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खिड़की के उस तरफ

इक छोटा सा पंछी मेरे कमरे की खिड़की के बराबर से गुजरते तारों पे बैठा रहता है दिनभर

हर वक्त मौन सा रहता,

निहारता सामने के बागों को,

इमारतों पे सर पटकती किरणों को,

परदेसी पवन के झोकों को हरे वृक्षों से आलिंगन करते हुए ..



कभी कभी जो में खिडकी के पास आता हूँ उसे देखने, तो वो मेरी तरफ मुड़कर बैठ जाता है

लगता है जैसे अपनी शांत आखों से मेरे अशांत चित्त को देखकर कह रहा हो

के तुम भी हो कुछ मेरे जैसे वहाँ खिड़की के उस तरफ

फर्क है इतना के तुम हो अपने में ही उलझे… Continue

Added by Bhasker Agrawal on May 6, 2011 at 5:07pm — 2 Comments

मेरे आत्मीय बाबा नागार्जुन .....[महेंद्रभटनागर]

मेरे आत्मीय बाबा नागार्जुन 

[महेंद्रभटनागर]

बाबा नागार्जुन (मैथिली भाषा के कवि ‘यात्री’ / घर का नाम — वैद्यनाथ मिश्र) का जन्म सन् 1911; ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा (जून) के दिन बताया जाता है।…

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Added by MAHENDRA BHATNAGAR on May 6, 2011 at 10:30am — 2 Comments

nishana dikhata hai

इक पल जीना इक पल मरना दिखता है 
मेरा गिरना और संभलना दिखता है
 
इक बूढ़े चेहरे को पढ़ना आये तो
हर झुर्री में एक जमाना दिखता है
 
जब कोई गुलशन की बातें करता है
मुझ को बस इक नया बहाना दिखता है
 
एक कहानी नानी की सुन जो सोता 
उसे ख्वाब में एक खज़ाना दिखता है
 
बिस्तर की सलवट को कितना ठीक करो 
जब चादर का रंग पुराना दिखता…
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Added by ASHVANI KUMAR SHARMA on May 6, 2011 at 10:06am — No Comments

वामन वृक्ष

वामन वृक्ष 
यूं तो वामन वृक्षों मैं भी
उगते हैं फल फूल और पत्ते 
पर उनमें लहलहाते वृक्षों से उपजे
फल फूलों की सहजता और सरसता कहाँ
कब हैं वो उन्हें  सा महकते
वक़्त से पहले
गर बेटी को ब्याहोगे
 उसका विकास रोक  कर
क्या खुद  सुकून पाओगे
सींचो उस नन्ही बेल को
अपने स्नेह की शीतल छाया से
पोषण दो उसे 
शिक्षा और संस्कार का
पूर्ण रुपें…
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Added by rajni chhabra on May 4, 2011 at 3:00pm — 2 Comments

मुक्तिका: मैं --- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

मैं
संजीव 'सलिल'
*
पुरा-पुरातन चिर नवीन मैं, अधुनातन हूँ सच मानो.
कहा-अनकहा, सुना-अनसुना, किस्सा हूँ यह भी जानो..



क्षणभंगुरता मेरा लक्षण, लेकिन चिर स्थाई हूँ.

निराकार साकार हुआ मैं वस्तु बिम्ब परछाईं हूँ.



परे पराजय-जय के हूँ मैं,…
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Added by sanjiv verma 'salil' on May 3, 2011 at 2:01pm — 5 Comments

व्यंग्य - पदपूजा का आभामंडल

पदपूजा का आभामंडल हर किसी को भाता है। जिसे देखो, वह पद के पीछे, अपना पग हमेशा आगे रखना चाहता है। मैं तो यह मानता हूं कि जिनके पास कोई बड़ा पद नहीं है, समझो वह कुछ भी नहीं है। उसकी औकात उतनी है, जितनी सरकार की उंची कुर्सी में बैठे सत्तामद के मन में, जनता की है। पदपूजा की कहानी देखा जाए तो काफी पुरानी है। ऐसा लगता है, जैसे पद पूजा की परिपाटी कभी खत्म नहीं होने वाली है। पद का गुरूर भी बड़ा अजीब है, किसी को कोई बड़ा पद मिला नहीं कि वह सातवें आसमान में हवाईयां भरने लगता है। वह सोचता है, जैसे दुनिया… Continue

