तो मालूम हुआ..
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मैं चलते चलते गिर गया था, तुमने खुद झुक के उठाया तो मालूम हुआ, मैं ख़्वाब देखते देखते सो गया था, तुमने चुपचाप जगाया तो मालूम हुआ. मैं तुझे पुकारते कहीं खो गया था, पास आया तेरा साया तो मालूम हुआ, बहुत पहले ही दिल की मिट्टी में कोई प्यार के बीज बो गया था, आँधियों में पेड़ जो लहराया तो मालूम हुआ. अभी अभी कोई मेरी वीरानियों में आके रो गया था, आईने ने जो मुझे चेह्रा दिखाया तो मालूम हुआ.मैं राहरौ होके भी खुश था, क्या होती हैं घरबार…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 11:06pm — No Comments
प्रेम की यह यात्रा...
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तुम्हारी बरौनियों के झालर से टिमटिमाती आँखें हरिद्वार की गंगा की शाम की आरती के तैरते दिए सी झिलमिलाती हैं, तुम्हारी ललाट पे सजी लाल बिंदिया देवी के भाल पे लगे श्रद्धा के टीके की तरह पवित्रता के सनातन प्रतीक सी प्रतीत होती है, तुम्हारे मुखमंडल ने जैसे हिमशिखरों का शुभ्र ओज ओढ़ रखा है, तुम्हारे होठों तक खेलती लटों की उर्मियाँ जैसे शंकर के कांधों पे सर्पों के गुच्छे हों, तुम्हारे आपादमस्तक स्त्रीसुलभ लावण्य का आमंत्रण तटों पे…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 11:04pm — No Comments
आखिर तुम हो कौन....
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हर प्यार में तेरे प्यार की सौंध है. हर कशिश में तेरी तस्वीर है. हर आकर्षण में तेरा रूप है. कोई गाना सुनते, किसी फिल्म में प्रेम का दृश्य देखते, सच में करुणा को बहते देखते, पशुओं का ममत्व देखते, मेरे अन्दर तेरे ही अति प्राचीन प्रेम की तरंगे उठने लगती हैं और यद्यपि मैं कुर्सी में बैठा बाहर से पाषाण की तरह स्थिर अवस्था में दीखता हूँ, जैसे कि ध्यान में डूबा, मेरी आंतरिक्ताओं में तू ही तू दोलायमान हो जाता है, मेरी आँखों…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 11:03pm — No Comments
दिल किसी फूल सा कुम्हला गया हो जैसे. वो खुद तो दिखता नहीं मगर हर शै म्लान और बेरौनक नज़र आती है ऐसे में. आइना भी कह रह था, चेह्रा कितना उतर गया है आज. बेचैनियाँ कहाँ से आईं, ये मालूम नहीं, पर इन्हें दिल ही क्यूँ पसंद है? दिल न होता तो बेचैनियों का क्या होता, क्या बेचैनियों का चैन भी खोता है? रब जाने क्या होता है!
© राज़ नवादवी
पुणे, १२/०४/२०१२
Added by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 11:01pm — No Comments
मेरी प्यारी,
प्यार का रूप चाहे जो भी हो उसकी धुरी आत्मिक और परिधि सार्वभौमिक होती है. और जब धुरी और परिधि आपस में मिल जातीं हैं तो प्रेम परिपूर्ण हो जाता है, एक अपरिभाष्य अस्तित्व जिसमें स्वं के भी होने का ज्ञान नहीं होता, एक गहरी निद्रा सी अवस्था जिसमें हम खो जाते हैं- कहाँ, किधर, क्यूँ, कैसे, किसमें, कुछ भी ज्ञात नहीं होता. सूफियों में इसे ‘हाल’ की कैफियत भी कहतें हैं. लैला-मजनूँ, रोमियो-जुलियट, हीर-रांझा, न जाने कितने ऐसे युगल हैं जिनके इश्क का मेयार कुछ ऐसा ही था. सच्चे…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 11:00pm — No Comments
सीमा इक प्यारा शब्द है ...
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सीमा इक प्यारा शब्द है और उतना ही प्यारा नाम. आदमी का अपने जीवन के हर पहलू में किसी न किसी सीमा से किसी न किसी रूप में साबिका पड़ता है. उसकी इन्तेहाई फितरत जो उसके बनाने वाले से पैदा हुई है उसे हर सीमा के पार जाने को प्रेरित करती है जबकि समाजी ज़िंदगी का तकाज़ा उसे इक सीमा के अंदर रहने की सलाह देता है. और इस तज़ब्जुब और कशमकश से ज़िंदगी अलग अलग ज़ायके में दरपेश होती है.
आदम और हव्वा ने भी खुदा की…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 11:00pm — No Comments
आज की सुबह भी आई और आ ही गई. नींद भी रुखसत हुई और रात भी. और ख़्वाबों का रेला भी कुछ याद और कुछ मुबहम नींद के साथ गुज़र गया. हकीकत रूबरू थी- रोजाना के गुस्लोफरागेहाज़त और फिर दफ्तर जाने की तैयारी. कितना मशीनी है सब कुछ. ज़िंदगी के इस पहलू की आइंदागोई कितना आसान है- शायद दौर के दौर का एक बुनियादी खाका खींचना किसी एक अदद दिन के फोटोकॉपी करना जैसा हो.
