For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

मेरे आत्मीय बाबा नागार्जुन .....[महेंद्रभटनागर]

मेरे आत्मीय बाबा नागार्जुन 

[महेंद्रभटनागर]

बाबा नागार्जुन (मैथिली भाषा के कवि ‘यात्री’ / घर का नाम — वैद्यनाथ मिश्र) का जन्म सन् 1911; ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा (जून) के दिन बताया जाता है।

वे मुझसे लगभग पन्द्रह वर्ष बड़े थे (मेरी जन्म-तिथि 26 जून 1926)।

प्रगतिशील हिन्दी कविता से जुड़ने के साथ नागार्जुन जी से भी जुड़ गया। उनकी भी दिलचस्पी मेरी काव्य-सृष्टि के प्रति रही। उन दिनों फ़ोन-सम्पर्क इतना सुगम न था; पत्राचार शुरू हुआ। नागार्जुन जी के कुछ ही पत्र मेरे पास सुरक्षित हैं।

सन् 1948-49 में मैंने उज्जैन से ‘सन्ध्या’ नामक मासिक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन प्रारम्भ किया। मुझे अपने समय के अधिकांश रचनाकारों का सहयोग मिला। नागार्जुन जी को भी ‘सन्ध्या’ के अंक भेजे। तीसरे अंक के लिए उन्होंने अपनी एक कविता ‘भुस का पुतला’ (रचना-वर्ष 1948) प्रकाशनार्थ भेजी। ‘सन्ध्या’ के प्रकाशक एक साहित्य-प्रेमी होमियोपैथी- डॉक्टर थे। लाभ के अभाव में; उन्होंने ‘सन्ध्या’ का तीसरा अंक मुद्रित नहीं करवाया। निदान, प्राप्त रचनाएँ संबंधित रचनाकारों को मुझे लौटानी पड़ीं। आगे चलकर, नागार्जुन जी की यही कविता (‘भुस का पुतला’) ‘हंस’ के मुख-पृष्ठ पर छ्पी।

फिर, सन् 1958 में, उज्जैन से ही, मेरे सम्पादन में त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘प्रतिकल्पा’ (उज्जैन का एक प्राचीन नाम) का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। इस पत्रिका के मात्र तीन अंक निकले। तीसरा अंक कवितांक निकाला। जिसमें काव्यालोचन आलेखों के साथ इकतालीस लब्ध-प्रतिष्ठ चर्चित कवियों की कविताएँ छ्पीं। इनमें नागार्जुन जी की कविता ‘केदार के प्रति’ शामिल है। कहने का आशय है कि नागार्जुन जी ने मेरी प्रकाशन-योजनाओं में पूर्ण रुचि ली और तत्परतापूर्वक पूर्ण सहयोग किया। सौजन्य और औदार्य की वे प्रतिमूर्ति थे।

सन् 1948 में ही, नागार्जुन जी ने पटना से ‘उदयन’ मासिक पत्र का प्रकाशन स्वयं किया। अंक मुझे भेजा। मैंने अपनी एक कविता ‘ज़िन्दगी कि शाम’ प्रकाशनार्थ प्रेषित की। उनका तुरन्त उत्तर आया :

 

पत्र क्र. 1 / उदयन, बाँकीपुर, पटना  /  दि. 4 सितम्बर 1948

 

प्रिय बंधु,

तुम्हारी रचना मिली — ‘ज़िन्दगी की शाम’ और अच्छी लगी। इसका इस्तेमाल अब ‘उदयन’ के तीसरे अंक में होगा; दूसरे का मैटर प्रेस में जा चुका है।

और, सब ठीक है। हमारे पास कुछ नहीं है — अकिंचनों का मासिक है ‘उदयन’। भीख माँग कर इसे आगे बढ़ा रहा हूँ। कवि नागार्जुन को फिर भिक्षु नागार्जुन हो जाना पड़ा है। तुम्हें फिर भी दस रुपये भेजूंगा।

 

नागार्जुन

 

ज़िन्दगी की शाम

[महेंद्रभटनागर]

यह उदासी से भरी मजबूर, बोझिल

ज़िन्दगी की शाम !

अपमानित, दुखी, बेचैन युग-उर की

तड़पती ज़िन्दगी की शाम !