Added by rajkumar sahu on May 3, 2011 at 1:39am — No Comments

जो माया बंधन में भटका ,

जो माया बंधन में भटका ,
उनके वश में कुछ नहीं रहता ,
जो माया वश में रहते हैं ,
बिन बिचारे बात कहत हैं ,
जो अज्ञान रूपी मदिरा पिया ,
गए तुम भी जो वचन ध्यान दिया ,
सगुण अगुण में नहीं भेद है ,
ज्ञानी पंडित वेद कहे हैं ,
रवि गुरु जो कुछ भूल बोले ,
ध्यान न देना यही कहत हैं ,

Added by Rash Bihari Ravi on May 2, 2011 at 1:45pm — No Comments

खर्चा बचाऊंगा

खर्चा बचाऊंगा



श्री ओसामा बिन लादेन जी मारे गए

कल में जन्मदिन हरगिज़ न मनाऊंगा

इस कुकर्मीं की ही आड़ में ही

जन्मदिन की पार्टी का खर्चा बचाऊंगा

महंगाई के इस दौर में

मुझे अच्छा बहाना मिल गया

वह ख़ूनी,दरिंदा,पापी सही

पर मेरा काम तो कर गया

जीते जी तो यह मेरे काम न आया

मरकर भला कर गया मेरा

हज़ार दो हज़ार की बचत हो गई

पार कर गया बेहड़ा

सही वक़्त पे मरा बेचारा

अमेरिका खुशियाँ मनायेगा

पाकिस्तान का हाल अब

बकरे जैसी हो… Continue

Added by Deepak Sharma Kuluvi on May 2, 2011 at 10:39am — No Comments

मुक्तिका: मौन क्यों हो? संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
मौन क्यों हो?
संजीव 'सलिल'
*
मौन क्यों हो पूछती हैं कंठ से अब चुप्पियाँ.
ठोकरों पर स्वार्थ की, आहत हुई हैं गिप्पियाँ..
 
टँगा है आकाश, बैसाखी लिये आशाओं की.
थक गये हैं हाथ, ले-दे रोज खाली कुप्पियाँ..
 
शहीदों ने खून से निज इबारत मिटकर लिखी.
सितासत चिपका रही है जातिवादी चिप्पियाँ..
 
बादशाहों को किया बेबस गुलामों ने 'सलिल'
बेगमों…
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Added by sanjiv verma 'salil' on May 1, 2011 at 5:13pm — No Comments

घर की खुशबू कुरान जैसी है

ख्वाब उनमें नहीं अब पलते हैं
उसकी आंखें चिराग़ जैसी हैं

उसकी आंखों में है जहां का ग़म
उसकी किस्मत खुदा के जैसी है

कहने को तो दुनिया भी एक महफिल है
इसकी सूरत बाजार जैसी है

हरेक घर को इबादत की नजर से देखो
घर की खुशबू कुरान जैसी है

जबसे आया हूं होम करता रहा हूं
जिन्दगी हवन कुंड के जैसी है



- आकर्षण कुमार गिरि

Added by Aakarshan Kumar Giri on April 30, 2011 at 1:00pm — 2 Comments

कविता :- श्रम को सलाम है !

कविता :- श्रम को सलाम है !

छेनियों हथौडियो की चोट को

उस ओट को सलाम है…

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Added by Abhinav Arun on April 29, 2011 at 10:30pm — 9 Comments

अभी अभी एक ख्याब चूर हुआ हैं......................

अभी अभी एक ख्याब चूर हुआ हैं
बो शक्स जो अज़ीज है, दूर हुआ हैं

मैं समझता हू वो मजबूर ही होगा
लोग कहतें हैं के उसें गुरूर हुआ हैं

अब भी उम्मीद हैं मुझें तेरे आनें की
महोब्बत का बुरा हश्र जरूर हुआ है

लुट के जिसनें कुछ नहीं पाया
प्यार में बो ही तो मशहूर हुआ हैं

तन्हा है 'अमि' फ़िर एक बार दुनियां में
दर्द तो इस बार भी भरपूर हुआ है
-अमि'अज़ीम'

