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March 2015 Blog Posts (229)

वो वायदे गिनने लगे हैं आज कल...

२२१२ २२१२ २२१२

खामोश से रहने लगे हैं आजकल ॥

हम रात भर जगने लगे हैं आजकल ॥

इन महफ़िलों को क्या हुआ किसको पता ,

सब  चेहरे ढलने लगे है आजकल ॥

सदियों से लूटा है खुदा के नाम पे ,

तो कब नया ठगने लगे है आज कल ॥

निभते नहीं हैं जो सियासत में कभी ,

वो वायदे गिनने लगे हैं आज कल ॥

कैसे कहें , कितना चाहें हैं उसे ,

बस सोच के डरने लगे हैं आज कल ॥

मालूम होता तो बता पाते तुझे ,

वो दूर क्यों हटने…

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Added by Nazeel on March 21, 2015 at 9:30pm — 10 Comments

हम तन्हा कहाँ होते हैं --डा० विजय शंकर

हम जब तन्हा होते हैं ?

तुम्हारे साथ होते हैं

तुमसे बातें करते हैं

तुमको देखा करते हैं

तुम्हारी मुस्कुराहटों में

हँसते हैं , जी लेते हैं

तुमसे सवाल करते हैं

तुम्हारे जवाब देते हैं

तुम्हारे हरेक सवाल के

सौ सौ जवाब देते हैं

कितनी बार पूछती हो

जब आप तन्हा होते हैं

तब आप क्या करते हैं ?

हम तन्हा कहाँ होते हैं

हम जहां भी होते हैं

तुम्हारे साथ होते हैं

हर बात मान लेती हो

इस पर यकीं नहीं करतीं

जब हम प्यार में होते… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on March 21, 2015 at 9:17pm — 10 Comments

ताटंक छन्द,,,,

ताटंक छन्द,,,,,,

************



आग लगी है नंदनवन मॆं,पता नहीं रखवालॊं का,

करॆं भरॊसा अब हम कैसॆ,कपटी दॆश दलालॊं का,

भारत माता सिसक रही है,आज बँधी ज़ंज़ीरॊं मॆं,

जानॆं किसनॆ लिखी वॆदना,उसकी हस्त लकीरॊं मॆं,



जिनकॊ चुनकर संसद भॆजा, चादर तानॆ सॊतॆ हैं,

संविधान कॆ अनुच्छॆद सब, फूट-फूट कर रॊतॆ हैं,

आज़ादी कॊ बाँध लिया अब, भ्रष्टाचारी डॊरी मॆं,

इन की कुर्सी रहॆ सलामत, जनता जायॆ हॊरी मॆं,



घाट  घाट पर ज़ाल बिछायॆ, बैठॆ यहाँ मछॆरॆ हैं,

दॆख मछरिया…

Continue

Added by कवि - राज बुन्दॆली on March 21, 2015 at 1:14pm — 10 Comments

नूतन गीत



नूतन वर्ष सुहाना आता 

-------------------------

नूतन वर्ष सुहाना आता 

माता की गोदी में चढ़ कर

मन ही मन हर्षाता

 

दिनकर चुनरी लाल उड़ाता 

शीतल पवन झकोरे लाता 

कच्ची कच्ची धूप मनोहर 

मलिया शगुन सुनाता

 

बगिया की गोदी में खिल कर 

दिवस मल्हारें गाता ।

 

कलियाँ खिल कर युवा हो गईं 

झोली भर कर सुगंध ले आईं 

अंगनाई उर महके चन्दन 

तितली काया सौरभ धोई

 

भोर की गोदी सूरज चढ़ कर…

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Added by kalpna mishra bajpai on March 21, 2015 at 9:30am — 12 Comments

मगरमच्छ : कहानी : हरि प्रकाश दुबे

नीली बत्ती की एक अम्बेसडर कार तेजी से आकर रुकी और ‘साहब’ सीधा निकलकर अपने केबिन में चले गए ! पीछे – पीछे ‘बड़े-बाबू’ भी केबिन की तरफ भागे ! तभी एक आवाज आई ,“ क्या बात है ‘बड़े-बाबू’ बड़े पसीने से लतपथ हो , कहाँ से आ रहे हो ?”

