ये कैसी, अनहोनी होई |
दिल रोया, पर आँख ना रोई ||
चाहूँ लाख, जगाना उसको |
कम करे, तदबीर ना कोई ||
सब बेचारा, कह देते हैं |
जो लिखा है , होगा सोई ||
याद नहीं है, क्या बोया था |
दिल की बस्ती, बंज़र होई ||
अँधेरा है, कैसे ढूँढूँ |
यारो, अपनी किस्मत खोई ||
तन्हाई अच्छी, लगती है |
तन्हाई सा, मीत ना कोई ||
बन्ज़ारों सा, घूम रहा हूँ |
अपना पक्का, ठौर, ना कोई ||
कब अपने से, मिल पाऊँगा |
कब मेरा…
ContinueAdded by Shashi Mehra on September 21, 2012 at 11:30am — 4 Comments
दो कदम चलके रुक गए वो सफ़र क्या
जहां लौट के न जाया जाए वो घर क्या
जो नहो उसकी इनायत तो मुकद्दर क्या
कि बुरा क्या बद क्या और बदतर क्या
जो न जाए तेरे दरको वो राहगुज़र क्या
और जहां पड़े न तेरे कदम वो घर क्या
तेरे बगैर सल्तनत क्या दौलतोज़र क्या
जो नहुआ तेरा असीरेज़ुल्फ़ वो बशरक्या
देखती हैं यूँ हजारहा निगाहें शबोरोज़ हमें
जो दिल को न चीर जाए वो नज़र क्या
ज़िंदगी जिस तरहा हो…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 20, 2012 at 11:53pm — 4 Comments
व्योमकेश !
हम हो न
सकते नीलकंठ ....
गरल कर
धारण स्वयम
तुमने उबारा
संसृति को
अमिय देवों
ने पिया
झुकना पड़ा
आसुरी प्रकृति को
थम गया
तव कंठ में ही
सृष्टि का विध्वंस
हम हो न सकते ....
साक्षी थे
तुम भी तो
विकराल मंथन के
सर्प सम संतति
समूची
तुम ही चन्दन थे
विष तुम्हें डंसता नहीं
देता हमें शत दंश
व्योमकेश!
हम हो न सकते......
दृष्टि तेजोमय तुम्हारी …
Added by Vinita Shukla on September 20, 2012 at 11:00pm — 19 Comments
वो न्यारा सा आँगन .
वो प्यारा सा बगीचा
वो लह लहाते खेत .
वो दूर जाती पगडण्डी
वो सुबह शाम चिड़ियों का चहचहाना
वो सिंदूरी शाम गऊ माँ का रम्भाना
वो चंदा का रात में, धरती पे उतर के आना
वो बर्फ सी चांदनी तन-मन का सिहर जाना
अंधेरिया अंजोरिया के साथ हर पल का जुड़ जाना
वो स्वच्छ गगन में तारों का जग-मग टिम टिमाना
वो खपरैल कुशा से बने घर वातानुकूल
वो पेड़ों पर झूलों का सावन मे लटकाना
वो गेहूं चने की…
Added by Rajeev Mishra on September 20, 2012 at 10:30pm — 6 Comments
हम चुप हैं के कहने से कुछ नहीं होता
बस ग़म निकलता है पर कम नहीं होता,
कल फिर हम दिल को संभालेंगे देखो
ये ग़म का मौसम कभी कल नहीं होता,
अच्छा है ये के प्यास क्या है हम नहीं जानते
साकी की मेहरबानी मेरा पैमाना कम नहीं होता,
हम बे घर तो नहीं फुटपाथ है अपना घर
हम घर बनाते हैं हमारा घर नहीं होता ,
अपने पराये का फ़र्क़ अब ख़त्म हो गया है
सब दर्द दे रहे हैं अब दर्द नहीं होता.
Added by प्रमेन्द्र डाबरे on September 20, 2012 at 10:30pm — 6 Comments
भावनाओं से खाली हृदय हो गये।
लोग हारे हैं पत्थर विजय हो गये।।
आँखें रह जाती हैं बस खुली की खुली
आज ऐसे भयानक दृश्य हो गये।
आदमी के लिये सिर्फ पृथ्वी नहीं
दूसरे भी ग्रहों के विषय हो गये।
न्याय की आस में बैठा है आमजन
अन्त आरोप उस पर ही तय हो गये।
प्रेम में पहले जैसी न गर्मी रही
रिश्ते खामोशियों में विलय हो गये।
प्रेम सम्बन्ध उनसे बनाओ “सुजान”
प्रेम से जिनके कोमल हृदय हो गये।।
Added by सूबे सिंह सुजान on September 20, 2012 at 10:00pm — 7 Comments
वो रहते है मेरे जानिब से हर पल बेख़बर यारों
जब भी रात होती है खिड़की खोल देते हैं,
क़यामत आएगी इक दिन पता उनको भी है यारों
इसी बहाने से वो खिड़की से नज़ारा रोज़ लेते हैं,
मुक़द्दर में था दीदार करना नूर ए हुस्न का
इसी के वास्ते पौधों को वो पानी रोज़ देते हैं,
क़यामत आ ही जाएगी मै मिट जाऊं भी शायद
इसी खौफ में शायद वो नमाजें रोज़ पढ़ते हैं,
सोया रहता हूँ जब मैं बेख़बर हो दीन दुनिया से
वो नीदों में…
ContinueAdded by लोकेश सिंह on September 20, 2012 at 9:16pm — 11 Comments
उस दुनिया के लोग ..
