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अब कोई भी मेरे आस पास नहीं होता

तुम चले गये हादसा अब हर वक्त नहीं होता,

सौ जुगनु चमकते थे मेरे दिल में कभी

अब इस टूटे ताजमहल में परिंदा भी नहीं आता,

बे वफाई कर के भी वफ़ा ही महसूस हो

मै जानता हूँ तुझे ये फन नहीं आता,

सदियाँ गुजर गयीं शोलों पे चलता रहता हूँ

खुदा बे खबर पड़ा है हमें रोना नहीं आता,

अपने घर को जलते हुए देखकर सोचता हूँ

आग खुद बुझे तो बुझ जाये हमें तो बुझाना नहीं आता.

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Comment

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Comment by Harvinder Singh Labana on September 21, 2012 at 5:05pm

Lajawaab......

Comment by लोकेश सिंह on September 20, 2012 at 9:24am

सदियाँ गुजर गयीं शोलों पे चलता रहता हूँ

खुदा बे खबर पड़ा है हमें रोना नहीं आता,

वाह  प्रमेन्द्र जी बहुत ही खूबसूरत  रचना  ,एहसास को सब्द देना कोई आपसे सीखे ,अचछी रचना के लिए साधुवाद ....

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