मटमैले, तिमिर-आच्छन्न, धूमिल

नीलवर्णी क्षितिज पर

आहत, करुण, घायल, शिथिल

टूटे हुए कुछ पक्षियों के पंख प्रतिपल फड़फड़ाते !

नापते सीमा गगन की दूर,

जिनका हो गया तन चूर !

धुँधला चाँद शोभाहीन

कुछ सकुचा हुआ-सा झाँकता है,

हो गया मुखड़ा धरा को देखकर फीका,

सफ़ेदी से गया बीता,

कि हो आलोक से रीता !

गया रुक एक क्षण को राह में

सिर धुन पवन !

सम्मुख धरा पर देख जर्जर फूस की कुटियाँ

पड़ीं जो तोड़ती-सी दम,

घिरा जिनमें युगों का सघन-तम !

और जिनमें

हाँफ़ती-सी, टूटती-सी साँस का साथी

पड़ा है हड्डियों का ढेर-सा मानव,

बना शव !

मौनता जिसकी अखंडित,

धड़कता दुर्बल हृदय

अन्याय-अत्याचार के अगणित प्रहारों से दमित !

अभिशाप-ज्वाला का जला,

निर्मम व्यथा से जो दला

जिसको सदा मृत-नाश का परिचय मिला !

जो दुर्दशा का पात्र,

भागी कटु हलाहल-घूँट जीवन का,

मरण-अभिसार का

निर्जन भयानक पंथ का राही

थका, प्यासा, बुभुक्षित !

कह रहा है सृष्टि का कण-कण —

‘मनुजता का पतन’ !

असहाय हो निरुपाय मानवता गिरी,

अवसाद के काले घने

अवसान को देते निमंत्रण

बादलों में मनु-मनुजता आ घिरी !

उद्यत हुआ मानव

बिना संकोच, जोकों-सा बना,

मानव रुधिर का पान करने !

क्रूरतम तसवीर है,

है क्रूरतम जिसकी हँसी

विष की बुझी !

पर, दब सकी क्या मुक्त मानवता ?

सजग जीवन सबल ?

यह दानवी-पंजा अभी पल में झुकेगा,

और मुड़ कर टूट जाएगा !

मनुजता क्रुद्ध हो जब उठ खड़ी होगी

दबा देगी गला

चाहे बना हो तेज़ छुरियों से !

सबल हुंकार से उसकी

सजग हो डोल जाएगी धरा,

जिस पर बना है

भव्य, वैभव-पूर्ण इकतरफ़ा महल

(पर, क्षीण, जर्जर और मरणोन्मुख !)

अभी लुंठित दिखेगा,

और हर पत्थर चटख कर

ध्वंस, बर्बरता, विषमता की कथा

युग को सुनाएगा !

जलियानवाला-बाग़-सम मृत-आत्माओं की

धरा पर लोटती है आबरू फिर;

क्योंकि गोली से भयंकर

फाड़ डाले हैं चरण

दृढ़ स्वाभिमानी शीश, उन्नत माथ !

जिन पर छा गयी

सर्वस्व के उत्सर्ग की अद्भुत शहीदी आग,

उसमें भस्म होगा, ध्वस्त होगा राज तेरा

ज़ुल्म का, अन्याय का पर्याय !

पर, यह ज़िन्दगी की शाम —

अगणित अश्रु-मुक्ताओं भरी,

मानों कि जग-मुख पर गये छा ओस के कण !

चाहिए दिनकर कि जो आकर सुखा दे

पोंछ ले सारे अवनि के प्यार से आँसू सजल !

जिससे खिले भू त्रस्त

जीवन की चमक लेकर,

चमक ऐसी कि जिससे प्रज्वलित हों सब दिशाएँ,

जागरण हो,

जन-समुन्दर हर्ष-लहरों से सिहर कर गा उठे

अभिनव प्रभाती गान,

वेदों की ऋचाओं के सदृश !

बज उठे युग-मन मधुर वीणा

जिसे सुन, जग उठें सोयी हुईं जन-आत्माएँ !

और कवि का गीत

जीवन-कर्म की दृढ़ प्रेरणा दे,

प्राण को नव-शक्ति नूतन चेतना दे !

