आभार आदरणीय सौरभ जी -
2 2 2 2 2
हारे हो बाजी ।
छोड़ो लफ्फाजी ।|
होती है गायब -
वो कविताबाजी ।।
पल में मर जाती
रचनाएं ताज़ी ।।
दिल्ली से लौटे -
होते हैं हाजी ।।
पाजी शहजादा
मुश्किल में काजी ।।
रिश्वत पर आधी ।
रविकर भी राजी ।।
सात साल का मेरा पोता-
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 6, 2012 at 6:24pm — 10 Comments
जिंदगी इतनी खूबसूरत होगी,
जिंदगी में इतने रंग होंगे,
जिंदगी इतनी खुशहाल होगी,
जिंदगी में इतना प्यार होगा,
ऐसा कभी सोचा न था ।
जिंदगी निस्ठुर भी होगी,
जिंदगी थपेड़े भी मारेगी,
जिंदगी हम पर हँसेगी,
जिंदगी भँवर में फँसायेगी,
ऐसा कभी सोचा न था ।
जिंदगी कर्म का पाठ पढ़ाएगी,
जिंदगी कटु सत्य बताएगी,
जिंदगी सही रास्ता दिखायेगी,
जिंदगी विजय पथ भी बताएगी,
ऐसा कभी सोचा न था ।
जिंदगी में कोमलता होगी,
जिंदगी इतनी नाजुक…
Added by akhilesh mishra on November 6, 2012 at 4:30pm — 3 Comments
गैस होगी न कोयला होगा
चूल्हा ग़मजदा मिला होगा
पेट रोटी टटोलता हो जब
थाल में अश्रु झिलमिला होगा
भूख की कैंचियों से कटने पर
सिसकियों से उदर सिला होगा
चाँद होगा न चांदनी होगी
ख़्वाब में भी तिमिर मिला होगा
भोर होगी न रौशनी होगी
जिंदगी से बड़ा गिला होगा
लग रहा क्यूँ हुजूम अब सोचूँ
मौत का कोई काफिला होगा
बेबसी की बनी किसी कब्र पर
नफरतों का पुहुप खिला होगा
अब बता "राज"दोष है किस…
Added by rajesh kumari on November 6, 2012 at 2:00pm — 20 Comments
शिथिल मनस पे वार कर, जो कर सके तो कर अभी..
प्रहार बार-बार कर, जो कर सके तो कर अभी.. !
अजस्र श्रोत-विन्दु था मनस कभी बहार का
यही हृदय उदाहरण व पुंज था दुलार का
प्रवाह किंतु रुद्ध अब, विदीर्ण-त्रस्त स्वर…
Added by Saurabh Pandey on November 6, 2012 at 1:24pm — 25 Comments
अजब सा शोर है…
मंदिर की घंटियों में भी
मस्ज़िद की अजानों में
मुझको रब नहीं दीखता
धर्म के इन दुकानों में
दिल में बचैनीं हैं...
क्या ख़ाक मिले सुकूं
गीता में कुरानों में
आब हूँ हवा में मिल जाऊँगा
मुझे ना दफनाना तुम
ना जलाना शमशानों में
नहीं जाता किसी दर पर...
खुदा जो है तो मुझसे मिले
कभी मेरे मकानों में
मैं मंदिर में बैठ के पियूँगा
वो तो हर जगह है
पैमानों में मयखानों में
उसे क्या ढूंढते हो तुम…
ज़िन्दगी…
Added by Ranveer Pratap Singh on November 5, 2012 at 11:30pm — 8 Comments
मेरा बेटा
छोटा है
महज़ छ: साल का
मगर
खिलौने इकट्ठे करने में
माहिर है
और खिलौने भी क्या ?
दिवाली के बुझे हुये दिये
अलग-अलग किस्म की
पिचकारियाँ
हाँ कई रंग भी है
उसके मैंजिक बॉक्स में
लाल, हरे, पीले
मगर रंगों मे फर्क
नहीं जानता
बच्चा है न
नासमझ है
होली में
पूछेगा नहीं
आपको कौन सा रंग पसंद है
बस लगा देगा
बच्चा है न
नासमझ है
हरे और पीले का फर्क
अभी नहीं जानता
उसे तो ये भी नहीं पता
होली का…
Added by नादिर ख़ान on November 5, 2012 at 3:30pm — 7 Comments
विरह की बेला चुप सी आती
कर्मभूमि और गृहस्ती में
होले होले कदम बढाती
सुख समृधि को, मिटा
अंतर्मन में भेद करा
मन की शांति, भंग कर जाती
काल चक्र सा एक रचा
रह रह कर
भ्रम जाल में हमें फंसाती
ढंग बेढंग के करतब करा
इन्सान से हमको,
पशु बनाती
वक़्त की नजाकत को समझ
नट बना, इंसान नचाती
ऐसा अपना रंग दिखाती
जब तक समझ में
आता कुछ भी
तब तक सब कुछ
धुल में सब कुछ ये मिलाती
पल भर में ये नेत्र भिगो
हमारे अस्तिव का बोध कराती
लहर…
Added by PHOOL SINGH on November 5, 2012 at 2:30pm — 1 Comment
छम छम करे हरी पाँव पैजनि ,, करधनी कटि साजती
चलते ठुमुक नन्द लाल निरखति,, काम कोटिन लाजती
यों लाग माखन देखि मुख हरि ,, काग मन लालच भयो
जूठन मिले जो आज हरि मुख ,, सोच आँगन वह गयो
Added by Chidanand Shukla on November 5, 2012 at 1:42pm — 2 Comments
विरहन का क्या गीत अरे मन |
प्रियतम प्रियतम, साजन साजन ||
जब से हुए पी आँख से ओझल,
प्राण है व्याकुल साँस है बोझल,
किस विध हो अब पी के दर्शन || विरहन का...