“ पूछो मत ‘नाज़िर भाई’ , नए ‘साहब’ के साथ गाँव- गाँव के दौरे पर गया था, राजा हरिश्चंद्र टाईप के लग रहें हैं, मिजाज भी बड़ा गरम दिख रहा है, आपको भी अन्दर तलब किया है , आइये , मनरेगा, जल-संसाधन और बजट वाली फ़ाइल भी लेते हुए आइयेगा ! “

“ठीक है, आप चलिए मैं आ रहा…

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Added by Hari Prakash Dubey on March 21, 2015 at 4:04am — 22 Comments

गौरैया दिवस पर कुछ दोहे

आँगन के ऊपर बना ,सरिया का आकाश

दाना नीचे है पड़ा खा पाती मैं काश ॥

अंबर पर उड़ते मिले ,चतुर सयाने बाज

जीवन कितना है कठिन ,हम जैसों का आज ॥ 

सूरज दादा भी तपें ,करें गज़ब का खेल

सूख गए वन बावड़ी,बची न कोई बेल ॥

एक दिवस में क्या मिले,कैसे रखलूँ धीर

सोच सोच ये बात को,मन में उठती पीर ॥

मन करता है आज भी,आँगन फुदकूँ जाय

झूला झूलूँ तार पर......मुन्नी लख हर्षाय ॥

अप्रकाशित व मौलिक 

कल्पना मिश्रा…

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Added by kalpna mishra bajpai on March 21, 2015 at 12:00am — 13 Comments

ग़ज़ल :- तन्हाई में अक्सर सोचा करते हैं

बह्र:-फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ै



तन्हाई में अक्सर सोचा करते हैं

हम को क्या करना था और क्या करते हैं



हम शाईर हैं,हम से क्या पोशीदा है

दुनिया को हर रंग में देखा करते हैं



उनसे बढ़कर झूट न कोई बोलेगा

जो भी सच कहने का दावा करते हैं



ऐसे भी नादान हैं जो घर का रोना

बाज़ारों में बैठ के रोया करते हैं



उनकी आदत है सैराब नहीं करते

क़तरा क़तरा प्यास बुझाया करते हैं



दुनिया वाले चैन से सोते हैं और हम

ज़ख़्मों की… Continue

Added by Samar kabeer on March 20, 2015 at 10:56pm — 28 Comments

दिल की बातें

212 212 212 212

 

आज दिल की कहानी छुपा ले गयी

आँख से नींद, यादें चुरा ले गयी

 

कैस खुद को भुलाए कोई तू बता  

फिक्र तेरी ज़हन को बहा ले गयी

 

तू नहीं जिंदगी में ये ग़म है मुझे

दूरियां दर्द का भी मजा ले गयी

 

शीत की ये लहर टीस बन कर उठी

हाय दिल की अगन को बढ़ा ले गयी

 

हसरतें अब ये दिल से जुदा हो न हो

मौत की ये रवानी खुदा ले गयी

 

वक्त की चाल का क्या पता ऐ “निधी”

आस जीवन…

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Added by Nidhi Agrawal on March 20, 2015 at 3:30pm — 10 Comments

कराहती है माँ गंगा

व्यथित है पतितपावनी

अपनी दशा पर आज

प्रश्न पूछती यही सबसे हजार बार

की है किसने दुर्गति ये

कौन है इसका जिम्मेदार ?



राजा, रंक हो या संत

दिया सबको समान अधिकार

सिंचित कर धरा को

भरा संपदा जिसने अपार

विष भर उसकी रगों में फिर

धकेला किसने उसे मृत्यु के द्वार ?



स्नान आचमन से जिसके देव प्रशन्न होते हैं

मुख में इक बूँद ले लोग

स्वर्ग गमन करते हैं

आँचल में उसी के शवों को छुपा

ढेरों मैल बहाया है

दामन पर…

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Added by Meena Pathak on March 20, 2015 at 3:24pm — 18 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
जीवन गठरिया (लघु कथा 'राज')

प्रधान मंत्री का कारवाँ चला जा रहा था कि बीच में एक जंगल से गुजरते हुए साइड विंडो से अचानक दिखाई दिया, कुछ स्त्रियाँ सिर पर लकड़ियों की गठरिया लिए जा रही थीं  उनमे एक वृद्धा जो पीछे रह गई थी अभी गठरिया बाँध ही रही थी कि प्रधान मंत्री जी ने गाड़ी रुकवाई और उस वृद्धा से बातचीत करने पंहुच गए.|

  “किस गाँव की हो माई? इस उम्र में ये काम!.. तुम्हारे बच्चे’?

