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ईश्वरल्लाह...

अजब सा शोर है…
मंदिर की घंटियों में भी
मस्ज़िद की अजानों में
मुझको रब नहीं दीखता
धर्म के इन दुकानों में

दिल में बचैनीं हैं...
क्या ख़ाक मिले सुकूं
गीता में कुरानों में
आब हूँ हवा में मिल जाऊँगा
मुझे ना दफनाना तुम
ना जलाना शमशानों में

नहीं जाता किसी दर पर...
खुदा जो है तो मुझसे मिले
कभी मेरे मकानों में
मैं मंदिर में बैठ के पियूँगा
वो तो हर जगह है
पैमानों में मयखानों में

उसे क्या ढूंढते हो तुम…
ज़िन्दगी में ज़मानों में
खुदा तुममें ही रहता है
तेरी झोपड़ियों में भी
और तेरे आशियानें में



रणवीर प्रताप सिंह

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Comment by Ranveer Pratap Singh on November 6, 2012 at 11:08pm

@Rajesh Kumar Jha मैं आपके विचारों से सहमत हूँ 

Comment by Ranveer Pratap Singh on November 6, 2012 at 11:07pm

@Laxman Prasad Ladiwalaमैं आपके विचारों पे ज़रूर ध्यान दूंगा 

Comment by Ranveer Pratap Singh on November 6, 2012 at 11:05pm

@ PHOOL SINGH बहुत बहुत धन्यवाद

Comment by Ranveer Pratap Singh on November 6, 2012 at 11:04pm

@ Saurabh Pandey बहुत बहुत धन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 6, 2012 at 6:55pm

सनातन तथ्य की पुनर्प्रस्तुति कितना संतुष्टि देती है ! .. बधाई.. .

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 6, 2012 at 5:53pm

वो तो हर जगह है पैमानों में मयखानों में 

खुदा तुममें ही रहता है,तेरी झोपड़ियों में भी,और तेरे आशियानें में-  
सही कहा आपने रंनवीर प्रताप सिंह जी, अच्छी अभिव्यक्ति के लिए बधाई,मगर 
गीता और कुरान में है उसकी आत्म कथा,उसको इनसे जानकार टटोले अपने अंतर्मन में 
रामायण, गीता,मंदिर मस्जिद मात्र प्रतिक  है,जानने और फिर अपने मन मंदिर में खोजने को
जहाँ बैठकर मन को एकाग्रचित्त करने का एक स्थान मात्र है
जहां से प्रेरणा ले,अपने मन मंदिर को आलिशान बना सके । फिर वो मिल जायेंगे कही भी ।

 

Comment by PHOOL SINGH on November 6, 2012 at 3:51pm

रणवीर प्रताप सिंह नमस्कार

वाह कमाल की रचना के लिए बधाई स्वीकारे....

फूल सिंह

Comment by राजेश 'मृदु' on November 6, 2012 at 11:48am

ईश्‍वर सर्वव्‍याप्‍त हैं, उन्‍हें ढूंढना नहीं होता । आपकी रचना के भाव से सहमत हूं । यहां एक विरोधाभास है 'वो तो हर जगह है' और उससे पहले 'खुदा जो है तो मुझसे मिले' , अर्थ यह कि बेचैनी जब बढ़ती है ईश्‍वर तिरोहित हो जाते हैं लेकिन संयत होते ही मन मान लेता है कि वो तो हर जगह है । ठीक यही तो हमारे साथ भी होता है, उद्विग्‍न होने पर हर विश्‍वास टूटने लगते हैं

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