 

       ¤

‘उदयन’ के तृतीय अंक में यह कविता प्रकाशित हुई। पत्र में नागार्जुन जी ने अपनी ओर से ही लिखा — “तुम्हें फिर भी दस रुपये भेजूंगा।’’ उनसे पारिश्रमिक / मानदेय की अपेक्षा मैंने कभी नहीं की। उनके इस 4सितम्बर 1948 के पत्र का उत्तर मैंने तत्काल दिया और पारिश्रमिक न भेजने का आग्रह किया। नागार्जुन जी ने मेरे इस पत्र का बड़ा मार्मिक उत्तर दिया :

 

पत्र क्र. 2 

अखिल भारतीय ओरियंटल कानफ़्रेंस (14हवाँ अधिवेशन)  दरभंगा 

दि. 19 अक्टूबर 1948

 

बंधु,

तुमने लिखा है — ‘उदयन’ भविष्य में बेहद उन्नति करेगा’ — सो, तुम्हारे मुँह में घी-शक्कर ! पारिश्रमिक के संबंध में तुम्हारी इस थीसिस से मेरा उत्साह कई गुना बढ़ गया है। वास्तव में, ‘उदयन’ को मैं भीख माँग-माँग कर ही निकाले जा रहा हूँ। जनता ने मुझे अपने समर्थ कंधों पर उठा लिया है। परन्तु प्रसन्नता की पराकाष्ठा पर अपने राम उस रोज़ पहुँचेंगे, जिस दिन ‘उदयन’ का सारा व्यय उसकी अपनी बिक्री से आने लगेगा।

‘तुम’ पर जो आज उतर आया हूँ सो, भैया, स्नेहाधिक्य ने अपने को ऐसा करने को बाध्य कर दिया। रचनाएँ मिलीं, मगर अभी ‘टूर’ में पढ़ नहीं पाया हूँ।

 

नागार्जुन

नागार्जुन जी के इस पत्र को पढ़कर अपार हर्ष हुआ। उन दिनों प्रगतिशील हिन्दी कविता में अपना स्थान बना ही रहा था। मुझ जैसे नवोदित कवि को नागार्जुन जी जैसे यशस्वी साहित्य-सर्जक ने जिस आत्मीयता से लिखा-अपनाया; पढ़कर आश्चर्यचकित और विमुग्ध रह गया! हौसला बढ़ा।

‘तुम’ पर जो आज उतर आया हूँ सो, भैया, स्नेहाधिक्य ने अपने को ऐसा करने को बाध्य कर दिया।’ नागार्जुन जी ने यह स्नेह-भाव अंत तक बनाये रखा। नि:सदेह उनका हृदय बड़ा विशाल था। संबोधनों में उन्होंने मुझे कभी ‘प्रिय बधु’ लिखा, कभी ‘बधु’, कभी ‘प्रिय साथी’।

उनका एक और विशिष्ट पत्र मेरे पास सुरक्षित है। यह पत्र उन्होंने सन् 1951 में वर्धा से प्रेक्षित किया था :

 

पत्र क्र. 3  /  हिंदी नगर, वर्धा  /  दि. 26 मई 1951

 

       प्रिय साथी,

       मुद्दत के बाद तुम्हारे हस्ताक्षर देखने को मिले — कैसा संयोग था ! सबसे बड़ी असुविधा, प्रकाशन के क्षेत्र में, आज कवियों के ही माथे पड़ रही है। इलाहाबाद रहते समय, पिछले साल नेमि, माचवे, शमशेर और केदार से मैंने यही बात चलाई थी जो तुमने लिखी है। पर, कुछ निश्चित नहीं हो  पाया।  प्रसार और प्रबन्ध का भार ‘आधुनिक पुस्तक भंडार’ ( 7, अलबर्ट रोड, इलाहाबाद ) लेने को तैयार था। पच्चीस-पच्चीस रुपये हम लगाने को तैयार थे । किन्तु चरम वामपंथिता के उन दिनों में एक प्रकार की संशयात्मकता भी तो हमारे पैरों को जकड़े हुए थी।  ख़ैर।

       तुम्हारे कै संकलन अब तक निकल गये हैं ? चाहता हूँ कि सामग्री  सुलभ होती तो कुछ तुम पर लिखता।

