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हमको समझ नहीं-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/१२२१/२१२



कहते है लोग प्रीत  की  हमको समझ नहीं

दुश्मन के साथ मीत की हमको समझ नहीं।१।

*

नफरत ही नित्य बँट  रही  सरकार इसलिए

आँगन में उठती भीत की हमको समझ नहीं।२।

*

न्योतो  न  आप  मंच  से  महफिल  बिगाड़ने

कविता गजल या गीत की हमको समझ नहीं।३।

*

हम ने सदा  ही  धूप  का  रस्ता  बुहारा  पर

रिश्तों में पसरी शीत की हमको समझ नहीं।४।

*

समझा नहीं है  खेल  मुहब्बत  को इसलिए

इस में ही…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 25, 2021 at 5:17am — 4 Comments

एक ताज़ा ग़ज़ल

ग़ज़ल

1212 1122 1212 22/112

सुख़न में पैदा तेरे किस तरह कमाल हुआ

हज़ार बार यही मुझसे इक सवाल हुआ

 

तमाम उम्र गुज़ारेंगे किस तरह यारो

हमें तो साँस भी लेना यहाँ मुहाल हुआ

 

लिखा न जाएगा ख़त में ख़ुद आके देख लो तुम

तुम्हारे इश्क़ में जो भी हमारा हाल हुआ

 

हुनर नहीं ये हमारा अता ख़ुदा की है

कि शे'र जो भी कहा हमने बेमिसाल हुआ

 

ज़बाँ से कह न सके वो मगर सुना ये है

हमारे जाने का उनको बहुत मलाल…

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Added by Samar kabeer on July 24, 2021 at 6:30pm — 17 Comments

ग़ज़ल

12122, 12122



1)वो मिलने आता मगर बिज़ी था

मैं मिलने जाता मगर बिज़ी था

2)था इश्क़ तुझसे मुझे भी यारा

तुझे बताता मगर बिज़ी था

3)वो कह रहा था मदद को तेरी

ज़रूर आता मगर बिज़ी था

4)मैं दूसरों की तरह जहाँ में

बहुत कमाता मगर बिज़ी था

5)वो चाहती थी मना लूँ उसको

है सच मनाता मगर बिज़ी था

6)फ़लक से तेरे लिए यक़ीनन

मैं चाँद लाता मगर बिज़ी…

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Added by Md. Anis arman on July 23, 2021 at 8:07pm — 12 Comments

फ़र्ज़ ......

फ़र्ज़ ......

निभा दिया फ़र्ज़
संतान ने
भेजकर माँ - बाप को
वृद्धाश्रम

........................

आजकल फ़र्ज़ भी
निभाए जाते हैं
कर्ज़ की तरह

.........................

गुजर गए
गुजरना था उनको
जिन्दगी की आखिरी पायदान से
बदल कर
पुरानी नेम प्लेट अपने नाम से
निभा दिया फ़र्ज़
अपने वारिस होने का

सुशील सरना / 23-7-21

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Sushil Sarna on July 23, 2021 at 5:37pm — 2 Comments

मंज़िल की जुस्तजू में तो घर से निकल पड़े..( ग़ज़ल :- सालिक गणवीर)

221-2121-1221-212

मंज़िल की जुस्तजू में तो घर से निकल पड़े

काँटों भरी थी राह प बेख़ौफ़ चल पड़े (1)

भौहें तनीं थीं देख के मुझको ऐ दिल मेरे

कुछ ऐसा कर कि अब उसी माथे प बल पड़े (2)

हर रात जागता हूँ मैं बेवज्ह दोस्तो

उसकी भी नींद में किसी शब तो ख़लल पड़े (3)

सारे बुजुर्ग देख के ख़ामोश थे मगर

बच्चे तो देखते ही खिलौने मचल पड़े (4)

सोचा नहीं था ज़ीस्त ये दिन भी दिखाएगी

देखी जो शक्ल मौत की हम भी उछल पड़े…

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Added by सालिक गणवीर on July 23, 2021 at 12:30pm — 9 Comments

आत्म घाती लोग - लघुकथा -

आत्म घाती लोग - लघुकथा - 

मेरे मोबाइल की  घंटी बजी। स्क्रीन पर दीन दयाल का नाम था। मगर दीन दयाल का स्वर्गवास हुए तो दो साल हो गये।  उसके परिवार ने तो  कभी भी याद ही नहीं किया। आज अचानक कैसे याद आ गई।…

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Added by TEJ VEER SINGH on July 23, 2021 at 9:58am — 4 Comments

ग़ज़ल

221     2121     1221     212

रस्मो- रिवाज बन गयी पहचान हो गयी 

वो दिलरुबा थी मेरी जो भगवान हो गयी

मक़तल बना है शहर वो रफ्तार ज़िन्दगी,

मुश्किल हुई है जीस्त कि श्मशान हो गयी

हर शख्स वो अकेला ही दुनिया में आजकल,

क्या वो करें जो कह सकें गुलदान हो गयी

सुन राजदाँ बहुत हुई बेज़ार ज़िन्दगी,

कासिद नहीं आया जबाँ कान हो गयी 

जाहिल बने रईस वो हक़दार देश  के,

अब हार-जीत उनकी खुदा शान हो…

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Added by Chetan Prakash on July 22, 2021 at 7:30am — 1 Comment

