बीमारी की बात करते हैं तो हर व्यक्ति, कोई न कोई बीमारी से ग्रस्त नजर जरूर आता है। बीमारी की जकड़ से यह मिट्टी का शरीर भी दूर नहीं है। सोचने वाली बात यह है कि बीमारियों की तादाद, दिनों-दिन लोगों की जनसंख्या की तरह बढ़ती जा रही है। जिस तरह रोजाना देश की आबादी बढ़ती जा रही है और विकास के मामले में हम विश्व शक्ति बनें न बनें, मगर इतना जरूर है कि यही हाल रहा तो जनसंख्या की महाशक्ति अवश्य कहलाएंगे। जनसंख्या बढ़ने के साथ ही बीमारियां भी हमारे शरीर के जरूरी हिस्से होती जा रही हैं। जैसे अलग-अलग तरह से लोगों…
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Added by rajkumar sahu on May 7, 2011 at 11:50am —
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इक छोटा सा पंछी मेरे कमरे की खिड़की के बराबर से गुजरते तारों पे बैठा रहता है दिनभर
हर वक्त मौन सा रहता,
निहारता सामने के बागों को,
इमारतों पे सर पटकती किरणों को,
परदेसी पवन के झोकों को हरे वृक्षों से आलिंगन करते हुए ..
कभी कभी जो में खिडकी के पास आता हूँ उसे देखने, तो वो मेरी तरफ मुड़कर बैठ जाता है
लगता है जैसे अपनी शांत आखों से मेरे अशांत चित्त को देखकर कह रहा हो
के तुम भी हो कुछ मेरे जैसे वहाँ खिड़की के उस तरफ
फर्क है इतना के तुम हो अपने में ही उलझे…
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Added by Bhasker Agrawal on May 6, 2011 at 5:07pm —
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मेरे आत्मीय बाबा नागार्जुन
[महेंद्रभटनागर]
बाबा नागार्जुन (मैथिली भाषा के कवि ‘यात्री’ / घर का नाम — वैद्यनाथ मिश्र) का जन्म सन् 1911; ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा (जून) के दिन बताया जाता है।…
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Added by MAHENDRA BHATNAGAR on May 6, 2011 at 10:30am —
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इक पल जीना इक पल मरना दिखता है
मेरा गिरना और संभलना दिखता है
इक बूढ़े चेहरे को पढ़ना आये तो
हर झुर्री में एक जमाना दिखता है
जब कोई गुलशन की बातें करता है
मुझ को बस इक नया बहाना दिखता है
एक कहानी नानी की सुन जो सोता
उसे ख्वाब में एक खज़ाना दिखता है
बिस्तर की सलवट को कितना ठीक करो
जब चादर का रंग पुराना दिखता…
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Added by ASHVANI KUMAR SHARMA on May 6, 2011 at 10:06am —
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वामन वृक्ष
यूं तो वामन वृक्षों मैं भी
उगते हैं फल फूल और पत्ते
पर उनमें लहलहाते वृक्षों से उपजे
फल फूलों की सहजता और सरसता कहाँ
कब हैं वो उन्हें सा महकते
वक़्त से पहले
गर बेटी को ब्याहोगे
उसका विकास रोक कर
क्या खुद सुकून पाओगे
सींचो उस नन्ही बेल को
अपने स्नेह की शीतल छाया से
पोषण दो उसे
शिक्षा और संस्कार का
पूर्ण रुपें…
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Added by rajni chhabra on May 4, 2011 at 3:00pm —
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मुक्तिका:
मैं
संजीव 'सलिल'
*
पुरा-पुरातन चिर नवीन मैं, अधुनातन हूँ सच मानो.
कहा-अनकहा, सुना-अनसुना, किस्सा हूँ यह भी जानो..
क्षणभंगुरता मेरा लक्षण, लेकिन चिर स्थाई हूँ.
निराकार साकार हुआ मैं वस्तु बिम्ब परछाईं हूँ.
