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काँटा

मैं काँटा हूँ
जाने कितने काँटे चुभा दिये लोगों ने
मेरे बदन में अपने शूल शब्दों के
जमाने ने देखी तो सिर्फ
मुझसे मिलने वाली वेदना को देखा
मेरी तीक्ष्ण नोक को देखा…
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Added by Sushil Sarna on April 19, 2021 at 8:30pm — 4 Comments

यहाँ बस आदमी के भाव ही मंदे बहुत हैं - ग़ज़ल

मापनी  १२२२ १२२२ १२२२ १२२ 

 

धवल हैं वस्त्र, नीयत के मगर गंदे बहुत हैं 

चिरैया देख! दाने कम उधर फंदे बहुत हैं 

 

मचा है शोर मँहगाई का चारों ओर लेकिन 

यहाँ बस आदमी के भाव ही मंदे बहुत हैं 

 …

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Added by बसंत कुमार शर्मा on April 19, 2021 at 12:35pm — 4 Comments

कैसी विपदा कैसा डर

सुनसान सड़क, सुनसान रात है, सुनसान सबके अन्तर्मन

कैसे विपदा आन पड़ी ये, दुख, तड़प और है उलझन ||

 

चिराग भुझ रहे हर पल, हर क्षण, लगा दो चाहे तन, मन, धन

कड़ा समाधान न मिला अभी तक, जकड़ रहा है गहरा तम ||

 

भूख, प्यास और खाली है घर, रोजी रोटी भी हो गई बंद

वायु में जैसे विष घुला है, कैसा संकट ये कैसा कष्ट ||

 

हर पीड़ित अब यही पूछता, भूख लगने पर हो बंधन

पापी-खाली पेट तो मान रहा न, कैसे इच्छापूर्ति करेगा रंक ||

 

हाथ…

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Added by PHOOL SINGH on April 18, 2021 at 10:00am — No Comments

कहानी.........

कहानी ..........

पढ़ सको तो पढ़कर देखो

जिन्दगी की हर परत

कोई न कोई कहानी है

कल्पना की बैसाखियों पर

यथार्थ की हवेलियों में

शब्दों की खोलियों में

दिल के गलियारों में

टहलती हुई

कोई न कोई कहानी है

पत्थरों के बिछौनों पर

लाल बत्ती के चौराहों पर

बसों पर लटकी हुई

रोटी के लिए भटकी हुई

आँखों के बिस्तर पर बे-आवाज

कोई न कोई कहानी है

सच

पढ़ सको…

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Added by Sushil Sarna on April 16, 2021 at 5:09pm — 2 Comments

रश्मियाँ दिखतीं नहीं - ग़ज़ल

मापनी  २१२२ २१२२ २१२२ २१२ 

उपवनों में फूल कलियाँ तितलियाँ दिखतीं नहीं 

रोज कोयल खोजती अमराइयाँ दिखतीं नहीं 

 

हो गई आँखों से ओझल ऋतु बसंती प्यार की

तप रहा मन का मरुस्थल बदलियाँ दिखतीं नहीं

 

कौन सा यह आवरण ओढ़ा हुआ है आपने…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on April 16, 2021 at 1:19pm — 10 Comments

कुछ उक्तियाँ

कैसी फ़ितरत के लोग होते हैं ?

दूसरे की आँखों में धूल झोंकने हेतु

नम्बर वही मोबाइल पर

नाम कुछ और जोड़ लेते हैं

दुर्जनों के दुर्वचन

सहिष्णुता की परख होते हैं

अपनी नहीं खुद उनकी

औक़ात बता देते हैं

उनकी माँ नहीं थीं, मेरे पिता

वे मुझमें माँ ढूँढते रहे,मैं उनमें पिता

उन्हे ना माँ मिलीं, ना मुझे पिता

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Usha Awasthi on April 16, 2021 at 10:43am — 4 Comments

चेहरे पर मुस्कान बनाकर बैठे हैं (ग़ज़ल)

22 22 22 22 22 2

.

चेहरे पर मुस्कान बनाकर बैठे हैं

जो नकली सामान बनाकर बैठे हैं

दिल अपना चट्टान बनाकर बैठे हैं

पत्थर को भगवान बनाकर बैठे हैं

जो करते बातें तलवार बनाने की…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 14, 2021 at 9:30pm — 4 Comments

मन पर दोहे ...........

मन पर दोहे ...........

