(आज से सोलह वर्ष पूर्व लिखी रचना)
फकत मैं और ये आलम.....
ये कैसी ख़ामोशी है मेरे बिस्तर पे
मेरे पास बैठी दम-ब-दम
ये कैसे हैं अजनबी साये
मेरी हर सम्त मेरे बाहम
ये कौन है जो रुक गया
मेरे नज़दीक आके दफ्अतन
ये क्या शय है जो बिखर गई सरेदामन
ये कैसी तनहाई है जो
दुखा गई जीवन
ये कैसे हैं वीरानों के नशेमन
रात अफ्सुर्दा,
सियाह, मुस्तहकम
कितना अजीब है ये एहसास
फकत मैं और ये आलम!
© राज़ नवादवी
खगौल, दानापुर
(२३/०८/१९९६)
Comment
भाई सौरभ जी एवं अरुणजी, आप दोनों का दिल से शुक्रिया अता करता हूँ. जनाब सौरभ साहेब का तबसरा भी अपने आप में एक अदबी उड़ान है जो दिल को इक रूमानी एहसास के दामन में छुपा कर ख्यालों की अथाह ऊँचाइयों पे ले जाती है! आह- सब कुछ कितना तरब्खेज़ है.
क्या कहने श्री राज़ जी मधुर भाव प्रवाह मुग्ध करता है | बधाई आपको !!
ग़ज़ब ग़ज़ब ग़ज़ब ..
बिसुरती हुई एकाकी रातों के बेपरवाह विस्तार से एक टुकड़ा यों ले कर आपने दिल की बेख़याली को बखूबी आम किया है. मुग्ध कर दिया आपने साहब. दिल से शुक्रिया कह रहा हूँ.
सधन्यवाद
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