अगर ज़िंदगी में दिल और दिल की तमाम उलझनें न हों तो सब कुछ कितना बेरंग, यकसां, और उबाऊ हो जाएगा. तआज्जुब तो ये है कि दिल चाहे सीने…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 11:00pm — No Comments
अपनी सम्पूर्ण असम्पूर्णता में भी कितना पूर्ण हूँ...
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प्रातःकाल की पवित्रता छा जाती है मुझपे और मैं भाव-विभोर होके ध्यानस्थ हो जाता हूँ. दिन भर के काम-काज की भाग-दौड़ और जीवन का दैनिक उतार-चढ़ाव, मैं पक्का गृहस्थ हो जाता हूँ. गोधूलि की परिशांति, दिन और रात का समागम, मैं किसी दार्शनिक सा तटस्थ हो जाता हूँ. संध्याकाल का मनोहारी परिदृश्य और मेरी आतंरिक भोगपरकता का उद्रेक, मैं इन्द्रप्रस्थ हो जाता हूँ. रात्रिकाल…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 10:59pm — No Comments
पुरानी इमारतों, कदीम घरों, और बोसीदा मकानों में.....
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पुरानी इमारतों, कदीम घरों, और बोसीदा मकानों में एक अलग सी जाज्बियत (आकर्षण) महसूस होती है! ऐसा लगता है जैसे ये बीते ज़मानों का लिबास पहने हैं और इनके सीने में न जाने कितने किरदारों (चरित्रों) की कहानियां दफ्न है, न जाने कितनी मुहब्बतों और नफरतों के ये बेज़ुबान गवाह हैं.
पुणे शह्र में अंग्रेजों के ज़माने के कई मकान हैं जो आज भी सदियों…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 10:56pm — No Comments
सोचता हूँ.....
सोचता हूँ अगर जंगल बात करते तो क्या करते, अगर नदियाँ गातीं तो क्या गातीं, पहाड़ मुस्कराते तो किस तरह, और रास्ते अपनी राह भूल जाते तो किधर जाते.
सोचता हूँ अगर जानवर भी बोल पाते तो हमसे क्या शिकायतें करते, दीवारें हमें समझ पातीं तो क्या आसूं न बहातीं? घर की खामोश पड़ी चीज़ों को हमारे आने जाने की खबर होती तो हमें कितना टोकतीं- इनती देर क्यूँ लगाई, कहाँ जा रहे हो, कब आओगे, वगैरह वगैरह....शायद तब पत्नी के दूर होने का एहसास न…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 10:53pm — No Comments
मैं चिरकाल से अपनी आत्मा में समाधिस्थ हूँ...
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मैं चिरकाल से अपनी आत्मा में समाधिस्थ हूँ, मुझे सिर्फ इस बात में अटूट विश्वास की आवश्यकता है. शनैः शनैः यह ज्ञान मेरे बाह्य भौतिक जीवन को भी अपने दिव्य आनंद की रसभरी हिलोरों में समा लेगा और मैं सांसारिकता की लहरों पे चढ़ता उतरता भी अपने आदि देव परम पूज्य परमात्मा के अनंत साम्राज्य में ही स्थापित रहूँगा, उसके चिर पुरातन मंदिर के सिंहद्वार की तरह!
हे प्रभु! मैं…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 10:50pm — No Comments
नमस्कार अहबाब, तरही मुशायरा २३ में वक़्त पर मैं कोई ग़ज़ल नहीं कह पाया, क्योंकि तब तक मैं इस परिवार का हिस्सा ही नहीं था. अब उस मिसरे पर ख़ामा घिसाई का मन हुआ तो कुछ अश'आर कह दिए. आपकी नज़्र हैं, कोई ग़लती या ऐब दिखाई दे तो बेशक़ इत्तेला करें
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गरचे तेरे ख़याल का मेयार हम नहीं
तो क्या तेरी तलब से भी दो-चार हम नहीं
वो चारागर है, सोचके मरता है दिल का हाल
आज़ार तो यही है कि बीमार हम नहीं
ऐ जान-ए-जान ग़ौर से देख इन्तहा-ए-शौक़
ख़ून-ए-जिगर है हम पे,…
Added by Vipul Kumar on June 29, 2012 at 7:00pm — 14 Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
वो रिश्ता भूल आया हूँ............
जिस पुरानी कदीम सी जगह से
जन्मों का रिश्ता महसूस करता आया हूँ
उसी, हरे पानी की झील से लगी सीढ़ियों पे
एक रिश्ता भूल आया हूँ अपना.........