प्रीत है झूटी सम्बन्ध झूटा,
सौगंध झूटी अनुबन्ध झूटा,
मिथ्या मन का हर गठबन्धन || विरहन का...
जब दर्पण में रूप सँवारूँ,
अपनी छवि में पी को निहारूँ,
मेरी व्यथा से अनभिज्ञ दर्पण || विरहन का...
दुख विरहन का किस ने जाना,
अपने भी अब मारें…
Added by लतीफ़ ख़ान on November 5, 2012 at 1:30pm — 5 Comments
कितना कुछ सुलगा बुझा, तेरे-मेरे बीच
ख्वाबों में भी हम मिले, अपने जबड़े भींच
कैसे फूलों में लगी, ऐसी भीषण आग
कोयल तो जलकर मरी, शेष बचे बस नाग
जबसे तुम प्रियतम गए, गूंगा है आकाश
तृन-टुनगों पर हैं पड़े, अरमानों की लाश
बिखरा-बिखरा दिन ढला, सूनी-सूनी शाम
तारों पर लिखता रहा, चंदा तेरा नाम
तुम बिन कविता क्या लिखूं, दोहा, रोला, छंद
भाव चुराते शब्द हैं, लय भी कुंठित, मंद
Added by राजेश 'मृदु' on November 5, 2012 at 12:46pm — 7 Comments
मुक्तछंद कविता सम जीवन,
तुकबंदी की बात कहाँ है ||
लय, रस, भाव, शिल्प संग प्रीति |
वैचारिक सुप्रवाह की रीति ||
अलंकार से कथ्य चमकता |
उपमानों से शब्द दमकता ||
यगण-तगण जैसे पाशों से,
होता कोई साथ कहाँ है |
मुक्तछंद कविता सम जीवन,
तुकबंदी की बात कहाँ है ||
अनियमित औ स्वच्छंद गति है |
भावानुसार प्रयुक्त यति है ||
अभिव्यक्ति ही प्रधान विषय है |
तनिक नहीं इसमें संशय है ||
ह्रदयचेतना से सिंचित ये,
ऐसा यातायात कहाँ है |
मुक्तछंद…
Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on November 5, 2012 at 8:38am — 12 Comments
रो रोकर हार गया काजल
हार गये बिछुए कंगना
समझा दो तुम ही तुम बिन
अब कैसे जिएगा ये अंगना
कैसे आयें प्राण कहो अब नथ,बिंदियाँ और लाली में
कैसे धर लूं धीर पिया मैं इन आँखों की प्याली में
सब देखें छत चढ़ चढ़ चन्दा,
पर मेरा चन्दा रूठ गया
दिल का बसने वाला था जो
कितना पीछे छूट गया
कैसे रंग रहे होली में कैसी चमक दिवाली में
कैसे धर लूं धीर पिया मैं इन आँखों की प्याली में
जनम जनम की कसमें सारी
इक क्षण में ही तोड़ चले
तुम क्या जानो अंखियों से…
Added by Pushyamitra Upadhyay on November 4, 2012 at 9:44pm — 5 Comments
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 4, 2012 at 5:30pm — 5 Comments
===========ग़ज़ल=============
बह्र मुजारे मुसम्मन अखरब मक्फूफ़ महजूफ
वज्न- २ २ १ - २ १ २ १ - १ २ २ १ - २ १ २
चेह्रा है आपका या हसीं माहताब है
ये नाजुकी बदन की बड़ी लाजबाब है
गोरा बदन है ऐसे के छू लें तो सुर्ख हो…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on November 4, 2012 at 4:50pm — 6 Comments
मजदूर व्यापारी कामगार
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on November 4, 2012 at 2:52pm — 13 Comments
वैदेही सोच रही मन में यदि प्रभु यहाँ मेरे होते
लव-कुश की बाल -लीलाओं का आनंद प्रभु संग में लेते .
जब प्रभु बुलाते लव -कुश को आओ पुत्रों समीप जरा ,
घुटने के बल चलकर जाते हर्षित हो जाता ह्रदय मेरा ,
फैलाकर बांहों का घेरा लव-कुश को गोद उठा लेते !
वैदेही सोच रही मन में यदि प्रभु यहाँ मेरे होते !!
ले पकड़ प्रभु की ऊँगली जब लव-कुश चलते धीरे -धीरे ,
किलकारी दोनों…
Added by shikha kaushik on November 3, 2012 at 11:30pm — 9 Comments
सबसे मिलना तो इक बहाना है
कौन अपना है अजमाना है
मै कोई ख्वाब आँखों में सजाता ही नहीं
इल्म होता जो बिखर जाना है
Added by ajay sharma on November 3, 2012 at 11:00pm — 3 Comments
मोटी-चमड़ी पतला-खून ।
नंगा भी पहने पतलून ।
भेंटे नब्बे खोखे नोट -
भांजे दर्शन अफलातून ।
भुना शहीदी दादी-डैड
*शीर्ष-घुटाले लगता चून ।
*सिर मुड़ाना / चोटी के घुटाले
पंजा बना शिकंजा खूब-
मातु-कलेजी खाए भून ।
मिली भगत सत्ता पुत्रों से
लूटा तेली लकड़ी-नून ।
दस हजार की रविकर थाल
उत फांके हों दोनों जून ।
Added by रविकर on November 3, 2012 at 5:00pm — 10 Comments
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on November 3, 2012 at 2:30pm — 9 Comments
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