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देश की संस्कृति

संस्कृति देश की है प्राचीनतम,

यह कथा गल्प अथवा कहानी नहीं

है ये अविराम थोड़ा लचीली भी है

पर पयस है महज स्वच्छ पानी नहीं

यह पली है सहनशीलता धैर्य में 

ऐसी उद्दाम कोइ रवानी नहीं

हैं उदात्त हम तो ग्रहणशील भी

और अध्यात्म की कोई सानी नही  

    

दूर भौतिक चमक से रहे हम सदा

ऐसी धरती कहीं और धानी नही

दे  गए पूर्वज जो हमें सौंपकर

वैसी अन्यत्र जग में निशानी नहीं

वन्दे मातरम् I     {मौलिक व…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 9, 2020 at 8:30am — 2 Comments

रखकर जो नाम राम का -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/२२२/१२१२

**

जो भी वतन में दोस्तो दिखते कलाम हैं

हर वक्त उसकी शान में कहते सलाम हैं।१।

**

दुत्कार उनको हम रहे केवल सुनो यहाँ

जयचन्दी नीयतों में  जो  रहते इमाम हैं।२।

**

उनका भी मान है  नहीं  केवल लताड़ है

रखके जो नाम राम का रावण से काम हैं।३।

**

नेता  सभी  हैं  एक  से  जो  फूट चाहते

समझेंगे क्या कभी इसे जो लोग आम हैं।४।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 8, 2020 at 4:48am — 8 Comments

नया साल चढ़ा है

नया साल चढ़ा है

कुछ बुदबुदाता हुआ

आया है नया साल

ओढ़े बबूलपन के संग

बुद्धी की सचाई की

मुरझाई पुष्पलता

हो सकता है यह पहनावा

नया…

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Added by vijay nikore on February 6, 2020 at 6:30am — 4 Comments


मुख्य प्रबंधक
दो क्षणिकाएँ (गणेश जी बाग़ी)

दो क्षणिकाएँ

========

(1) थप्पड़

मुझे पता भी न था

उस शब्द का अर्थ

गुस्से में किसी को बोल दिया था

'साला....'

गाल पर झन्नाटेदार थप्पड़ के साथ

माँ ने समझाया था

गाली देना गंदी बात !

काश,

उनकी माँ ने भी

लगाया होता

थप्पड़

तो आज...

नहीं देते वे

माँ, बहन को इंगित

गालियाँ ।



(2) बारुद

उनको दिखाई देता है

बारूद

मेरी दीया-सलाई की काठी में,

जिससे जलता है

हमारे घर का…

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 5, 2020 at 8:30am — 5 Comments

राजनीति की धार हमेशा -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल)

२२२२/२२२२/२२२२/२२२



हर शासन अब गद्दारों को यार बहुत हितकारी है

जो करता है बात देश की उसको बस लाचारी है।१।

**

सर्द हवाओं के चंगुल में ठिठुराती आशाएँ बैठी 

सुन्दर सपनों की खेती पर पाला पड़ता भारी है।२।

**

पहले लगता था हम जैसा गम का मारा कोई नहीं

पर जब देखा पाया दुनिया हमसे भी दुखियारी है।३।

**

तुमको भी पत्थर आयेंगे वक्त जरा सा…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 3, 2020 at 5:30am — 4 Comments

वो एक नींद ही तो थी

वो एक नींद ही तो थी

कि जिसमे

मै जाग रहा था /

सपने

तितलियों से कोमल

हथेलिओं की कोटर में

छुपा कर

चला था मैं

कि

बिखेर दूंगा इन रंगों को

चुपचाप

आसमान के कोने कोने में,

और चल दूंगा

अपने झोले में

कुछ मुस्कुराहटें

कुछ खुशियां

कुछ उम्मीदें

कुछ शरारतें लेकर

एक खुशनुमा सफर पर

एक बंजारे सा भटकता हुआ

गांव - गांव

शहर - शहर

कि

शायद मेरा होना

किसी के होठों की…

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Added by ARVIND BHATNAGAR on February 2, 2020 at 3:30pm — 4 Comments

आँख-मिचौनी

आँख-मिचौनी

साँझ के रंगीन धुँधलके ...

