मेरी प्यारी,
प्यार का रूप चाहे जो भी हो उसकी धुरी आत्मिक और परिधि सार्वभौमिक होती है. और जब धुरी और परिधि आपस में मिल जातीं हैं तो प्रेम परिपूर्ण हो जाता है, एक अपरिभाष्य अस्तित्व जिसमें स्वं के भी होने का ज्ञान नहीं होता, एक गहरी निद्रा सी अवस्था जिसमें हम खो जाते हैं- कहाँ, किधर, क्यूँ, कैसे, किसमें, कुछ भी ज्ञात नहीं होता. सूफियों में इसे ‘हाल’ की कैफियत भी कहतें हैं. लैला-मजनूँ, रोमियो-जुलियट, हीर-रांझा, न जाने कितने ऐसे युगल हैं जिनके इश्क का मेयार कुछ ऐसा ही था. सच्चे संतों-फकीरों और उनका ईश्वरीय प्रेम भी इसी श्रेणी का है. यह प्रेम जिसे दस्तयाब होता है, चाहे जिस भी रूप में, उसके जीवन की गुत्थी तो बस सुलझ जाती है.
सृष्टि में हर कोई- यहाँ तक कि जिनका अस्तिव्य कंपन मात्र के स्तर तक का है- इसी प्रेम को पाने के लिए ही तो जी रहा है, चाहे यह बात उसे ज्ञात हो या न हो- इसकी प्राप्ति का पल किसे, किस जन्म में मिलता है ये तो ऊपर वाला ही जानता है. मगर वो इक पल अनंतता की यात्रा के द्वार खोल देता है!
तुम्हारा और मेरा प्रेम भले ही बाह्य या भौतिक रूप से किसी निष्कर्ष तक ना आ सका, इसकी इसी अनिष्कर्षता ने मेरे अन्दर असीम के चाह की इक अबूझ ललक पैदा कर दी है जिसकी पृष्ठभूमि में तुम्हारे प्रेम का लहराता आँचल और तुम्हारे सौम्य रूप का प्रसाद मेरी इस उड़ान को और भी उंचाइयां देता रहेगा.
तुम्हारा...
© राज़ नवादवी
पुणे, ०९/०५/२०१२
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