मापनी २१२२ २१२२ २१२२ २१२
उपवनों में फूल कलियाँ तितलियाँ दिखतीं नहीं
रोज कोयल खोजती अमराइयाँ दिखतीं नहीं
हो गई आँखों से ओझल ऋतु बसंती प्यार की
तप रहा मन का मरुस्थल बदलियाँ दिखतीं नहीं
कौन सा यह आवरण ओढ़ा हुआ है आपने
सुन न पाते सिसकियाँ, दुश्वारियाँ दिखतीं नहीं
चमचमाते हैं महल सब, जगमगाता हर शिखर
तलहटी में ही मुझे ये रश्मियाँ दिखतीं नहीं
काव्य सरिता बह रही है बंधनों को तोड़कर
कथ्य अनगढ़, भाव में गहराइयाँ दिखतीं नहीं
जब उजाले पास थे तब एक लश्कर साथ था
है अँधेरा आज तो परछाइयाँ दिखतीं नहीं
छुट्टियाँ ननिहाल की. वो ताल, पनघट, मस्तियाँ
अब कहीं वो सर्दियाँ वो गर्मियाँ दिखतीं नहीं
"मौलिक एवं अप्रकाशित "
Comment
आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' जी सादर नमस्कार
आपकी हौसला अफजाई के लिए दिल से शुक्रिया
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब, ख़ूबसूरत ग़ज़ल पेश की है आपने दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ। सादर।
आ. भाई बसंत जी, सादर अभिवादन । बहुत ही मनभावन गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय Aazi Tamaam जी सादर नमस्कार
आपकी हौसलाफजाई के लिए दिल से शुक्रिया
अच्छी ग़ज़ल हुई है बेहद मधुर लयबद्ध किया गया है
सादर प्रणाम आदरणीय बसंत जी
बधाई स्वीकारें
आदरणीया Rachna Bhatia जी सादर नमस्कार एवं प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार नमन
आदरणीय Chetan Prakash जी, सादर नमस्कार , आपकी प्रेरक प्रतिक्रिया और सुझाव को सादर नमन - बसंत
वाह वाह वाह
बेहतरीन ग़ज़ल हुई। आदरणीय बसंत कुमार शर्मा जी हार्दिक बधाई।
बंधुवर, बसंत कुमार शर्मा जी अच्छी हिंदी ग़ज़ल हुई है! 'तलहटी में मुझे 'ये' रश्मियाँ दिखती नहीं ' यहाँ 'ये' के स्थान पर, सर्वनाम 'वो' होना चाहिए ! सार्थक ग़ज़ल हेतु बधाई, भाई!
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