       यों मेरी एक चिर-पोषित लालसा है कि 1942 के गण-आन्दोलन से  लेकर चीन में जनवादी सत्ता की प्रतिष्ठापना-तिथि तक — सात साल तक — की नई कविताओं का एक संकलन तैयार करूँ। एतदर्थ मसाला एकत्र कर रहा हूँ। नये कवियों पर, पृथक-पृथक भी लिखने का मन है।

       अभी कई महीने यहाँ रहना है। पत्र अवश्य लिखना। ‘नया साहित्य’ के आकार की, 160 पृष्ठों की एक चयनिका अगर प्रकाशित करें तो सात-सौ रुपये बैठेंगे। यह रकम कहाँ से आवेगी ? यहाँ तो रोज़ कुआँ खोदते हैं और तब जा कर कहीं पानी के दर्शन होते हैं ! ग़रीबी के कारण ही बिहार में रहना मेरे लिए असम्भव हो जाता है, राजनीतिक तीव्रता ..... (अस्पष्ट)

नागार्जुन

इस पत्र में भी, मेरे संदर्भ में, उन्होंने विशेष बात लिखी — “ तुम्हारे कै संकलन अब तक निकल गये हैं ? चाहता हूँ कि सामग्री सुलभ होती तो कुछ तुम पर लिखता।” जो काव्य-कृतियाँ उस समय उपलब्ध थीं; मैंने उन्हें भेजीं। नागार्जुन जी की घुमक्कड़ प्रवृत्ति से सब परिचित हैं। कृतियाँ साथ लेकर तो कोई घूम-फिर नहीं सकता। जब मन बना; तब लिखा न जा सका। स्वभाववश, मुझे भी उन्हें स्मरण कराने में संकोच रहा। बाद में, क्रमश: मेरी अनेक काव्य-कृतियाँ प्रकाशित हुईं। नागार्जुन जी को भी भेजीं; जिनमें ‘जिजीविषा’ कविता-संग्रह विशिष्ट था; क्योंकि इसमें जनवादी चेतना सम्पन्न कविताएँ अधिक सम्मिलित हैं।

उज्जैन-निवास के दौरान प्रगतिशील कविता का एक संकलन सम्पादित करने का विचार मन में आया। नागार्जुन जी ने अपनी कविताएँ समाविष्ट करने की अनुमति ही प्रदान नहीं की; कविताओं के चयन का दायित्व भी मुझे सौंप दिया। मेरी समझ पर जो भरोसा उन्होंने दर्शाया; उससे भी मैं कोई कम प्रभावित नहीं हुआ। प्रकाशकीय संकट के कारण, यह संकलन फिर प्रकाशित नहीं हो सका।

 

पत्र क्र. 4  /  नई दिल्ली - 3  / दि. 14 मार्च 1957

 

       प्रिय भाई,

       आपका पत्र मिला। अभी इतना व्यस्त हूँ कि रचनाएँ कापी करने का अवकाश बिल्कुल नहीं है। संकलन में डालने के लिए तो इधर-उधर से भी 5-7 रचनाएँ बटोर ले सकते हैं। ‘नया पथ’ और ‘अवन्तिका’ की फाइलें तो होंगी आपके पास।

       ‘नई चेतना’ अवश्य देखूंगा, फिर सूचित करूंगा। कल इलाहाबाद जा रहा हूँ, लौटूंगा 15 रोज़ बाद। — आशा है, आप प्रसन्न हैं।

 

नागार्जुन आपका

नागार्जुन जी के पत्र और भी थे; किन्तु घर में दो बार दीमक लगने के कारण बहुत-सी संचित पत्रिकाएँ एवं चिट्ठियाँ नष्ट हो गयीं।

सन् 1978 से 1984 ‘कमलाराजा कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय, ग्वालियर’ में हिन्दी-विभागाध्यक्ष रहा। सहयोगी श्री॰ सत्यव्रत अवस्थी जी के घर जाड़ों में एक दिन नागार्जुन जी आये। पीरियड-अवकाश में उनसे मिलने गया। प्रथम बार हम दोनों ने एक-दूसरे को देखा। प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा! नागार्जुन जी अस्वस्थ दशा में थे; उन्हें पुराना दमा था। मेरे कविता-संग्रह ‘जिजीविषा’ के बारे में उन्होंने बताया कि कृति का नाम (टाइटिल) उपयुक्त नहीं रखा गया है। अधिक बात करने का अवसर न था।

