पीड़ा तू आ
आ तेरा श्रृंगार करूँ
शब्दों के फूलों से
टूटे अंतरंगों को सजा लूँ
पीड़ा तू आ
तुझे हृदय में बसा लूँ
बौने मन की कद- काठी पर
प्रीत की लम्बी बेल चढ़ाई
लतर - चतर कर उलझ गई
ये कैसी मैने खेल रचाई
पीड़ा तू आ
तुझे पलकों पर बिठा लूँ
गर्द -गर्द धूमिल- सी चाँदनी
चाँद का रूप कितना मैला
रौंद कर सपनों को
टिड्डों का देखो दल निकला
पीड़ा तू आ
तुझे अधरों का सुख दूँ
सागर की उन्मुक्त लहरें…
Added by kanta roy on June 27, 2016 at 3:30pm — 20 Comments
Added by Mahendra Kumar on June 27, 2016 at 12:42pm — 6 Comments
“अम्मा हो सकता है कि पुलिस आपसे भी पूछताछ करे I आपको बस इतना कहना है कि मै तो हफ्ते भर पहले ही आई हूँ यहाँ , कुछ ज्यादा नहीं जानती और .." बेटा बोले जा रहा था पर सुमित्रा जी का दिमाग़ सुन्न था I
बेटे के यहाँ काम करने वाली बाई सीता ने कल रात पति से झगडे के बाद फाँसी लगा ली थीI
सुमित्रा जी दस दिन पहले ही बेटे के पास मुंबई आई थीं I बेटे बहू के काम पर जाने के बाद सीता के साथ सुख दुःख की बातें चलती रहती थीं उनकीI परसों बहू ने समझाया कि बाई से काम के अलावा ज्यादा बात चीत नहीं किया…
ContinueAdded by pratibha pande on June 27, 2016 at 10:30am — 16 Comments
१२२ १२२ १२२ १२२ नया दर्द कोई जगा भी नहीं है |
न करना अभी बंद अपनी ये पलकें |
मुसलसल धड़कता कहीं जिस्म में दिल … |
Added by rajesh kumari on June 27, 2016 at 10:30am — 17 Comments
बह्र : २१२ २१२ २१२ २१२
था हरा औ’ भरा साँवला कोयला
हाँ कभी पेड़ था, साँवला कोयला
वक्त से जंग लड़ता रहा रात दिन
इसलिए हो गया साँवला, कोयला
चन्द हीरे चमकते रहें इसलिये
जिन्दगी भर जला साँवला कोयला
खा के ठंडी हवा जेठ भर हम जिये
जल के विद्युत बना साँवला कोयला
हाथ सेंका किये हम सभी ठंड भर
और जलता रहा साँवला कोयला
चंद वर्षों में ये ख़त्म होने को है
ऐसे लूटा गया…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 27, 2016 at 10:16am — 16 Comments
................... कल से आगे
‘‘हाँ ऐसे ! बहुत सुन्दर कुंभकर्ण !’’ सुमाली रावण और कुंभकर्ण को योग का अभ्यास करवा रहा था। कुंभकर्ण को अभी यहाँ आये तीन साल ही हुये थे। इस समय वह 8 साल का हो गया था। वह अभी से शारीरिक रूप से चमत्कारिक रूप से वृहदाकार था। केवल वृहदाकार ही नहीं था, अविश्वसनीय बल का स्वामी भी था। अभी से वह अच्छे-भले मनुष्य को परास्त कर देने की सामथ्र्य रखता था। उसकी माता के लिये उसे गोदी में उठाना क्या हिलाना तक संभव नहीं था। स्पष्ट दिख रहा था कि आने वाले समय में उसके समान…
ContinueAdded by Sulabh Agnihotri on June 27, 2016 at 10:04am — 3 Comments
एक बहुत गरीब आदमी था। गाँव के लोगों के छोटे-मोटे काम करता रहता था , लोग जो दे देते उसी से अपने परिवार की गुजर बसर कर लेता था। गरीबी से परेशान फिर भी शांत। जीवन भी अनुभव के अलावा उसे कुछ दे नहीं रहा था। एक बार उसने सारा दिन गाँव के कुम्हार के घर काम किया। शाम को खुश होकर कुम्हार ने उससे कहा , जाओ एक बर्तन उठा लो , जो अच्छा लगे , जो तुम चाहो , बड़े से बड़ा।" पर उससे कुछ सोचते हुए एक छोटी सी गुल्लक उठाई। कुम्हार यह देख कर मुस्कुराया पर कुछ बोला नहीं। उसने कुम्हार को धन्यवाद दिया और अपने घर चला…
ContinueAdded by Dr. Vijai Shanker on June 27, 2016 at 9:30am — 17 Comments
" अरे साहब , क्या हो गया है तुमको , ऐसे जमीन पर ..... ! "
" कौन विमला ? इतने दिन कैसे छुट्टी कर ली तुमने .....आह ! मुझ बुढ़े का तो ख्याल करती "
" उठो ,चलो बिस्तर पर , ज्यादा बोलने का नही रे ! .... मेरा घर-संसार है । यहाँ काम करने से ज्यादा जरूरी है वो । "
" हाँ ,सही कहा , तुम्हारा अपना घर !"