Added by अमि तेष on April 29, 2011 at 9:49am — No Comments

कस्तूरी मृग

कस्तूरी की गंध
खुद  मैं सहेजे
भ्रमित,
 भटक रहा था
कस्तूरी मृग
आनंद का सागर 
खुद मैं समेटे 
कदम
भटक रहें थे
दसों दिग्
रजनी छाबरा

Added by rajni chhabra on April 27, 2011 at 10:30pm — 5 Comments

कविता : लोकतंत्र का क्रिकेट

बड़ा अजीब खेल है लोकतंत्र का क्रिकेट

एक गेंद के पीछे ग्यारह सौ मिलियन लोग

उछल कर, गिर कर

झपट कर, लिपट कर

पकड़नी पड़ती है गेंद

कभी जमीन से, कभी आसमान से

जिसकी किस्मत अच्छी हो उसी को मिलती है गेंद



और बल्लेबाज

उसे तो मजा आता है क्षेत्र रक्षकों को छकाने में

अगर किसी तरह सबने मिलकर

बल्लेबाज को आउट कर भी दिया

तो फिर वैसा ही नया बल्लेबाज

उसका भी लक्ष्य वही

अगर पूरी टीम आउट हो गई

तो दूसरी टीम के बल्लेबाजों का भी लक्ष्य वही

सबसे ज्यादा पैसा… Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 27, 2011 at 10:20pm — 3 Comments

~हिंसा~

यूँ तो 

बहुत पहले से 
रखी थी 
वह किताब शेल्फ में
उठा कर…
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Added by AjAy Kumar Bohat on April 27, 2011 at 4:30pm — 4 Comments

ऐसा भी एक मन्ज़र...

 

पैगाम लिए पंछी चल दिए सुबह को बुलाने ,
बांसुरी से गुजरती शीतल हवा कुछ गुनगुनाई |
 
पीली धूप पहन किरणों ने झाँका आसमान से ,
बाहें फैलाकर मौसम ने फिर ली अंगड़ाई |
 
सिमटने लगी रज़ाई…
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Added by Veerendra Jain on April 27, 2011 at 12:15pm — 9 Comments

समाज

अखब़ार का एक टुकड़ा
बाहर से जला हुआ,
और राख़ वाली परिधि के दरमयां
सिर्फ़ तुम्हारा ज़िक्र.
हुमाद की वही खुशबू,
जिसका कोई आकार नहीं, 
जिसकी कोई दिशा नहीं;
ठंडी आवाज़ में बजती घंटियों सा चमकता है,
दीया और पुष्प जैसा नदियों में बिख़र जाता…
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Added by Rahul Raj on April 26, 2011 at 9:30pm — 1 Comment

सुर्ख लाल जोड़े में सजी वो जान मेरी

सुर्ख लाल जोड़े में सजी वो जान मेरी

रस्मो को आज निभाने चली है

सीने में मेरी मुहब्बत को दफना कर

रिश्तो की लाज बचाने चली है



मेंहदी से सजा के वो सुर्ख हथेली

दिल के दर्द छुपा तो वो लेगी

होठो पे लाली लगा कर के अपने

गले की हिचकियाँ छुपाने चली है



फेरे जो लेगी वो वेदी पे उस पल

सपनों को अपने जलाती चलेगी

हर ख्वाब जो कभी सजाये थे उसने

वेदी के अग्नि में चढाने चली है



फूलो से सजे उस सुहाग के सेज पे

सपनों की चिता जलाने चली… Continue

Added by Dheeraj on April 26, 2011 at 5:00pm — 2 Comments

मुक्तिका : माँ _संजीव 'सलिल'

मुक्तिका "माँ"

संजीव 'सलिल'

*

बेटों के दिल पर है माँ का राज अभी तक.

माँ के आशिष का है सिर पर ताज अभी तक..



प्रभू दयालु हों इसी तरह हर एक बेटे पर

श्री वास्तव में माँ है, है अंदाज़ अभी तक..



बेटे जो स्वर-सरगम जीवन भर गुंजाते.

सत्य कहूँ माँ ही है उसका साज अभी तक..



बेटे के बिन माँ का कोई काम न रुकता.

माँ बिन बेटों का रुकता हर काज अभी तक..



नहीं रही माँ जैसे ही बेटा सुनता है.

बेटे के दिल पर गिरती है गाज अभी तक..…

Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on April 26, 2011 at 2:00pm — 1 Comment

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