आँख-मिचोनी खेलते

एक दूसरे को टटोलते

मद्धम रोशनी में उभरती रही

कोई पवित्र विलुप्त लालसा

आवेगों में खो जाने की…

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Added by vijay nikore on February 2, 2020 at 2:30pm — 4 Comments

ग़ज़ल

फाइलुन फाइलुन फाइलुन

212 212 212

हम हैं नाकाम-ए-राह-ए-वफ़ा

काम आई तेरी बद-दुआ ।

इश्क़ की है अभी इब्तिदा ,

यार मुझ को न तू आज़मा।

रात भर जागता रहता है,

चाँद क्यों इतना है ग़म-ज़दा ।

वो पता पूछे तो बोलना

"कुछ दिनों से हूँ मैं लापता"

आखरी बार मुझ से मिलो ,

आखरी बार है इल्तिजा ।

अब नही देखता तुझ को मैं,

रायगाँ है सवरना तेरा ।

जा रहा हूँ तेरे दर से मैं

दिलरुबा ग़म छुपा,,मुस्कुरा |

- शेख ज़ुबैर अहमद

(मौलिक…

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Added by Shaikh Zubair on February 1, 2020 at 4:33pm — 4 Comments


मुख्य प्रबंधक
अतुकांत कविता : आजादी (गणेश बाग़ी)

प्रधान संपादक, आदरणीय योगराज प्रभाकर जी की टिप्पणी के आलोक में यह रचना पटल से हटायी जा रही है ।

सादर

गणेश जी बाग़ी

Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 1, 2020 at 9:30am — 30 Comments

अहसास की ग़ज़ल-मनोज अहसास

2122   2122     2122     212

जब सफलता मिल गई खुद का किया लिक्खा गया,

अपनी हारों को खुदा का फैसला लिक्खा गया।

आपके शफ्फाक दामन को बचाने के लिए,

कत्ल मुझ बदबख्त का इक हादसा लिक्खा गया।

दर ब दर होते रहे वो सारे खत खुशियों भरे ,

जिन पर तेरा नाम और मेरा पता लिक्खा गया।

चार भाई साथ रहकर कितने खुश थे हम कभी,

टूटकर बिखरे तो फिर दिल भी जुदा लिक्खा गया।

अब हमारी जिंदगी में एक उलझन ये भी है,

उसके दिल में…

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Added by मनोज अहसास on February 1, 2020 at 12:07am — 2 Comments

आखिरी ख़्वाहिश

देख लोगो को रोते हुए

ज़ोर से लाश एक हँस पड़ी

जीते जी तो जीने दिया ना

गुस्से में वो बिफर पड़ी ||

खरी-खोटी मुझे रोज सुनाते

तनिक भी ना परवाह थी

दिल पे मेरी क्या गुजरती

घुट-घुट के मैं रोती थी ||

खुदा बक्शे अगर, जिंदगी

औकात दिखा दे अभी सभी

घड़ियाल से आँसू जो बहाते

असलियत आ जाए सामने अभी ||

भूल जायेंगें कुछ ही दिन में

याद ना आयें मेरी कभी

अच्छी-बुरी मेरी बातें कर

सहानुभूति…

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Added by PHOOL SINGH on January 31, 2020 at 5:00pm — 2 Comments

अहसास की ग़ज़ल-मनोज अहसास

221  2121   1221  212

दिल से सवाल होठों से ताले नहीं गए.

दुनिया के ज़ुल्म खाक में डाले नहीं गए

.

जिस दिन से इंतज़ार तेरा दिल से मिट गया,

उस दिन से मेरे दिल में उजाले नहीं गए.

अपनी समझ से कैसे बने बच्चों का वजूद,

अपनी समझ से शेर तो ढाले नहीं गए.

कल रात उसने ख़्वाब में आकर कहा मुझे,

रिश्तें तो आपसे भी संभाले नहीं गए.

बरसों पुरानी बातों ने दिल को जकड़ लिया,

कुछ दोस्त जिंदगी से निकाले नहीं…

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Added by मनोज अहसास on January 31, 2020 at 12:07am — 1 Comment


मुख्य प्रबंधक
अतुकांत कविता : प्रगतिशील (गणेश जी बागी)

अतुकांत कविता : प्रगतिशील

अकस्मात हम जा पहुँचे

एक लेखिका की कविताओं पर

जिसमे प्रमुखता से उल्लेखित थे

मर्द-औरत के गुप्त अंगों के नाम

लगभग सभी कविताओं में...

पूरी तरह से किया गया था निर्वहन

उस परंपरा को

जहाँ दी जाती हैं गालियाँ

समूची मर्द जाति को

एक ही कटघरे में खड़ा कर

प्रस्तुत किया जाता है विशिष्ट उदाहरण

चंद मानसिक विक्षिप्तों…

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 30, 2020 at 7:30pm — 6 Comments

कुछ क्षणिकाएँ :

कुछ क्षणिकाएँ :



इतना तो न था

खालीपन

तुम्हारी मिलने से पहले

जितना हो गया

तुम से बिछुड़ने के बाद

ख़्वाबों की ज़मीन पर

अहसासों की ओस

पिघल गयी

तुम्हारी यादों से



......................