परे पराजय-जय के हूँ मैं,…
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Added by sanjiv verma 'salil' on May 3, 2011 at 2:01pm —
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पदपूजा का आभामंडल हर किसी को भाता है। जिसे देखो, वह पद के पीछे, अपना पग हमेशा आगे रखना चाहता है। मैं तो यह मानता हूं कि जिनके पास कोई बड़ा पद नहीं है, समझो वह कुछ भी नहीं है। उसकी औकात उतनी है, जितनी सरकार की उंची कुर्सी में बैठे सत्तामद के मन में, जनता की है। पदपूजा की कहानी देखा जाए तो काफी पुरानी है। ऐसा लगता है, जैसे पद पूजा की परिपाटी कभी खत्म नहीं होने वाली है। पद का गुरूर भी बड़ा अजीब है, किसी को कोई बड़ा पद मिला नहीं कि वह सातवें आसमान में हवाईयां भरने लगता है। वह सोचता है, जैसे दुनिया…
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Added by rajkumar sahu on May 3, 2011 at 1:39am —
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जो माया बंधन में भटका ,
उनके वश में कुछ नहीं रहता ,
जो माया वश में रहते हैं ,
बिन बिचारे बात कहत हैं ,
जो अज्ञान रूपी मदिरा पिया ,
गए तुम भी जो वचन ध्यान दिया ,
सगुण अगुण में नहीं भेद है ,
ज्ञानी पंडित वेद कहे हैं ,
रवि गुरु जो कुछ भूल बोले ,
ध्यान न देना यही कहत हैं ,
Added by Rash Bihari Ravi on May 2, 2011 at 1:45pm —
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खर्चा बचाऊंगा
श्री ओसामा बिन लादेन जी मारे गए
कल में जन्मदिन हरगिज़ न मनाऊंगा
इस कुकर्मीं की ही आड़ में ही
जन्मदिन की पार्टी का खर्चा बचाऊंगा
महंगाई के इस दौर में
मुझे अच्छा बहाना मिल गया
वह ख़ूनी,दरिंदा,पापी सही
पर मेरा काम तो कर गया
जीते जी तो यह मेरे काम न आया
मरकर भला कर गया मेरा
हज़ार दो हज़ार की बचत हो गई
पार कर गया बेहड़ा
सही वक़्त पे मरा बेचारा
अमेरिका खुशियाँ मनायेगा
पाकिस्तान का हाल अब
बकरे जैसी हो…
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Added by Deepak Sharma Kuluvi on May 2, 2011 at 10:39am —
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मुक्तिका:
मौन क्यों हो?
संजीव 'सलिल'
*
मौन क्यों हो पूछती हैं कंठ से अब चुप्पियाँ.
ठोकरों पर स्वार्थ की, आहत हुई हैं गिप्पियाँ..
टँगा है आकाश, बैसाखी लिये आशाओं की.
थक गये हैं हाथ, ले-दे रोज खाली कुप्पियाँ..
शहीदों ने खून से निज इबारत मिटकर लिखी.
सितासत चिपका रही है जातिवादी चिप्पियाँ..
बादशाहों को किया बेबस गुलामों ने 'सलिल'
बेगमों…
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Added by sanjiv verma 'salil' on May 1, 2011 at 5:13pm —
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ख्वाब उनमें नहीं अब पलते हैं
उसकी आंखें चिराग़ जैसी हैं
उसकी आंखों में है जहां का ग़म
उसकी किस्मत खुदा के जैसी है
कहने को तो दुनिया भी एक महफिल है
इसकी सूरत बाजार जैसी है
हरेक घर को इबादत की नजर से देखो
घर की खुशबू कुरान जैसी है
जबसे आया हूं होम करता रहा हूं
जिन्दगी हवन कुंड के जैसी है
- आकर्षण कुमार गिरि
Added by Aakarshan Kumar Giri on April 30, 2011 at 1:00pm —
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कविता :- श्रम को सलाम है !