“क्यूँ नहीं साब जी,  एक बिटवा है जो  फ़ौज में है, पोता है, बहू है” वृद्धा बोली.  

“बेटा पैसा तो भेजता होगा”? “हाँ जी, जब से…

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Added by rajesh kumari on March 20, 2015 at 11:20am — 39 Comments

इक-इक पग

डगर कठिन है

मंजिल से पहले पग रुकता है

फिर हौसलों के सहारे

एक-एक पग आगे बढता हूँ

गिरता हूँ, संभलता हूँ

क्या?

मंजिल भी

मेरे इस परिश्रम को देख रही होगी

क्या?

वह भी जश्न मनायेगी

मेरे वहाँ पहुँचने पर

कभी-कभी

ये उत्कण्ठा भी उत्पन्न हो जाती  हैं

फिर विचार आता है!

मंजिल जश्न मनाये या ना मनाये

उसे पा तो लूँगा, उसे चुमूँगा

दुनिया को दिखाउँगा कि

इसी के लिए मैने अथक प्रयास किया है

और अनवरत ही चलता रहता हूँ

इक-इक पग बढाते…

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Added by Pawan Kumar on March 19, 2015 at 7:20pm — 8 Comments

मालोपमा (उपमा अलंकार का एक भेद )

पुरवा बयार सी

मद भरे ज्वार सी   

फूलो में जवा सी

स्पर्श में हवा सी

महुआ की गंध सी

पाटल सुगंध सी

आमों की बौर सी

करौंदे की झौर सी

नीम की महक सी

पलाश की दहक सी

टूटे मोर पंख सी

पूजागृह के शंख सी

मंदिर के दीप सी

मोती भरी सीप सी

जल भरे डोल सी

विद्युत् कपोल सी

लहराते व्याल सी

दृप्त इंद्रजाल सी

पावस की धार सी

राधा के प्यार सी

पतझड़ के अंत सी

सौरभ बसंत…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 19, 2015 at 6:30pm — 25 Comments

ग़ज़ल -- हर इक रिश्ता यहाँ झूठा बहुत है। ( बराए इस्लाह )

1222-1222-122



सफ़र सच का अगर लम्बा बहुत है

मुझे भी हौसला थोड़ा बहुत है



सभी के सामने जो मुस्कुराता

वही छुप छुप के क्यूँ रोता बहुत है



पड़ी है ईद दीवाली इकठ्ठा

नगर में आज़ सन्नाटा बहुत है



गया परदेस बूढ़ी माँ का बेटा

बहाना जो भी हो थोथा बहुत है



कमा कर भेजता वो माँ को पैसे

मगर इक माँ को क्या इतना बहुत है



भँवर में जो फँसा हो उससे पूछो

सहारे के लिए तिनका बहुत है



चले ही जाना सबको इस जहाँ से

हर… Continue

Added by दिनेश कुमार on March 19, 2015 at 5:00pm — 16 Comments

ए-हुस्न-जाना...............'जान' गोरखपुरी

ए-हुस्न-जाना..

दिल नही रहा अब तेरा दीवाना...

अब मुझको आया कुछ आराम है।

कि तेरे सिवा जहाँ में और भी बहुत काम है।

ए-हुस्न-जाना..

दिल अब तुझसे बेजार है..

हुस्नो-इश्क जबसे बना व्यापर है।

हूँ जिसका मै सिपहसलार बेकार वो दिल का रोजगार है।

ए-हुस्न-जाना..

दूंढ़ ले अब कोई नया ठिकाना...