उसके हिस्से में क्यों रास्ता कम है- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२/२१२/२१२ /२२

जिसका अपना यहाँ दायरा कम है

आसमाँ को भी  वो  मानता कम है।१।

*

मुझसे कहता है क्यों पूजता कम है

देख तुझ  में  भी  तो  देवता कम है।२।

*

जो  ठहरना  नहीं  चाहता  साथी

उसके हिस्से में क्यों रास्ता कम है।३।

*

बात औरों के सिर डालकर देखो

अपने  ईमान  को  तौलता कम है।४।

*

पास  बैठा  है  लेकिन  अबोला  ही

कौन कहता है अब फासला कम है।५।

*

हर बुराई …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 21, 2021 at 9:43am — 12 Comments

दोहे

कलयुग में ऋण के बिना, सरे न कोई काम।

बड़ी बड़ी जो हस्तियाँ , ऋण ले बनी तमाम ॥ 

टाँक पैबंद वस्त्र  में, तब ढकते थे लाज।

लोग प्रदर्शन कर रहे, उन्हें फाड़कर आज॥

मूर्ति मात्र साधन सदा, ध्यान लगाएँ नित्य।

निराकार ईश्वर सदा, देखता सबके कृत्य॥ 

मान पुरुष को दे भले, सामाजिक परिवेश।

घर पर तो चलता सदा, पत्नी का आदेश॥  

कर…

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Added by Om Parkash Sharma on July 21, 2021 at 12:00am — 5 Comments

दोहा त्रयी. . . .

अन्तस में नर्तन करें, विगत रैन के द्वन्द ।
मुदित नैन रचने लगे, प्रीत गंध के छन्द । ।

नैनों से नैना करें , गुपचुप- गुपचुप बात ।
रैन तिमिर में हो गए, अलबेले उत्पात ।।

थोड़े से इंकार थे, थोड़े से इकरार ।
भली  लगी संघर्ष में, भोली भाली हार ।।

सुशील सरना / 20-7-21

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Sushil Sarna on July 20, 2021 at 12:00pm — 10 Comments

ग़ज़ल

1212, 1122, 1212, 22

1)वो ऐसे लोग जो दुनिया से तेरी ग़ाफ़िल हैं

मेरी नज़र में वही आज सबसे आक़िल हैं

2)ये उसके सामने इक़रार करना चाहता हूँ

रक़ीब सारे मेरी जान मुझसे क़ाबिल हैं

3) हमारे मुल्क में है मसअला यही इक बस

पढ़े लिखे भी बहुत से यहाँ के जाहिल हैं

4)हकीम बेबसी मँहगी दवा सियासतदाँ

यही हैं वो जो मेरी ज़िन्दगी के क़ातिल हैं

5)मैं जिनके वास्ते दुनिया से लड़ने निकला हूँ …

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Added by Md. Anis arman on July 18, 2021 at 8:00pm — 8 Comments

ग़ज़ल-दिल दिया हमने

2122 1212 22

1

एक बेहिस को दिल दिया हमने

कह के अपना उसे ख़ुदा हमने

2

रहके तुमसे खफ़ा खफ़ा हमने

ख़ुद को बर्बाद कर लिया हमने…

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Added by Rachna Bhatia on July 15, 2021 at 7:12pm — 7 Comments

अभिव्यक्ति .......

अभिव्यक्ति ......

कैसे व्यक्त करूँ

अपने प्रेम की गहराई को

अभिव्यक्ति के अवगुंठन में

एक खीज है

तुम्हें छूने की

अबोले स्पर्शों से

कब तक लड़ूँ मैं

तुम ही कहो न

अपने प्रेम की गहराई को

कैसे व्यक्त करूँ मैं

हां! मैं तुम्हें प्यार करूँगी

भोर की उजास में

साँझ की प्यास में

तृप्ति की आस में

हर हलाहल पी जाऊँगी

मर के भी जी जाऊँगी

बस मेरी तन्हाई में

कुछ देर और जी जाओ

तुम ही कहो

तुम्हारे प्यार में आखिर…

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Added by Sushil Sarna on July 15, 2021 at 3:32pm — 10 Comments

ग़ज़ल

221, 2122, 221, 2122

1)इन आँसुओं की इक दिन तासीर बोल उठेगी

ग़म देख मेरा तेरी तस्वीर बोल उठेगी

2)जो हाल -ए -दिल हम अपना लिख दें कभी क़लम से

रोने लगेगा काग़ज़ तहरीर बोल उठेगी

3)ईमान पुख़्ता रख और हिम्मत से काम ले तू

फिर देख कैसे तेरी तक़दीर बोल उठेगी

4)पूछोगे प्यार से तुम जब हाल- ए- दिल हमारा

हर ज़ख़्म जी उठेगा हर पीर बोल उठेगी

5) इतना ग़लत भी मत कर ये इल्तिजा है तुझसे

वर्ना तू देख…

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Added by Md. Anis arman on July 15, 2021 at 10:50am — 4 Comments

दोहे

सासु यहाँ घर पर करे, अब बाई का काम।

बहू सुबह है निकलती, आती है फिर शाम॥

.

