१२२२ १२२२ १२२२ १२२
मेरा घेरा ये बाहों का तेरा बन्धन नहीं है
इसे तू तोड़ के जाये मुझे अड़चन नहीं है
समय की धार ने बदला है साँपों को भी शायद
वो लिपटे हैं मेरी बाहों से जो चन्दन नहीं है
जिन्हों ने कामनाओं की जकड़ स्वीकार की थी
उन्हीं की भावनाओं में बची जकड़न नहीं है
न लो गंभीरता से तुम बुढ़ापे की लड़ाई को
अकेलेपन को भरता हूँ, यहाँ अनबन नहीं है
सभी राहों में कांटे, फूल पत्थर है नदी भी
ये दुनिया छोड़ जाने का कोई कारन नहीं है
अगर चलती हैं साँसें तो कभी पूछो तो खुद से
किसी की वेदना में क्यूं यहाँ क्रन्दन नहीं है
किसी की दृष्टि बाधित है, किसी की सोच लंगड़ी
दिखाई साफ़ दे ऐसा कोई दरपन नहीं है
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकार करें आदरणीय गिरिराज जी।
नीलेश जी की बात से सहमत हूँ। उर्दू की लिपि में “न” और “ण” को अलग नहीं किया जा सकता पर देवनागरी में तो इन्हें पृथक ही रखना चाहिए।
सादर
आ. गिरिराज जी
ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई ..
मैं निजि रूप में दर्पण जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्द को दरपन की तरह लेने के पक्ष में नहीं हूँ लेकिन आजकल यह स्वीकार्य है .
पुन: बधाई
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