इस दुनिया में .
चंद हैं …..
हाँ यह तीसरी दुनिया …
मुझे पसंद हैं ..
हाँ मुझे पसंद हैं ..
वो तमाम उन्मुक्त
अनंत उड़न ..जिसका ..
न कोई सानी…
न कोई …पहचान ..
...भावनाओ का उफान ,
कल्पनाओ का जहाँ ..
जीवंत जीवन ..की चाह..
कभी न ले सके …
कोई जिसकी थाह …
वो आदि अनंत …
देख सके जिसे हर संत ..
वो अविरल प्रवाह ..
वो आनंद का जहाँ ..
वो स्पन्दंमय वाणी…
ContinueAdded by Satish Agnihotri on September 20, 2012 at 8:59pm — 12 Comments
लघु कथा : विरोध
यह तकरीबन रोज़ का ही किस्सा था कि कालोनी के बच्चे भोली भाली तूलिका का खिलौना छीन लेते और वह रोते-रोते घर आती और हर बार उसकी मम्मी समझा बुझाकर उसे शांत करा देती | आज शाम उसके मम्मी पापा बरामदे में बैठे चाय पी रहे थे, तभी तूलिका भागी भागी घर आई और उसके पीछे रोते हुए राहुल को लेकर उसकी मम्मी भी आ पहुंची |
"देखिए बहन जी, आपकी बेटी ने मेरे राहुल को कितना मारा" राहुल के गाल पर पड़े चांटे का निशान दिखाते हुये राहुल की मम्मी बोलीं |
"तूलिका इधर आओ, तुमने…
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 20, 2012 at 7:00pm — 31 Comments
हमने कब यह सोच कर लिखा कि जो लिखा वो कोई गज़ल है
चलनेवालेकी मंजिलपे नज़र है, नकि वो हवाओं में या पैदल है
अंदाज़ेतसव्वुर ने बदले हैं तरीकाए-तालीम-ओ-फहम दौरेके दौर
कल जोकोई होगा बढ़के असद वो आज फकत बाशक्लेहमल है
बंदिशेबह्र-ओ-रदीफ़ोकाफिए के बगैर भी हो सकते हैं कलामेपाक
अल्लाहने जो बनाई है ये कायनात वो इक वाहिद सौतेअज़ल है
शह्रमें होती हैं बसाहटें मकानोकस्बाओबाजारोशाहराह, क्याक्या
पे जाँ पे दिललगे मेरा वो…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 20, 2012 at 6:00pm — 9 Comments
बारिश की धूप
सूरज कर्कश चीखे दम भर
दिन बरसाती
धूल दोपहर.. .।
उमस कोंसती
दोपहरी की
बेबस आँखों का भर आना
आलमिरे की
हर चिट्ठी से
बेसुध हो कर फिर बतियाना.. .
राह देखती
क्यों ’उस’ की
ये पगली साँकल
रह-रह हिल कर…
Added by Saurabh Pandey on September 20, 2012 at 4:00pm — 22 Comments
समझाओ
वफ़ा हमसे करो या न करो पर गैर न समझो
मुहब्बत हमने की थी क्या खता थी यह तो बतलाओ
मिले तो आप ही छुप छुप के कितनी मर्तवा हमसे
अब किसका था कसूर ऐ-दिल बस इतना तो समझाओ
कहीं 'दीपक' जले तो रौशनी ज़रूर होती है
हमारा दर्द भी समझो बार बार न जलाओ
सुना है बेवफा रोते नहीं आंसू नहीं आते
ऐसा नुस्खा प्रेम का हमको भी दे जाओ…
Added by Deepak Sharma Kuluvi on September 20, 2012 at 3:30pm — No Comments
गुजश्ता दिनों की याद मुझे जब भी आती है ,
मेरी तनहायी मुझसे कुछ कहती है कुछ छुपा जाती है , (१)
याद तेरे वादों की भी है तेरे इरादों की भी है ,
रात आती है और कुछ सताती है कुछ रुलाती है ,(२)
सारे जहां में चर्चे हुए थे अपने लाब्वो लुवाब के,
क्या खाक इश्क करते डरके जालिम समाज से (३)
डर ऐसा हावी हुआ उनके दिलो दिमाग में,
वो छोड़ गये हमको रोता…
Added by लोकेश सिंह on September 20, 2012 at 1:30pm — 2 Comments
===========ग़ज़ल=============
ग़मों के दौर में जब मुस्कुराने का हुनर आया
हमें बंजर जमीं पे गुल खिलाने का हुनर आया
भरोसा तोड़ कर तुमने दिया हर बार धोखा यूँ
मुसलसल चोट खाकर आजमाने का हुनर आया
खुदा होता निहां है पत्थरों में मान बैठा…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 20, 2012 at 12:45pm — 9 Comments