प्रयास

क्षितिज छूने का

विशवास

झूठे वादों का

प्यास

मरीचिका सी



.......................



माह

बदलते -बदलते

आ जाता है

कैलेंडर का अंतिम माह

अर्थात

वर्ष का चरम

और होते होते

हो जाता… Continue

Added by Sushil Sarna on January 30, 2020 at 4:00pm — 4 Comments

समय के साय

समय के साय

समय पास आकर, बहुत पास 

कोई भूल-सुधार न सोचे

अकल्पित एकान्तों में सरक जाए

झटकारते कुछ धूमैले साय अपने 

गहरे,  कहीं गहरे बीच छोड़ जाए

कुछ ऐसे घबराय बोझिल…

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Added by vijay nikore on January 30, 2020 at 2:30pm — 4 Comments

जे पी सरीखे नेता - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' (गजल)

२२१/२१२२/२२१/ २१२२

किस काम के हैं नेता किस काम का ये शासन

इनके रहे  वतन  में  जब  नित्य  होनी अनबन।१।

**

किस बात से हैं  सेवक  कहते  पहन के खादी

निर्धन के घर  अगर  ये  डलवा  न पाये राशन।२।

**

अंग्रेज  थे  बुरे  या   चम्बल   के   चोर   डाकू

गर जो हो लूट खाना भर  देश का ही जनधन।३।

**

किस बात की हो चिन्ता  किस बात से परेशाँ

मथकर के दे रही  है  जनता इन्हें तो…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 30, 2020 at 4:38am — 2 Comments

अहसास की ग़ज़ल-मनोज अहसास

2122    2122    2122   212

महकते अल्फाज़ जैसे अब शरारे हो गए

वक़्त की गर्दिश में शामिल ख़त तुम्हारे हो गए

जिंदगी की उलझनों ने जेहन को घेरा है यूं

तेरी यादों के मरासिम खुद किनारे हो गए

शायरी, सिगरेट, तंबाकू ज़िन्दगी भर की तड़प

एक सहारा क्या गया कितने सारे हो गए

पहले एहसास ओ सुखन में इश्क थे कायम सभी

ओढ़कर जिस्मों को ही अब इश्क़ सारे हो गए

बागवां से जिंदगी का ये सबक सीखा हूं मैं

फूल खिल जाने पर…

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Added by मनोज अहसास on January 29, 2020 at 9:00am — 1 Comment

माँ के न हो जाने के बाद

माँ के होने और अचानक
 माँ के न होने जाने के बाद  
महज एक शब्द का अंतर नहीं हो जाता 
माँ का होना होता रहा होता था क्या 
एकदम समझ में आने लग जाता है 
माँ के न होने जाने के बाद 
 लगभग वैसे ही 
जैसे सूरज के होने में लगता ही नहीं
सूरज का होना कितनी बड़ी …
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Added by amita tiwari on January 29, 2020 at 1:30am — 1 Comment

क्यों कर्तव्य निभाएँ हम ?

शब्दों का है खेल निराला

आओ हम खिलवाड़ करें

गढ़ आदर्श वाक्य रचनाएँ

क्यों उन पर हम अमल करें ?

दूजों को सीखें देकर, है

उन्हे मार्ग दिखलाएँ हम

निज कर्मों पर ध्यान कौन दे ?

अपना मान बढ़ाएँ हम

अपने घर का कूड़ा करकट 

अन्यों के घर में डालें

बन नायक अभियान स्वच्छता

अपना अभिमत ही पालें

सरिया ,गारा , मिट्टी , गिट्टी

ढेर लगाएँ राहों  पर

चलें फावड़े , टूट-फूट का दोष

धर रहे निगमों…

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Added by Usha Awasthi on January 28, 2020 at 6:14pm — 2 Comments

बिन तेरे

तेरे बिन है घर ये सूना
मेरे मन का कोना सूना
समझो ना ये चार दिनो का
प्यार हमारा काफ़ी जूना*!

घर क़ी देहरी कैसे ये लांघूँ
मैं छलना ना ख़ुद को जानूं
लोगों का तो काम है कहना
मैं तुमको बस अपना मानूं! !

मुझे आस तुम्हारे मिलने क़ी है
और साथ में चलने क़ी है
तब ये सूनापन ना अखरे
बात नज़रिया बदलने क़ी है! !


* पुराना (मराठी शब्द)
- प्रदीप देवीशरण भट्ट - 28:01:2020

मौलिक व अप्रकाशित

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 28, 2020 at 3:30pm — 1 Comment

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