" साहब ,एक बात कहूँ , अब तुम अकेले नहीं रह सकते हो , तुम्हारी बेटी को बुला लो "
" क्या कहा तुमने…
ContinueAdded by kanta roy on June 27, 2016 at 8:07am — 11 Comments
1- टूटता भ्रम
धराशायी हो जायेंगी आपकी धारणायें ,
छिन्न- भिन्न- सा होता प्रतीत होगा आपको
आपके रिश्तों का सच
एक बार , बस एक बार
उस झूठ के खिलाफ खड़े हो जाइये
डट कर चट्टान की तरह
जिसे बहुमत ने सच माना है
टूट जायेगा आपका भ्रम
आपके चारों तरफ भी भीड़ होने का
अपने पीछे अचानक प्रकट हुये शून्य को देख कर
ये बात और कि लड़ाइयाँ केवल इसीलिये नहीं लड़ी जातीं
कि , हम…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 27, 2016 at 6:30am — 17 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on June 26, 2016 at 6:00pm — 15 Comments
1212 212 122 1212 212 122
कभी हुयी थी निसार आंखे कभी बहारे हयात आई
नहीं दिखा फिर मुझे सवेरा सदैव हिस्से में रात आई
बहुत बटोरे थे स्वप्न आतुर बहुत सजाये थे ख़्वाब मैंने
मेरी मुहब्बत मेरी जिदगी विदा हुयी तब बरात आयी
घना तिमिर था न रश्मि कोई न सूझ पड़ता था पंथ मुझको
बिना रुके ही मैं अग्रसर था निदान मंजिल हठात आई
मुझे स्वयं पर रहा भरोसा नहीं जुटाये अनेक साधन
मुझे बनाने मुझे सजाने कभी-कभी…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 26, 2016 at 5:00pm — 12 Comments
जबतक तलाश थी सहारे की ऐ नादां !
तन्हा हमें यूँ छोड़, कारवां गुज़र गये...
अब हम सहारा खुद के जब से बना किए
हम एक हैं, पर देखो कन्धे अनेक हैं
कागज़ की नाव की क्या थी बिसात, तैरे
जबतक न हवाएं-लहरें हो साथ मेरे
तिनके भी आंधियों मे वृक्षों से ऊपर लहरें
नामुमकिन होता मुमकिन, जब वक्त लेता फेरे
रुक न पाया सफर ये चलता रहा है राही
पर साथ साथ बढ़ती राहों की भी लम्बाई
किससे करे वो शिकवे होनी कहाँ सुनवाई
मंज़िल की…
ContinueAdded by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on June 26, 2016 at 1:00pm — 5 Comments
1222 1222 1222 1222
तुम्हारी जान ले लेगी किसी भी रोज ये चुप्पी
चलो माना ये चुप रहने से हल होंगे कई मुददे
कि सारे राज खोलेगी किसी भी रोज ये चुप्पी
जो रखते हैं लगा के होंठ पे ताले रिवाजों के
जुबां से उनके बोलेगी किसी भी रोज ये चुप्पी
तमस की आँधियों ने बाग को बर्बाद कर डाला
नयन अपने भिंगोयेगी किसी भी रोज ये…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 26, 2016 at 10:00am — 9 Comments
कल से आगे ..........................
‘‘नहीं चाहिये मुझे आपसे न्याय।’’ महंत जी फुफकार उठे।
‘‘बैठ जाइये महंत जी।’’ कैकेयी के स्वर के तीखेपन से महंत जी सकपका गये, वे बैठ गये।
‘‘हाँ महामात्य जी आप आगे पूछिये।’’
‘‘हाँ तो क्या नाम बताया तुमने अपना ?’’
