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कैसे धर लूं धीर पिया मैं इन आँखों की प्याली में

रो रोकर हार गया काजल
हार गये बिछुए कंगना
समझा दो तुम ही तुम बिन
अब कैसे जिएगा ये अंगना
कैसे आयें प्राण कहो अब नथ,बिंदियाँ और लाली में
कैसे धर लूं धीर पिया मैं इन आँखों की प्याली में

सब देखें छत चढ़ चढ़ चन्दा,
पर मेरा चन्दा रूठ गया
दिल का बसने वाला था जो
कितना पीछे छूट गया
कैसे रंग रहे होली में कैसी चमक दिवाली में
कैसे धर लूं धीर पिया मैं इन आँखों की प्याली में

जनम जनम की कसमें सारी
इक क्षण में ही तोड़ चले
तुम क्या जानो अंखियों से तुम
बहता काजल छोड़ चले
कितने जतन लगाऊं अब इस काजल की रखवाली में
कैसे धर लूं धीर पिया मैं इन आँखों की प्याली में

-पुष्यमित्र उपाध्याय

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 6, 2012 at 6:38pm

सुन्दर प्रवहमान इस ललित गीत के लिये हृदय से बधाई स्वीकार करें, भाई पुष्यमित्र जी.

सहयोग बना रहे .. .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 6, 2012 at 9:41am

वाह लाजबाब विरह  गीत दिल को छू गया बहुत बधाई  इस गीत के लिए 

Comment by Pushyamitra Upadhyay on November 5, 2012 at 9:23pm

saadar abhar prachi didi....ravikar sir :)


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 5, 2012 at 6:02pm

बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति , विरहिणी का शृंगार पिया बिना फीका और अधूरा है और त्योहारों में भी कोई उल्लास नहीं... यह सब भाव हृदयस्पर्शी है, 

हार्दिक बधाई इस अभिव्यक्ति पर आ. पुष्यमित्र जी 

Comment by रविकर on November 5, 2012 at 10:46am

बहुत बढ़िया है आदरणीय-
एक परिहास
सादर

माथे पर वो स्वेद जो, शीशी भरो समेट |
डाल ड्राप निज नयन में, जब जब पाए डेट ||

कृपया ध्यान दे...

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