छेनियों हथौडियो की चोट को
उस ओट को सलाम है…
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Added by Abhinav Arun on April 29, 2011 at 10:30pm —
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अभी अभी एक ख्याब चूर हुआ हैं
बो शक्स जो अज़ीज है, दूर हुआ हैं
मैं समझता हू वो मजबूर ही होगा
लोग कहतें हैं के उसें गुरूर हुआ हैं
अब भी उम्मीद हैं मुझें तेरे आनें की
महोब्बत का बुरा हश्र जरूर हुआ है
लुट के जिसनें कुछ नहीं पाया
प्यार में बो ही तो मशहूर हुआ हैं
तन्हा है 'अमि' फ़िर एक बार दुनियां में
दर्द तो इस बार भी भरपूर हुआ है
-अमि'अज़ीम'
Added by अमि तेष on April 29, 2011 at 9:49am —
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कस्तूरी की गंध
खुद मैं सहेजे
भ्रमित,
भटक रहा था
कस्तूरी मृग
आनंद का सागर
खुद मैं समेटे
कदम
भटक रहें थे
दसों दिग्
Added by rajni chhabra on April 27, 2011 at 10:30pm —
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बड़ा अजीब खेल है लोकतंत्र का क्रिकेट
एक गेंद के पीछे ग्यारह सौ मिलियन लोग
उछल कर, गिर कर
झपट कर, लिपट कर
पकड़नी पड़ती है गेंद
कभी जमीन से, कभी आसमान से
जिसकी किस्मत अच्छी हो उसी को मिलती है गेंद
और बल्लेबाज
उसे तो मजा आता है क्षेत्र रक्षकों को छकाने में
अगर किसी तरह सबने मिलकर
बल्लेबाज को आउट कर भी दिया
तो फिर वैसा ही नया बल्लेबाज
उसका भी लक्ष्य वही
अगर पूरी टीम आउट हो गई
तो दूसरी टीम के बल्लेबाजों का भी लक्ष्य वही
सबसे ज्यादा पैसा…
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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 27, 2011 at 10:20pm —
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यूँ तो
बहुत पहले से
रखी थी
वह किताब शेल्फ में
उठा कर…
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Added by AjAy Kumar Bohat on April 27, 2011 at 4:30pm —
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पैगाम लिए पंछी चल दिए सुबह को बुलाने ,
बांसुरी से गुजरती शीतल हवा कुछ गुनगुनाई |
पीली धूप पहन किरणों ने झाँका आसमान से ,
बाहें फैलाकर मौसम ने फिर ली अंगड़ाई |
सिमटने लगी रज़ाई…
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Added by Veerendra Jain on April 27, 2011 at 12:15pm —
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अखब़ार का एक टुकड़ा
बाहर से जला हुआ,
और राख़ वाली परिधि के दरमयां
सिर्फ़ तुम्हारा ज़िक्र.
हुमाद की वही खुशबू,
जिसका कोई आकार नहीं,
जिसकी कोई दिशा नहीं;
ठंडी आवाज़ में बजती घंटियों सा चमकता है,
दीया और पुष्प जैसा नदियों में बिख़र जाता…
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Added by Rahul Raj on April 26, 2011 at 9:30pm —
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सुर्ख लाल जोड़े में सजी वो जान मेरी
रस्मो को आज निभाने चली है
सीने में मेरी मुहब्बत को दफना कर
रिश्तो की लाज बचाने चली है
मेंहदी से सजा के वो सुर्ख हथेली
दिल के दर्द छुपा तो वो लेगी
होठो पे लाली लगा कर के अपने
गले की हिचकियाँ छुपाने चली है
फेरे जो लेगी वो वेदी पे उस पल
सपनों को अपने जलाती चलेगी
हर ख्वाब जो कभी सजाये थे उसने
वेदी के अग्नि में चढाने चली है
फूलो से सजे उस सुहाग के सेज पे
सपनों की चिता जलाने चली…
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Added by Dheeraj on April 26, 2011 at 5:00pm —
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