मन माने तो भोर है, मन माने तो शाम ।
मन के सारे खेल हैं, मन के सब संग्राम । 1।
हर मन को मिलता नहीं, मन वांछित परिणाम ।
मन फल की चिन्ता करे, मन अशांति का धाम ।2।…
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Added by Sushil Sarna on April 13, 2021 at 1:30pm — 6 Comments

अगर हक़ माँगते अपना कृषक, मजदूर खट्टे हैं (ग़ज़ल)

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२

अगर हक़ माँगते अपना कृषक, मजदूर खट्टे हैं

तो ख़ुश्बू में सने सब आँकड़े भरपूर खट्टे हैं

मधुर हम भी हुये तो देश को मधुमेह जकड़ेगा 

वतन के वासिते होकर बड़े मज़बूर, खट्टे…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 12, 2021 at 10:28pm — 7 Comments

कोरोना को हराना है।

हमने तो अब  ये ठाना है

कोरोना   को   हराना  है

अब  साथ  न  छूटेगा  ये 

वादा   हमें   निभाना   है

कोरोना   को   हराना  है... कोरोना को हराना है। 

जाना  हो   जब   ज़रूरी 

सबसे  दो  गज़  की  दूरी  

कर   हाथ    सेनिटाइज़्ड 

और मास्क भी लगाना है 

कोरोना   को    हराना  है... कोरोना को हराना है। 

बाहर  से  जब भी आओ

अच्छी     तरह    नहाओ

ज्वर, छींक हो या  खाँसी

डाॅक्टर को ही दिखाना है 

कोरोना   को   …

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on April 12, 2021 at 7:02pm — 6 Comments

नग़मा: इक रोज़ लहू जम जायेगा इक रोज़ क़लम थम जायेगी

22 22 22 22 22 22 22 22

इक रोज़ लहू जम जायेगा इक रोज़ क़लम थम जायेगी

ना दिल से सियाही निकलेगी ना सांस मुझे लिख पायेगी

जिस रोज़ नये लब गाएंगे जिस रोज़ मैं चुप हो जाऊंगा

इक चाँद फ़लक से उतरेगा इक रूह फ़लक तक जायेगी

फिर नये नये अफ़सानों में कुछ नये नये चहरे होंगे

फिर नये नये किरदारों के किरदार नये गहरे होंगे

फिर कोई पिरोयेगा रिश्तों को नये नये अल्फाज़ों में

फिर कोई पुरानी रश्मों को ढालेगा नये रिवाज़ों…

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Added by Aazi Tamaam on April 11, 2021 at 8:00pm — 7 Comments

गरीबी ........

गरीबी..........
कैसी होती है गरीबी
शायद
तिमिर के गहन आवरण को
भेदने में असफल होती
जुगनू की
क्षीण सी रोशनी…
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Added by Sushil Sarna on April 11, 2021 at 12:00pm — 4 Comments

लघुकथा-- नहले पर दहला

" कूड़े मल इस दुकान को मैंने खरीद लिया है, अब से एक हफ़्ते में खाली कर देना"

" क्या.... क्या बकवास कर ती हो, मैं कई वर्ष पुराना किरायेदार हूँ, मेरी रोज़ी - रोटी चलती है, यहाँ से! बिल्कुल खाली नहीं करूँगा" ! कूड़े मल कस्बे का बड़ा किराना व्यापारी था! बूढ़े, कमज़ोर राम आसरे का मूल किरायेदार था जिसको उसने किराया देना बंद कर दिया था! हारकर राम आसरे ने दबंग, झगड़ालू औरत सुनहरी देवी को आधी कीमत अग्रिम लेकर पावर आफ अटार्नी कर दी थी! 

कूड़े मल अब परेशान था! भागा-भागा अपने वकील साहब के…

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Added by Chetan Prakash on April 11, 2021 at 4:00am — 1 Comment

कौन आया काम जनता के लिए- लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२१२२/२१२२/२१२



कौन आया काम जनता के लिए

कह गये सब राम जनता के लिए।१।

*

सुख सभी रखते हैं नेता पास में

हैं वहीं दुख आम जनता के लिए।२।

*

देख पाती है नहीं मुख सोच कर

बस बदलते नाम जनता के लिए।३।

*

छाँव नेताओं  के हिस्से हो गयी

और तपता घाम जनता के लिए।४।

*

अच्छे वादे और बोतल वोट को

हो गये तय दाम जनता के लिए।५।

*

न्याय के पलड़े में समता है कहाँ

भोर नेता  साम …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 8, 2021 at 10:01pm — 3 Comments

नज़्म: मटर

ज़िंदगी भी मटर के जैसी है 

तह खोलो बिखरने लगती है

कितने दाने महफूज़ रहते हैं उन फलियों की आगोशी में

कुछ टेढ़े से कुछ बुचके से कुछ फुले से कुछ पिचके से

हू ब हू रिश्तों के जैसे लगते हैं

कुनबे से परिवारों से कुछ सगे या रिश्तेदारों से

पर सभी आज़ाद होना चाहते हैं कैद से

रिवायतों से बंदिशों से बागवाँ से साजिशों से

ज़िंदगी भी मटर के जैसी है

तह खोलो बिखरने लगती है

(मौलिक व अप्रकाशित) 

