कोई पवित्र विलुप्त लालसा
आवेगों में खो जाने की…
ContinueAdded by vijay nikore on February 2, 2020 at 2:30pm — 4 Comments
फाइलुन फाइलुन फाइलुन
212 212 212
हम हैं नाकाम-ए-राह-ए-वफ़ा
काम आई तेरी बद-दुआ ।
इश्क़ की है अभी इब्तिदा ,
यार मुझ को न तू आज़मा।
रात भर जागता रहता है,
चाँद क्यों इतना है ग़म-ज़दा ।
वो पता पूछे तो बोलना
"कुछ दिनों से हूँ मैं लापता"
आखरी बार मुझ से मिलो ,
आखरी बार है इल्तिजा ।
अब नही देखता तुझ को मैं,
रायगाँ है सवरना तेरा ।
जा रहा हूँ तेरे दर से मैं
दिलरुबा ग़म छुपा,,मुस्कुरा |
- शेख ज़ुबैर अहमद
(मौलिक…
Added by Shaikh Zubair on February 1, 2020 at 4:33pm — 4 Comments
प्रधान संपादक, आदरणीय योगराज प्रभाकर जी की टिप्पणी के आलोक में यह रचना पटल से हटायी जा रही है ।
सादर
गणेश जी बाग़ी
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 1, 2020 at 9:30am — 30 Comments
2122 2122 2122 212
जब सफलता मिल गई खुद का किया लिक्खा गया,
अपनी हारों को खुदा का फैसला लिक्खा गया।
आपके शफ्फाक दामन को बचाने के लिए,
कत्ल मुझ बदबख्त का इक हादसा लिक्खा गया।
दर ब दर होते रहे वो सारे खत खुशियों भरे ,
जिन पर तेरा नाम और मेरा पता लिक्खा गया।
चार भाई साथ रहकर कितने खुश थे हम कभी,
टूटकर बिखरे तो फिर दिल भी जुदा लिक्खा गया।
अब हमारी जिंदगी में एक उलझन ये भी है,
उसके दिल में…
Added by मनोज अहसास on February 1, 2020 at 12:07am — 2 Comments
देख लोगो को रोते हुए
ज़ोर से लाश एक हँस पड़ी
जीते जी तो जीने दिया ना
गुस्से में वो बिफर पड़ी ||
खरी-खोटी मुझे रोज सुनाते
तनिक भी ना परवाह थी
दिल पे मेरी क्या गुजरती
घुट-घुट के मैं रोती थी ||
खुदा बक्शे अगर, जिंदगी
औकात दिखा दे अभी सभी
घड़ियाल से आँसू जो बहाते
असलियत आ जाए सामने अभी ||
भूल जायेंगें कुछ ही दिन में
याद ना आयें मेरी कभी
अच्छी-बुरी मेरी बातें कर
सहानुभूति…
ContinueAdded by PHOOL SINGH on January 31, 2020 at 5:00pm — 2 Comments
221 2121 1221 212
दिल से सवाल होठों से ताले नहीं गए.
दुनिया के ज़ुल्म खाक में डाले नहीं गए
.
जिस दिन से इंतज़ार तेरा दिल से मिट गया,
उस दिन से मेरे दिल में उजाले नहीं गए.
अपनी समझ से कैसे बने बच्चों का वजूद,
अपनी समझ से शेर तो ढाले नहीं गए.
कल रात उसने ख़्वाब में आकर कहा मुझे,
रिश्तें तो आपसे भी संभाले नहीं गए.
बरसों पुरानी बातों ने दिल को जकड़ लिया,
कुछ दोस्त जिंदगी से निकाले नहीं…
Added by मनोज अहसास on January 31, 2020 at 12:07am — 1 Comment
अतुकांत कविता : प्रगतिशील
अकस्मात हम जा पहुँचे
एक लेखिका की कविताओं पर
जिसमे प्रमुखता से उल्लेखित थे
मर्द-औरत के गुप्त अंगों के नाम
लगभग सभी कविताओं में...
