(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
हम तो गिर्दाबेतमन्ना हैं.......
ख़ाम रहने दो मेरी रग़बते उलफ़त को अभी
टूट जाने दो मेरे ख़्वाब के शीराज़े को
जाँबहक हो भी गये इश्क़ में
तो कुछ भी नहीं
मिट गये काविशे बेसूद में
तो ये भी सही
जो भी अंजामेवफ़ा होगा देखा जायेगा
हश्र बर्बादी-ए-हस्ती का सोचा जाएगा
हम तो यूँ भी
बेदस्तो पा-ए-ज़िन्दगी थे बहुत
रंज में डूबे थे, अस्ना-ए-बेबसी थे बहुत
जी ही लेंगे हम अपनी दौलते नादारी को
जज़्ब कर लेंगे हर इक मौक़ा-ए-दुशवारी को
तुम तो ख़ुश हो लो
करो जश्न अपनी इशरत का
अपनी नौख़ेज़ जवानी का, अपनी उलफ़त का
तुमको क्यों कर हो नदामत हमारी ग़ारत का
हम तो गिर्दाबेतमन्ना हैं
यूँ मिट जाएँगे
जैसे साये ये रौशनी के सिमट जाएँगे..
ख़ाम रहने दो मेरी रग़बते उलफ़त को अभी
टूट जाने दो मेरे ख़्वाब के शीराज़े को
© राज़ नवादवी
सोशल वर्क हॉस्टल, नई दिल्ली
(०१.३० रात्रि, ०२/०३/१९९३)
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