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सुर्ख लाल जोड़े में सजी वो जान मेरी

सुर्ख लाल जोड़े में सजी वो जान मेरी
रस्मो को आज निभाने चली है
सीने में मेरी मुहब्बत को दफना कर
रिश्तो की लाज बचाने चली है

मेंहदी से सजा के वो सुर्ख हथेली
दिल के दर्द छुपा तो वो लेगी
होठो पे लाली लगा कर के अपने
गले की हिचकियाँ छुपाने चली है

फेरे जो लेगी वो वेदी पे उस पल
सपनों को अपने जलाती चलेगी
हर ख्वाब जो कभी सजाये थे उसने
वेदी के अग्नि में चढाने चली है

फूलो से सजे उस सुहाग के सेज पे
सपनों की चिता जलाने चली है
करके समर्पित खुद को किसी को
अपने ही अर्थी को कान्धा लगाने चली है

माँ बाप के बस एक ख़ुशी पे
हर ख्वाब मुहब्बत का लुटाने चली है
घोट के गला मुहब्बत का मेरे
मेरी जान मेरी मुहब्बत को अमर बनाने चली है

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Comment by Dheeraj on April 28, 2011 at 9:45pm
रस्ते तो कई होते है गणेश जी पर कभी-२ वक़्त कुछ चुनने का मौका ही नहीं देता ........
रचना पसंद आई इसके लिए तहे दिल से धन्यवाद

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 28, 2011 at 10:45am

माँ बाप के बस एक ख़ुशी पे
हर ख्वाब मुहब्बत का लुटाने चली है
घोट के गला मुहब्बत का मेरे
मेरी जान मेरी मुहब्बत को अमर बनाने चली है.......

 

आह , क्या और कोई रास्ता न था, बेहद हृदयस्पर्शी रचना , साधुवाद धीरज जी इस अभिव्यक्ति हेतु |

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