2122 2122 2122 212
वक्त इतना भी कठिन कब है,ज़रा महसूस कर।
एक रोशन दिन की ये शब है,ज़रा महसूस कर।
खुद को तन्हा कहना तेरी भूल है, इतना समझ
हर कदम साथी तेरा रब है,ज़रा महसूस कर।
मिल ही जाएगी तेरी मंज़िल अगर चलता रहा
रास्ता थोड़ा सा ही अब है,ज़रा महसूस कर।
तू नहीं पहला बशर है ठोकरों की चोट में,
सालों से चलने का ये ढब है ज़रा महसूस कर।
बेबसी, मायूसियाँ,नाक़ामियाँ, रुसवाईयाँ,
जिंदगी की ये ही तो…
Added by मनोज अहसास on January 26, 2022 at 11:00pm — 2 Comments
जय भारत के लोगों की
जय भारत देश महान की
जय जय जय गणतंत्र दिवस की
जय जय संविधान की
जय जय जय जय हिंद
अपनी धुनें बनाई हमने अपना राग बनाया था
जिसमें समता, न्याय, आजादी का संकल्प समाया था
एक अखंडित राष्ट्र के लिए गरिमा भाईचारा से
हमने अपने गीत लिखे थे हमने खुद को गाया था
जय लिक्खी संप्रभुता की जय लोकतंत्र कल्याण की
जय जय जय गणतंत्र दिवस की
जय जय संविधान की
जय जय जय जय हिंद
सूत कातते…
ContinueAdded by आशीष यादव on January 25, 2022 at 11:15pm — 3 Comments
22 22 - 22 22 - 22 22 - 22 2
ऐ सरहद पर मिटने वाले तुझ में जान हमारी है
इक तेरी जाँ-बाज़ी उनकी सौ जानों पर भारी है
अपने वतन की मिट्टी हमको यारो जान से प्यारी है
ख़ाक-ए-वतन बेजान नहीं ये इस में जान हमारी है
एक …
ContinueAdded by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on January 25, 2022 at 4:37pm — 6 Comments
कैसे अपने देश की
नाव लगेगी पार?
पढ़ा रहे हैं जब सबक़
राजनीति के घाघ
जिनके हाथ भविष्य की
नाव और पतवार
वे युवजन हैं सीखते
गाली के अम्बार
अपने को कविवर समझ
वाणी में विष घोल
मानें बुध वह स्वयं को
उनके बिगड़े बोल
वेद , पुराण, उपनिषद
सत्य सनातन भाष्य
समझ सके न आज भी
साल पचहत्तर बाद
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Usha Awasthi on January 24, 2022 at 10:18am — 4 Comments
दोहा त्रयी : राजनीति
जलकुंभी सी फैलती, अनाचार की बेल ।
बड़े गूढ़ हैं क्या कहें, राजनीति के खेल ।।
आश्वासन के फल लगे, भाषण की है बेल ।
राजनीति के खेल की , बड़ी अज़ब है रेल ।।
राजनीति के खेल की, छुक- छुक करती रेल।
डिब्बे बदलें पटरियां, नेता खेलें खेल ।।
सुशील सरना / 23-1-22
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on January 23, 2022 at 3:50pm — 8 Comments
1222 - 1222 - 1222 - 1222
क़वाफ़ी चंद और अशआर कहने हैं कई मुझको
चुनौती दे रहे हैं चाहने वाले नई मुझको
ये किसने दिलकी चौखट पर ज़बीं ख़म करके रख दी है
अक़ीदत की मिली है ये इबारत इक नई मुझको
चले आओ ख़ुतूत-ओ-फ़ोन से ये दिल न बहलेगा
कि तुम से रू-ब-रू करनी हैं अब बातें कई मुझको
हवाओं में घुली है फिर वो ख़ुशबू जानी-पहचानी
सुनाई दी अभी आवाज़ उसकी वाक़ई मुझको
तेरे पैकर की गर्मी से पिघलता है…
ContinueAdded by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on January 23, 2022 at 1:41pm — No Comments
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ज़ुल्फ़ों को ज़ंजीर बना कर बैठ गए
किस किस को हम पीर बना कर बैठ गए.
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यादें हम से छीन के कोई दिखलाओ
लो हम तो जागीर बना कर बैठ गए.
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दुनिया की तस्वीर बनानी थी हम को
हम तेरी तस्वीर बना कर बैठ गए.
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मौक़ा रख कर भेजा था नाकामी में
आप जिसे तक़दीर बना कर बैठ गए.