मालूम मुझको तेरा मकाम है।

के तेरे सिवा जहाँ में और भी बहुत काम…

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Added by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on March 19, 2015 at 4:00pm — 24 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
गज़ल -- कोई मर जाये, गर कभी जी ले ( गिरिराज भंडारी )

2122  1212   22 

ज़िन्दगी दी ख़ुदा ने प्यारी है 

चाहतें पर बहुत उधारी है

 

इस तरफ़ हम खड़े उधर अरमाँ

बेबसी बस लगी हमारी है

 

ख़्वाब तो रोज़ ही बुनें,  लेकिन

हर हक़ीकत लिये कटारी है

 

ख़र्च का क़द बढ़ा है रोज़ मगर

रिज़्क की शक़्ल माहवारी है

 

रिश्ते बदशक़्ल हो गये अपने

पेट की आग सब से भारी है

      

फुनगियों में लटक रहे अरमाँ

कोई सीढ़ी नहीं , न आरी है

 

तिश्नगी अश्क़ भी…

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Added by गिरिराज भंडारी on March 19, 2015 at 2:00pm — 29 Comments

प्यार होना भी जरूरी औ’ जरूरी दौलतें - लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’

2122    2122    2122        212

****************************

जब धरा  पर रह  न पाये जो कभी औकात से

चाँद पर पहुँचो भले ही  क्या भला इस बात से

****

मुफ्तखोरी  की  ये  आदत  यार  चोरी से बुरी

चोर  भी समझा  रहा ये  बात  हमको रात से

****

बाँटने  में  हर  हुकूमत,  व्यस्त  है  खैरात ही

देश का, खुद का भला कब, हो सका खैरात से

*****

हो  न पाये कौवे शातिर, लाख कोशिश बाद भी

बाज  आयी  कोयलें  कब,  दोस्तों  औकात से

*****

प्यार   होना  भी  …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 19, 2015 at 11:29am — 26 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - पानी का बना होगा....... (मिथिलेश वामनकर)

1222---1222---1222---1222

 

ग़लतफ़हमी कि पोखर साफ़ पानी का बना होगा

कमल खिलता हुआ होगा तो कीचड़ से सना होगा।

 

सुख़नवर ने सुखन की बाढ़ ला दी क्या कहे…

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Added by मिथिलेश वामनकर on March 19, 2015 at 10:30am — 49 Comments

वो आगे जाते रहे, हम पीछे जाते रहे - डॉo विजय शंकर

दुनियाँ में लोग

मन की गति से

अरमान पूरे करते रहे ,

जो चाहा उसे

हासिल करते रहे ,

हम हसरतों को

दबाने , मन मारने ,

के हुनर सिखाते रहे।

जो है उसे पाने में

वो जिंदगी पाते रहे ,

हम उसी को मिथ्या

और भ्रम बताते रहे।

वो गति औ प्रगति गाते रहे

हम सद्गति को गुनगुनाते रहे ,

वो आगे जाते रहे ,

हम पीछे जाते रहे ,

वो देश को सोने

जैसा बनाते रहे ,

हम देश को सोने की

चिड़िया बताते रहे ,

लोग उल्लुओं को

पास आने… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on March 19, 2015 at 9:43am — 19 Comments

तिनका तिनका तार तार

गौर से देखो रेगिस्तान को 

मीलों दूर तक

बिखरा पडा है

अपनी सुन्दरता सँवारे हुये

कितनी सदियों से 

आँधी तूफानों से

अनवरत लडा है

कई बार साजिशें हुयीं है

सहरा की धूल को 

दूर उडा ले जाने की 

इसके अस्तित्व को 

हमेशा के लिये 

मिटाने की

पानी के लिये 

प्यासा ही जी रहा है

पानी ने भी कसर नहीं छोडी है

इसे बहाकर दूर ले जाने में 

कई बार गुजरा है 

इसके वक्ष स्थल से होकर

मगर रेगिस्तान का 

स्वाभिमान तो…

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Added by umesh katara on March 19, 2015 at 8:00am — 22 Comments

लोग मिलते हैं ...........'जान' गोरखपुरी

2122  2212  1222

लोग मिलते हैं अक्सर यहाँ मुहब्बत से

दिल हैं मिलते यारब बड़े ही मुद्दत से।

आज कल शामें हैं उदास बेवा सी

याद आये है कोई खूब सिद्दत से।

कोई होता है किस कदर अदाकारां

हम रहे इक टक देखते सौ हैरत से।

उसने मुझको यूँ शर्मसां किया बेहद

पेश आया मुझसे बड़े ही इज्जत से।

लबसे तेरे हय शोख़ गालियाँ जाना

बस रहे हम ता-उम्र सुन…

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Added by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on March 18, 2015 at 4:30pm — 19 Comments

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