‘‘जी गोकरन।’’
‘‘तो गोकरन ! पकवान भी ऐसे ही बताये होंगे जो कभी तुम्हारी माँ ने देखे भी नहीं होंगे ?’’
‘‘जी महन्त जी ने ही हलवाई भेजे थे, उन्होंने ही बनाया था सब कुछ। मुझे तो बहुत सी चीजों के नाम ही नहीं…
Added by Sulabh Agnihotri on June 26, 2016 at 9:26am — No Comments
साहब ए इश्क़1 को अफ़गार2 किया है मैंने
बेवफ़ा सुन ले तुझे प्यार किया है मैंने
कोई सौदागर ए ग़म3 हो तो इसे ले जाये
दर्द ओ ग़म को सरे बाज़ार किया है मैंने
दिल की दहलीज़4 पे रख के तेरी यादों के चिराग
हर शब-ए-हिज़्र5 को गुलज़ार किया है मैंने
दर्द पिघले तो न बहने लगे आँखों से कहीं
दिल के ज़ख़्मों को ख़बरदार किया है मैंने
उसकी रुसवाई6 न हो…
ContinueAdded by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on June 26, 2016 at 1:30am — 5 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on June 25, 2016 at 10:00pm — 14 Comments
पथरीली ज़मीन ....
जाने क्यूँ
आजकल आईना
ख़फ़ा ख़फ़ा रहता है
चुपके चुपके
अजनबी सूरत से
जाने क्या कहता है
अब ख़ुद से मुझे
इक दूरी नज़र आती है
दूर कोई परछाईं
अधूरी नज़र आती है
कभी ये नज़र का धोखा
नज़र आता है
कभी कोई जा जा के
लौट आता है
क्यों ये बेसब्री ओ बेकरारी है
किसके लिए आँखों ने
तारे गिन गिन रात गुज़ारी है
मैं अपने साथ
कहां कुछ लाया था
उसकी याद
उसी मोड़ पे छोड़ आया था
किसे देखता मुड़ के…
Added by Sushil Sarna on June 25, 2016 at 4:46pm — 10 Comments
पोते को पूरे समय लेपटॉप के आगे आंखे गड़ाये देख शर्मा जी! को खासी चिंता होने लगी।लेकिन जब भी वो इस बारे मेंउससे कुछ बोलते, वो उखड़ के कहता-"दादाजी नेट पर जरूरी काम कर रहा हूँ, फालतू समय बरबाद नहीं।" परन्तु उसकी ये बात उन्हें तनिक भी मुतमईन ना कर पाती।तब उन्होंने अपने बेटे से इस बारे में बात की तो-
"अरे बाबूजी!आपको तो इस बात की ख़ुशी होना चाहिये, कि इंटरनेट से दिन बा दिन उसकी जानकारी का स्तर बढ़ रहा है और एक आप हैं कि...।"
"बेटा जानकारी होना अच्छी बात है परंतु उसकी कोई सीमा तो होनी…
Added by Rahila on June 25, 2016 at 1:00pm — 17 Comments
221 - 2121 -1221 -212
बिकने लगा शबाब मुहब्बत के शहर में,
रोके कोई शराब मुहब्बत के शहर में |
.
देखो गली-गली में हया छू रही ज़मीं,
कोई तो है नवाब मुहब्बत के शहर में |
धोखा है हर तरफ यूँ लगे फैलता ज़हर,
हालात हैं खराब मुहब्बत के शहर में |
रिश्तों के हो रहे यूँ कतल बेरुखी से क्यूँ .
जब से उठे नकाब मुहब्बत के…
Added by Harash Mahajan on June 25, 2016 at 12:00pm — 6 Comments
कल से आगे ................
‘‘घर तुमने किससे क्रय किया था ?’’
‘‘किसी से नहीं !’’
‘‘मतलब ? जब खरीदा नहीं था तो फिर तुम्हारा कैसे हो गया ?’’
‘‘पुरखों से मिला था। हम लोग कई पीढ़ियों से उसी में रह रहे हैं।’’
‘‘कितने लोग रहते हैं सब कुल उस घर में।’’
‘‘जी ... जी ... ?’’
‘‘अरे कितने लोग रहते हैं उस घर में ? सीधा सा तो प्रश्न है।’’
‘‘जी ! हम पति-पत्नी, हमारे तीन बेटे, तीन बहुयें, दो अनब्याही कन्यायें और ....’’ वह उँगलियों पर कुछ हिसाब जोड़ता रहा, फिर बोला -…
Added by Sulabh Agnihotri on June 25, 2016 at 9:40am — No Comments
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