आज़ी तमाम

Added by Aazi Tamaam on April 8, 2021 at 2:00pm — 4 Comments

नज़्म: ख़्वाहिश

कोई ख़्वाब न होता आँखों में 

कोई हूक न उठती सीने में

कितनी आसानी होती 

या रब तन्हा जीने में

दिल जब से टूटा चाहत में

रिंद बने पैमानों के

ढलते ढलते ढल गई

सारी उम्र गुजर गई पीने में

यूँ ही सांसें लेते रहना

यूँ ही जीते रहना बस

हर दिन साल के जैसा 'गुजरा

हर इक साल महीने में

दुनिया डूबी लहरों में

हम डूबे यार सफ़ीने में

देखीं कैसी कैसी बातें

अज़ब ग़ज़ब दुनियादारी

वो कितने ना पाक…

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Added by Aazi Tamaam on April 8, 2021 at 11:30am — 2 Comments

अहसास की ग़ज़ल : मनोज अहसास

2122   2122   2122   212

इक न इक दिन आपसे जब सामना हो जाएगा ।

जो भरम दिल में बचा है खुद रिहा हो जाएगा ।

इतने बुत मौजूद है तेरे खुदा के भेष में,

सजदा करते-करते तू खुद से जुदा हो जाएगा ।

सब पुराने पेड़ों को गर काट दोगे तुम यूं ही,

घर सलामत भी रहा तो लापता हो जाएगा।

ढूंढना अब छोड़ दे उस तक पहुँच का रास्ता,

खुद को पाले तो तू खुद ही रास्ता हो जाएगा ।

छोड़ दूँ शेरों सुखन और तेरी यादों का सफर ,

ऐसा करने…

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Added by मनोज अहसास on April 8, 2021 at 12:14am — 3 Comments

ग़ज़ल: जैसे जैसे ही ग़ज़ल रुदाद ए कहानी पड़ेगी

2122 1122 2112 2122

जैसे जैसे ही ग़ज़ल रूदाद ए कहानी पड़ेगी

वैसे वैसे ही सनम दिल की फज़ा धानी पड़ेगी

रश्म हर दिल को महब्बत में ये उठानी पड़ेगी

दिल जलाकर भी कसम दिल से ही निभानी पड़ेगी

ख़ुश न होकर भी ख़ुशी दिल में है दिखानी पड़ेगी

कुछ न कहकर भी रज़ा दिल की यूँ सुनानी पड़ेगी

हुस्न वालो की सुनो ना ख़ुद पे भी इतना इतराओ

लम्हा दर लम्हा महंगी तुम्हें न'दानी…

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Added by Aazi Tamaam on April 7, 2021 at 3:00pm — 4 Comments

( बेजान था मैं फिर भी तो मारा गया मुझे......(ग़ज़ल :- सालिक गणवीर)

221 2121 1221 212

बेजान था मैं फिर भी तो मारा गया मुझे

कल घाट मौत के यूँ उतारा गया मुझे (1)

मैं जा रहा था रूठ के लेकिन सदा न दी

था सामने खड़ा तो पुकारा गया मुझे (2)

मैं एक साँस में कभी बाहर न आ सकूँ

दरिया में और गहरे उतारा गया मुझे (3)

अक्सर यही हुआ है मैं जब भी दुरुस्त था

बिगड़ा नहीं था फिर भी सुधारा गया मुझे (4)

देता रहूँ सबूत मैं कब तक वज़ूद का

हर बार हर क़दम पे नक़ारा गया मुझे…

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Added by सालिक गणवीर on April 7, 2021 at 1:51pm — 9 Comments

हमने कहीं पे लौट आ बचपन क्या लिख दिया-लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२२१/२१२१/१२२१/२१२



हमने कहीं पे लौट आ बचपन क्या लिख दिया

बोली जवानी क्रोध  में दुश्मन क्या लिख दिया।१।

*

घर के बड़े  भी  काट  के  पेड़ों  को  खुश हुए

बच्चों ने चौड़ा चाहिए आँगन क्या लिख दिया।२।

*

तस्कर तमाम  आ  गये  गुपचुप  से  मोल को

माटी को यार देश की चन्दन क्या लिख दिया।३।

*

आँखों से उस की धार  ये  रुकती नहीं है अब 

भाता है जब से आपने सावन क्या लिख दिया।४।

*

वो  सब  विहीन  रीड़  के  श्वानों  से  बन …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 7, 2021 at 1:00pm — 10 Comments

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