पूरी तरह से किया गया था निर्वहन
उस परंपरा को
जहाँ दी जाती हैं गालियाँ
समूची मर्द जाति को
एक ही कटघरे में खड़ा कर
प्रस्तुत किया जाता है विशिष्ट उदाहरण
चंद मानसिक विक्षिप्तों…
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 30, 2020 at 7:30pm — 6 Comments
Added by Sushil Sarna on January 30, 2020 at 4:00pm — 4 Comments
समय के साय
समय पास आकर, बहुत पास
कोई भूल-सुधार न सोचे
अकल्पित एकान्तों में सरक जाए
झटकारते कुछ धूमैले साय अपने
गहरे, कहीं गहरे बीच छोड़ जाए
कुछ ऐसे घबराय बोझिल…
ContinueAdded by vijay nikore on January 30, 2020 at 2:30pm — 4 Comments
२२१/२१२२/२२१/ २१२२
किस काम के हैं नेता किस काम का ये शासन
इनके रहे वतन में जब नित्य होनी अनबन।१।
**
किस बात से हैं सेवक कहते पहन के खादी
निर्धन के घर अगर ये डलवा न पाये राशन।२।
**
अंग्रेज थे बुरे या चम्बल के चोर डाकू
गर जो हो लूट खाना भर देश का ही जनधन।३।
**
किस बात की हो चिन्ता किस बात से परेशाँ
मथकर के दे रही है जनता इन्हें तो…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 30, 2020 at 4:38am — 2 Comments
2122 2122 2122 212
महकते अल्फाज़ जैसे अब शरारे हो गए
वक़्त की गर्दिश में शामिल ख़त तुम्हारे हो गए
जिंदगी की उलझनों ने जेहन को घेरा है यूं
तेरी यादों के मरासिम खुद किनारे हो गए
शायरी, सिगरेट, तंबाकू ज़िन्दगी भर की तड़प
एक सहारा क्या गया कितने सारे हो गए
पहले एहसास ओ सुखन में इश्क थे कायम सभी
ओढ़कर जिस्मों को ही अब इश्क़ सारे हो गए
बागवां से जिंदगी का ये सबक सीखा हूं मैं
फूल खिल जाने पर…
Added by मनोज अहसास on January 29, 2020 at 9:00am — 1 Comment
Added by amita tiwari on January 29, 2020 at 1:30am — 1 Comment
शब्दों का है खेल निराला
आओ हम खिलवाड़ करें
गढ़ आदर्श वाक्य रचनाएँ
क्यों उन पर हम अमल करें ?
दूजों को सीखें देकर, है
उन्हे मार्ग दिखलाएँ हम
निज कर्मों पर ध्यान कौन दे ?
अपना मान बढ़ाएँ हम
अपने घर का कूड़ा करकट
अन्यों के घर में डालें
बन नायक अभियान स्वच्छता
अपना अभिमत ही पालें
सरिया ,गारा , मिट्टी , गिट्टी
ढेर लगाएँ राहों पर
चलें फावड़े , टूट-फूट का दोष
धर रहे निगमों…
ContinueAdded by Usha Awasthi on January 28, 2020 at 6:14pm — 2 Comments
तेरे बिन है घर ये सूना
मेरे मन का कोना सूना
समझो ना ये चार दिनो का
प्यार हमारा काफ़ी जूना*!
घर क़ी देहरी कैसे ये लांघूँ
मैं छलना ना ख़ुद को जानूं
लोगों का तो काम है कहना
मैं तुमको बस अपना मानूं! !
मुझे आस तुम्हारे मिलने क़ी है
और साथ में चलने क़ी है
तब ये सूनापन ना अखरे
बात नज़रिया बदलने क़ी है! !
* पुराना (मराठी शब्द)
- प्रदीप देवीशरण भट्ट - 28:01:2020
मौलिक व अप्रकाशित
Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 28, 2020 at 3:30pm — 1 Comment
जब तक भरे थे जाम तो महफ़िल सजी रही
फूलों में रस था भँवरों की चाहत बनी रही
वो सूखा फूल फेंकते तो कैसे फेंकते
उसमे किसी की याद की खुशबू बसी रही
उस कोयले की खान में कपड़ें न बच सके
बस था सुकून इतना ही इज्जत बची रही
कुर्सी पे बैठ अम्न की करता था बात जो
उसकी हथेली खून से यारों सनी रही
दौलत बटोर जितनी भी लेकिन ये याद रख
ये बेबफा न साथ किसी के कभी रही
'आशू' फ़कीर बन तू फकीरीं में है मजा
सब छूटा कुछ बचा…
Added by Dr Ashutosh Mishra on January 28, 2020 at 12:00pm — 7 Comments
इक तेरी है इक मेरी है
ढल के आग में ये बनी हैं
जैसे तुम से तुम बने हो
वैसे मैं से मैं भी बनीं हूँ
आ चल बैठ यहीं हम देखें
एक दूजे से कुछ हम सीखें
अलग है माना फिर भी संग संग
मिलजुल कर के रहना सीखें
शहरों क़ी फिर चकाचौंध हो
जंगल में या कहीं ठौर हो
साथ ना छोडे एक दूजे का
ताप हो कितना या के शीत हो
कहीं हैं सीधी कहीं ये टेढी
दिन हो या हो रात अंधेरी
कर्म पथ से कभी ना डिगती
ना…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 27, 2020 at 1:00pm — 1 Comment
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