(आज से सोलह वर्ष पूर्व लिखी रचना)
किधर हैं वो ज़ंदगी के मोड़.....
कहाँ है मेरी आँखों का
वो नीला समंदर
जिसमें तुम डूब जाना चाहते थे
कहाँ हैं मेरी कुर्बत के वो खुनक साये
जिसके तुम शैदाई थे
कहाँ है मेरे सीने में धड़कता
वो उदास दिल
जिसके हासिल का तुम्हें नाज़ था
कहाँ है वो मेरी तक़रीर-ए-बिस्मिल
जिसके तुम कायल थे
कहाँ है वो कूचा-ए-लड़कपन
जहाँ हम मिले थे पहली बार
कहाँ है वो ख़लिहान
जो हमारी सरगोश मुहब्बत का सनमखा़ना था
कहाँ है वो राह
जिसपे चले थे साथ-साथ
उफ़़क़ की दहलीज़ तक
कहाँ है वो घर की दीवार
जिसके इस पार मैं था
और उस पार तुम
किधर हैं वो ज़िंदगी के मोड़
जहाँ से तुम
उधर मुड़ गये और
मैं इधर?
© राज़ नवादवी
खगौल, दानापुर
(२३/०८/१९९६)
Comment
प्रिय अरुण जी, आपने जिस करीबी से पढ़ा उस करीबी से ही अपने दिल के उद्गारों के फूल हमपे बरसाए. उनके छुअन के भीने भीने एहसास का लम्स अब भी मेरे कालिब पे जगह जगह मंकूश है. मैं आपका शुक्रगुज़ार हूँ.
सौरभ भाई, आपका अंदाज़ेतहसीन भी अपने आप में इक शायरी है. बेहद तसव्वुफाना, मुलायमियत की रगों में दौड़ता एहसासों का रंगीन लहू. आपका सादर धन्यवाद!
कुछ रहा है कहाँ जो रहेगा. कुछ रुका है कहाँ जो रुकेगा. जो रहता है और रुकता है वो बस यादों की कड़ियाँ भर होती हैं. जिन्हें छुआ नहीं जीया जाता है. इस तिल-तिल जीने को कविता कहते हैं.
राज़ साहब, आप कविता जीते जाइये. सादर
किधर हैं वो ज़िंदगी के मोड़
जहाँ से तुम
उधर मुड़ गये और
मैं इधर?
लूट लिया जी !! इस निर्बोध प्रश्न ने | कौन आपके अंदाज़े बयाँ पर फ़िदा नहीं होगा ... हाँ अब तो आप अपरिचित नहीं रहे बहुत शानदार जज़्बात और उतनी ही जानदार उनकी बयानी !!
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