एक नामालूम अन्जान सा
बारिश की रात में
बादलों के पीछे छिपे चाँद सा रिश्ता
जिसे आँखों में भरकर अब तक ढोता रहा था
जागते सोते, हर मोड़ पे जिसे
साथ रखता था उम्मीद की तहों…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 6:39pm — 6 Comments
(आज से बारह वर्ष पूर्व लिखी रचना)
दिल में बसे अंजान रास्ते..
दिल में भी हैं बसे
कई अंजान रास्ते
जिनकी वाक़िफ़त शायद
इक उम्र ले लेगी मेरी हैरान आँखों से चुराकर।
अच्छे, बुरे-जैसे भी हैं लोग गिर्दोपेश में
जो हमसाये हैं या हमसफ़र
या जो गुज़र गये बहुत पास आकर
सब, कहीं न कहीं बसे होतें हैं
इन्हीं अन्जान रास्तों पर
जो दिल में बसे तो होते हैं मगर
जिनके…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 6:27pm — 2 Comments
(आज से सोलह वर्ष पूर्व लिखी रचना)
फकत मैं और ये आलम.....
ये कैसी ख़ामोशी है मेरे बिस्तर पे
मेरे पास बैठी दम-ब-दम
ये कैसे हैं अजनबी साये
मेरी हर सम्त मेरे बाहम
ये कौन है जो रुक गया
मेरे नज़दीक आके दफ्अतन
ये क्या शय है जो बिखर गई सरेदामन
ये कैसी तनहाई है जो
दुखा गई जीवन
ये कैसे हैं वीरानों के नशेमन
रात अफ्सुर्दा,
सियाह, मुस्तहकम
कितना अजीब है ये…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 6:12pm — 3 Comments
(आज से सोलह वर्ष पूर्व लिखी रचना)
किधर हैं वो ज़ंदगी के मोड़.....
कहाँ है मेरी आँखों का
वो नीला समंदर
जिसमें तुम डूब जाना चाहते थे
कहाँ हैं मेरी कुर्बत के वो खुनक साये
जिसके तुम शैदाई थे
कहाँ है मेरे सीने में धड़कता
वो उदास दिल
जिसके हासिल का तुम्हें नाज़ था
कहाँ है वो मेरी तक़रीर-ए-बिस्मिल
जिसके तुम कायल थे
कहाँ है वो कूचा-ए-लड़कपन
जहाँ हम मिले थे पहली बार
कहाँ है वो…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 6:10pm — 4 Comments
(आज से दस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
जी चाहता है...
आज गमों में डूबा-डूबा है
मेरे एहसास का हर गोशा
भीगी-भीगी हैं पलकों पे
थके -थके तसव्वुर की बूँदें
रुका-रुका सा है जाता हुआ
इमरोज़ का साया
बुझे-बुझे से हैं बर्ग दरख्तों पे
और धूप के साये दीवारों पे
हर तरफ गुमशुदगी है नुमायाँ
और उदासी है निगाहों में
जी चाहता है आज कहीं न जाऊँ
कुछ न करूँ,
देर तलक बैठा…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 6:06pm — 2 Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
तेरे शहर की सब अलामतें......
ये तेरे शहर की तमाम अलामतें
अजनबी हैं मेरे लिये
ये तेरे शहर की दूर तक फैली
अहलेज़र की पुरनूर बस्ती
ये आलीशान मकानों का हुस्नख़ेज़ तसल्सुल
ये ज़ुल्फेसियह सी बेनियाज़
आवारामनिश राहगुज़र
ये रौशनियों की दिलावेज़ जल्वागाह
ये ख़ला-ए-फैज़बख्श
ये फज़ा-ए-तमकनत
ये कारों की होशकुन तग़ोदौ
ये होटलों की रौनक़ोरौ
ये…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 6:00pm — 4 Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
हम तो गिर्दाबेतमन्ना हैं.......
ख़ाम रहने दो मेरी रग़बते उलफ़त को अभी
टूट जाने दो मेरे ख़्वाब के शीराज़े को
जाँबहक हो भी गये इश्क़ में
तो कुछ भी नहीं
मिट गये काविशे बेसूद में
तो ये भी सही
जो भी अंजामेवफ़ा होगा देखा जायेगा
हश्र बर्बादी-ए-हस्ती का सोचा जाएगा
हम तो यूँ भी
बेदस्तो पा-ए-ज़िन्दगी थे बहुत
रंज में डूबे थे, अस्ना-ए-बेबसी थे बहुत
जी…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 5:58pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
यूँ ही, फकत यूँही......
यूँ ही
किसी राहगुज़र सा मुड़ गया है वक्त
एक लकीर पे चलते चलते.....
मैंने सोचा है इस मोड़ से आगे
वो जगह होगी शायद
जहाँ अपने माज़ी के हर एहसास को
गहरे दफ्न कर दूँ
और उसपे नामालूम सी तारीख का हवाला लिख दूँ
ताकि मैं खुद भी चाहकर कभी
अपनी माज़ूरियों की इबारत पढ़ न सकूँ
और सोच लूँ
मैंने जो ख्वाब कभी देखे थे नीम आँखों…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 5:54pm — No Comments
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