पुरानी इमारतों, कदीम घरों, और बोसीदा मकानों में.....
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पुरानी इमारतों, कदीम घरों, और बोसीदा मकानों में एक अलग सी जाज्बियत (आकर्षण) महसूस होती है! ऐसा लगता है जैसे ये बीते ज़मानों का लिबास पहने हैं और इनके सीने में न जाने कितने किरदारों (चरित्रों) की कहानियां दफ्न है, न जाने कितनी मुहब्बतों और नफरतों के ये बेज़ुबान गवाह हैं.
पुणे शह्र में अंग्रेजों के ज़माने के कई मकान हैं जो आज भी सदियों की खामोशियाँ ओढ़े न जाने कौन से वक्त के इन्तेज़ार में खड़े हैं. कौन रहता है इन घरों में- मैं अक्सरहा सोचता हूँ. कदम जैसे उनके पास आके रुक से जाते हैं, नज़रें न जाने क्या ढूंढती हैं लोहे की लहरदार सीढ़ियों से ख्यालों में चढ़ते उतरते! पेड़ों, झाड़ियों और झुरमुटों का गुंजान (घना) गिर्दोपेश और इनका गहरा हरा रंग इन्हें किसी तस्वीर की नौइयत दे देता है और दिल तस्वीरों के खवाबबीदा (स्वप्निल) ख्यालों में खो जाता है.
पुरानी खिड़कियाँ शायद अभी खुल जाएँगी और कोई झांकने लगेगा बाहर गली में किसी फेरीवाले की गुहार सुनके,छत की चिमनी से धुआं उठने लगेगा, कोई माँ अपने बच्चों को आवाज़ लगाएगी और कहेगी कि खेलने का वक्त खत्म हुआ और आ जाओ खाने की मेज पे, या कोई पत्नी अपने शौहर को बगीचे के झूले में थोड़ी देर साथ वक्त गुजारने की गुज़ारिश करेगी. मानो सब कुछ इक विडियो फिल्म की तरह रीवाइंड होकर फास्ट फॉरवर्ड होने लगेगा.
तसव्वुर के रेले में जैसे मैं भी गुज़री तारीख का इन बेनाम किरदार बन जाता हूँ और न जाने किन जन्मों के और न जाने कौन से भूले बिसरे साथियों की बेशक्ल सी यादें दिल को कचोटने लगती हैं और उदासी इक नशा बनके मुझपे हावी हो जाती है.
मैं सोचने लगता हूँ कि मेरे पिछले जन्मों के साथी और घरवाले कहाँ गए, कहाँ होंगे वो इस वक्त, क्या सोचते होंगे या क्या कर रहे होंगे और कायनात के किस कोने में. और फिर ये भी कि इस ज़िंदगी का सफा भी एक दिन पूरा लिख दिया जाएगा और कहानी अगले पन्ने पे आ पहुंचेगी. फिर क्या होगा मेरे इस जन्म के अहबाबों का- मेरी बच्चियाँ, मेरी पत्नी, मेरे कुत्ते, मेरे साथी...... फेहरिस्त लंबी है.
आसमान में खोने से पहले धुआं का रेला लंबा होता जाता था और मेरी बसारत (दृष्टि) भी!
©राज़ नवादवी
पुणे, ०२/०४/२०१२
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