शिक्षा सारी व्यर्थ है, व्यर्थ समझ सब ज्ञान।

पदवी पा करता नही, मात पिता सम्मान।।

.

शिक्षा जिसमें सीख हो, और श्रेष्ठ संस्कार।

जीवन को उज्ज्वल करे, सिखलाए व्यवहार॥

.

मेघ छटे अब खिल गई, यहाँ सुनहली धूप।

धुली धुली सी लग रही। मोहक प्रकृति अनूप॥

 .

हम चिंता निज की…

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Added by Om Parkash Sharma on July 14, 2021 at 11:00pm — No Comments

सुलगते अँधेरे . . .

सुलगते अँधेरे  .......

न जाने आज

मन इतना उदास क्यों है

लगता है

स्मृतियों की सीलन से

मन की दीवारें

भुरभुरा सी गई हैं

यादों के पारदर्शी प्रतिबिम्ब

जैसे गिरती दीवारों पर

मन की बेबसी पर

अट्टहास लगा लगा रहे हों

कितनी ढीठ है

ये बरसाती हवा

जानती है मेरी आकुलता को

फिर भी मुझे छू कर

मुझसे मेरा हाल पूछती है

अब अच्छी नहीं लगतीं मुझे

आहटें

मन के वातायन पर गूँजती…

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Added by Sushil Sarna on July 13, 2021 at 8:00pm — 8 Comments

दोहे

(1)

ताला बंदी बाद अब, देखो थोड़ी छूट।

भीड़ दिखे अब शहर में, नियम रहे हैं टूट

(2)

घटा घिरी घनघोर अब, मन घट धरे न धीर।

आओ प्रियतम जल्द तुम, तभी मिटे मम पीर॥ 

( 3)

अन्य चुनावों से अधिक, रखना पड़े बचाव।

पंचायत के जब निकट, आने लगें चुनाव॥ 

(4)

अंकुश वाणी कलम पर, करें न अनुचित बात । 

इसमें ही जग का भला , यह ही जग विख्यात…

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Added by Om Parkash Sharma on July 12, 2021 at 9:30pm — 5 Comments

ग़ज़ल

11212     11212     11212    11212

तुम्हें कह चुका हूँ, मैं दोस्तो मेरे साथ आज बहार है !

है महर खुदा की वो आसरा सो खिवैया ही तो कहार है !

थी नहीं कभी रज़ा जिसकी होड़ - उड़ान में कभी ज़िन्दगी,

कहूँ कैसै वो रहा साथी मेरा जहाँ, सदा बारहा वो तो हार है !

न तुम्हें कोई भी है फिक्र गाँव- गली का वो न लिहाज़ है, 

न वो शर्म माँ कि न बाप की,  न तुम्हें जड़ों से ही प्यार है !

न वो मानता है किसी भी सोच को जानता नहीं मर्म…

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Added by Chetan Prakash on July 12, 2021 at 10:05am — No Comments

रात भर - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' (गजल)

२२१/२१२१/१२२१/२१२

आँखों में नींद ला के जगाती है रात भर

पाकर अकेला याद जो आती है रात भर।१।

*

कैसे हो चैन देह को मन को सुकून तब

शोलों सी चाँदनी ये जलाती है रात भर।२।

*

होने लगी है जुल्फ जो उसकी सफेद यूँ

आँखों के आँसुओं से नहाती है रात भर।३।

*

बजती हवा से दूर जो मंदिर की घन्टियाँ

आवाज दे के लगता बुलाती है रात भर।४।

*

आता है याद माँ का वो दामन हमें बहुत

जब रात सर्दियों  की सताती है रात…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 12, 2021 at 7:30am — 5 Comments

ग़ज़ल (मसनदों पर आज बैठे हो नहीं बैठोगे कल)

2122  -  2122  -  2122  -  212 

फ़ाइलातुन-फ़ाइलातुन-फ़ाइलातुन-फ़ाइलुन

(बह्र- रमल मुसम्मन् महज़ूफ़)



मसनदों  पर  आज  बैठे  हो  नहीं  बैठोगे  कल

फ़र्श  पर आ जाओ वैसे  भी यहीं  बैठोगे  कल

देना  होगा  पूरा-पूरा  साहिबो  तुमको   हिसाब

रू-ब-रू नज़रें  मिलाकर  यूँ  नहीं  बैठोगे  कल

आज तुम हो होगा कल हाकिम ज़माना देखना

जाग उट्ठा है बशर अब  छुप कहीं  बैठोगे  कल…

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on July 11, 2021 at 3:54pm — 8 Comments

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