नागार्जुन जी की शक़्ल, किंचित बढ़ी हुई दाढ़ी, वेशभूषा, आँगन में धूप में उनके बैठने का ढंग — सब आज भी चलचित्र-समान आँखों में उतर आता है। नागार्जुन जी का न रहना बेचैन और उदास कर जाता है।

 

*** 110, बलवन्तनगर, गाँधी रोड, ग्वालियर — 474 002 (म॰ प्र॰)

फ़ोन : 0751-4092908

E-Mail : drmahendra02@gmail.com

Views: 1308

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Rash Bihari Ravi on May 7, 2011 at 6:15pm
bahut achchi jankari di aap ne nagarjun ji ke bisay me jankar bahut khushi hui
Comment by Abhinav Arun on May 7, 2011 at 8:17am

आदरणीय महेंद्र जी आपका लेखा पढकर नागार्जुन जी से साक्षात्कार होने की अनुभूति हुई | ओ बी ओ पर इसे विस्तार से लिख कर आपने हमें समृद्ध किया है | आभारी हैं हम सब | आपकी इन पंक्तियों में पूरे हिन्दी जगत की पीड़ा समाहित है-

नागार्जुन जी का न रहना बेचैन और उदास कर जाता है।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

बृजेश कुमार 'ब्रज' posted a blog post

गीत-आह बुरा हो कृष्ण तुम्हारा

सार छंद 16,12 पे यति, अंत में गागाअर्थ प्रेम का है इस जग मेंआँसू और जुदाईआह बुरा हो कृष्ण…See More
17 hours ago
Deepak Kumar Goyal is now a member of Open Books Online
17 hours ago
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ज़िन्दगी की रह-गुज़र दुश्वार भी करते रहे
"धन्यवाद आ. बृजेश जी "
Wednesday
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं
"धन्यवाद आ. बृजेश जी "
Wednesday
अजय गुप्ता 'अजेय commented on अजय गुप्ता 'अजेय's blog post ग़ज़ल (कुर्ता मगर है आज भी झीना किसान का)
"अपने शब्दों से हौसला बढ़ाने के लिए आभार आदरणीय बृजेश जी           …"
Wednesday
बृजेश कुमार 'ब्रज' commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ज़िन्दगी की रह-गुज़र दुश्वार भी करते रहे
"ज़िन्दगी की रह-गुज़र दुश्वार भी करते रहेदुश्मनी हम से हमारे यार भी करते रहे....वाह वाह आदरणीय नीलेश…"
Wednesday
बृजेश कुमार 'ब्रज' commented on अजय गुप्ता 'अजेय's blog post ग़ज़ल (कुर्ता मगर है आज भी झीना किसान का)
"आदरणीय अजय जी किसानों के संघर्ष को चित्रित करती एक बेहतरीन ग़ज़ल के लिए बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं…"
Wednesday
बृजेश कुमार 'ब्रज' commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं
"आदरणीय नीलेश जी एक और खूबसूरत ग़ज़ल से रूबरू करवाने के लिए आपका आभार।    हरेक शेर…"
Wednesday
बृजेश कुमार 'ब्रज' commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - यहाँ अनबन नहीं है ( गिरिराज भंडारी )
"आदरणीय भंडारी जी बहुत ही खूब ग़ज़ल कही है सादर बधाई। दूसरे शेर के ऊला को ऐसे कहें तो "समय की धार…"
Wednesday
बृजेश कुमार 'ब्रज' commented on बृजेश कुमार 'ब्रज''s blog post ग़ज़ल....उदास हैं कितने - बृजेश कुमार 'ब्रज'
"आदरणीय रवि शुक्ला जी रचना पटल पे आपका हार्दिक अभिनन्दन और आभार। लॉगिन पासवर्ड भूल जाने के कारण इतनी…"
Wednesday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-122 (विषय मुक्त)
"जी, ऐसा ही होता है हर प्रतिभागी के साथ। अच्छा अनुभव रहा आज की गोष्ठी का भी।"
Saturday
अजय गुप्ता 'अजेय replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-122 (विषय मुक्त)
"अनेक-अनेक आभार आदरणीय शेख़ उस्मानी जी। आप सब के सान्निध्य में रहते हुए आप सब से जब ऐसे उत्साहवर्धक…"
Saturday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service