आज मॉर्निंग वॉक से लौटते समय सोचा कि जरा सीताराम बाबू से भेंट करता चलूँ| उनके घर पहुँचा तो देखा वो बैठे चाय पी रहे थे| मुझे देखते ही चहक उठे - "अरे राधिका बाबू, आइये आइये...बैठिये.....सच कहूँ तो मुझे अकेले चाय पीने में बिलकुल मजा नहीं आता, मैं किसी को ढूंढ ही रहा था......हा....हा...हा.....|" कहते हुए उन्होंने पत्नी को आवाज लगाई - "अजी सुनती हो, राधिका बाबू आए हैं........एक चाय उनके लिये भी ले आना|"
फिर हमदोनों चाय पीते हुए इधर-उधर की बातें करने लगे| तभी उन्होंने टेबल पर रखा अखबार…
ContinueAdded by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 19, 2012 at 10:40pm — 16 Comments
अब कोई भी मेरे आस पास नहीं होता
तुम चले गये हादसा अब हर वक्त नहीं होता,
सौ जुगनु चमकते थे मेरे दिल में कभी
अब इस टूटे ताजमहल में परिंदा भी नहीं आता,
बे वफाई कर के भी वफ़ा ही महसूस हो
मै जानता हूँ तुझे ये फन नहीं आता,
सदियाँ गुजर गयीं शोलों पे चलता रहता हूँ
खुदा बे खबर पड़ा है हमें रोना नहीं आता,
अपने घर को जलते हुए देखकर सोचता हूँ
आग खुद बुझे तो बुझ जाये हमें तो बुझाना नहीं आता.
Added by प्रमेन्द्र डाबरे on September 19, 2012 at 8:30pm — 2 Comments
============ग़ज़ल=============
लगा है वक़्त कितना ये हसीं दुनिया बसाने में
बफा औ इश्क के खातिर सभी वादे निभाने में
भरोसा उठ चुका है दोस्ती के नाम से लोगो
लगा है यार को ही यार अब तो आजमाने में
जिगर के जख्म पर भी वाह वाही दी मुझे…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 19, 2012 at 2:49pm — 8 Comments
"अरे ! ये क्या!! मनु दीदी तुम तो कह रही थी की तुम्हारा बजट केवल पांच सौ रुपयों का ही था!! ये गणपति जी की शानदार मूर्ती तो हजार रुपयों से क्या कम होगी!!" शाम को सुनंदा ने अपनी बड़ी बहन के घर गणेश स्थापना की पूजा के लिये घुसते ही कहा.
'अरे! क्या बताऊँ!! हम मूर्तियाँ खरीदने गए थे तो वहां हमारी काम वाली बाई भी मिल गई. उसने पांच सौ वाली मूर्ति उठा ली तो हमारे पास हजार वाली उठाने के अलावा कोई चारा ही नहीं था...."
गहरी उदासी के साथ…
Added by AVINASH S BAGDE on September 19, 2012 at 2:30pm — 10 Comments
खिलखिलाती सिसकियों का हर तरफ ही शोर है
भीड़ में तन्हाइयों की भीड़ चारों ओर है
ये कहाँ हैं हम ?
क्या यही थे हम ?
छू रहा मानव सफलता के चमकते नव शिखर
प्रकृत नियमों को विकृत करता ये कैसा है सफर
है सभी कुछ पर अधूरी,
हर निशा हर भोर है
ये कहाँ हैं हम ?
क्या यही थे हम ?
कितनी परतों में दबा है आज का ये आदमी
अब कहाँ किरदार सच्चे अनृत की है तह जमी
स्वार्थ आरी नेह बंधन,
कर रहीं कमज़ोर हैं
ये कहाँ हैं हम ?
क्या यही थे…
Added by seema agrawal on September 19, 2012 at 11:00am — 12 Comments
(अंग्रेज़ी की डायरी से हिन्दी में अनूदित)
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मेरी पत्नी,
प्रेम सदैव हमारे अंदर है, अपनी गहराई में, बाहर नहीं. ‘मैं’ द्वारा इस तथ्य को आत्मसात कर लिए जाने तक कि यह ‘मैं’ स्वयं भी इस आतंरिक प्रेम से बाह्य है, यह प्रेम अपने से बाहर नाना रूपों में अभिव्यक्ति की खोज में प्रयत्नशील बना रहता है. जब ‘मैं’ द्रवीभूत और अनन्य हो जाता है, इसके साथ ही वो सब कुछ जो इस ‘मैं’ से बाहर परिलक्षित है. तब प्यार के अतिरिक्त कुछ भी शेष…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 19, 2012 at 10:44am — 2 Comments
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