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मैंने कॉपी में इक चिड़िया क्या मांडी
दुनिया वाले तीर बना कर बैठ गए.
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चलती फिरती मूरत देख के हम नादाँ
मंदिर की तामीर बना कर बैठ गए.
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हँसते…
Added by Nilesh Shevgaonkar on January 23, 2022 at 9:02am — 2 Comments
1222 - 1222 - 1222 - 1222
तुझे है जीतने की धुन तो ये इक़रार ले पहले
न हारेगा कभी भी तू किसी भी हार से पहले
अगर कुंदन के जैसा चाहता है तू चमकना तो
ज़रा शो'लों के दरियासे तू ख़ुद को तारले पहले
हवाओं की तरह आज़ाद बहना अच्छा लगता है
तो परवा छोड़ दुनिया की ज़रा रफ़्तार ले पहले
फ़रिश्तों की तरह मासूम होना है तेरी ख़्वाहिश
इताअत में तू रब की इस ख़ुदी को मार ले पहले
तुझे महताब…
ContinueAdded by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on January 21, 2022 at 3:47pm — No Comments
दोहा त्रयी...
दुख के जंगल हैं घने , सुख की छिटकी धूप ।
करम पड़ेंगे भोगने , निर्धन हो या भूप ।।
धन वैभव संसार का, आभासी शृंगार ।
कभी कहकहे जीत के, कभी मौन की हार ।।
विदित वेदना शूल की, विदित पुष्प की गंध ।
सुख-दुख दोनों जीव की, साँसों के अनुबंध ।।
सुशील सरना / 20-1-22
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on January 20, 2022 at 1:00pm — 5 Comments
ठण्ड कड़ाके की पड़े, सरसर चले समीर।
नित्य शिशिर में सूर्य का, चाहे ताप शरीर।१।
*
दिखे शिशिर में जो नहीं, गजभर दूरी पार।
लगता धरती से हुआ, अम्बर एकाकार।२।
*
धुन्ध लपेटे भोर तो, विरहन जैसी साँझ।
विधवा लगते वृक्ष हैं, धरती लगती बाँझ।३।
*
घना कुहासा ढब घिरे, झरे हवा से नीर।
बदली जैसी भीत भी, धूप न पाये चीर।४।
*
देती है हिम खण्ड सा, शीतलहर अहसास।
चन्दा जैसा दीखता, सूर्य क्षितिज के पास।५।
*
हुए वृक्ष सब काँच से, हिम की ओढ़…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 19, 2022 at 7:16am — 4 Comments
2212 1211 2212 12
जिसको हुआ गुमाँ कि 'ख़ुदा' हो गया है वो
रुस्वाई के भंवर में तो ख़ुद जा गिरा है वो
अच्छा भला था 'ख़ुल्द' में 'इब्लीस' हो गया
झूठी अना की शान को मुन्किर हुआ है वो
हद से ज़ियाद: ख़ुद पे भरोसे का ये हुआ
थूका जो आस्मान पे मुँह पर गिरा है वो
मिट्टी जो फेंकी चाँद पे मैला नहीं हुआ
करनी पे अपनी ख़ुद ही तो शर्मा रहा है वो
थोड़ी सी धूप के लिये था जो रवाँ-दवाँ
सूरज को ले के…
ContinueAdded by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on January 17, 2022 at 11:38am — 9 Comments
1222 1222 1222 1222
हर इक दिन इन फ़ज़ाओं में नई अल्बम लगाता है
कोई तो है हरी सी घास पर शबनम लगाता है
कहीं सुनता नहीं महफ़िल में भी अब दर्द ए दिल कोई
किसे आवाज वीराने में तू हमदम लगाता है
अज़ब है वाक़िया या रब अज़ब साकी मिला दिल को
नमक ज़ख़्मों पे दिल के किस क़दर पैहम लगाता है
धुआँ होकर निकलती हैं ये साँसें दिल के अंदर से
किसी की याद में दिल दम व दम फिर दम लगाता…
ContinueAdded by Aazi Tamaam on January 15, 2022 at 3:00pm — No Comments
आया है जन पर्व जो, मकर संक्रांति आज।
गंगा तट पर सब जुटे, छोड़ सकारे काज।१।
*
आज उत्तरायण हो चले, मकर राशि पर सूर्य।
हर घाट शंखनाद अब, बजता चहुँदिश तूर्य।२।
*
निशा घटे बढ़ते दिवस, बढ़ता सूर्य प्रकाश।
भर देते हैं इस दिवस, कनकौवे आकाश।३।
*
विविध प्रांत, भाषा यहाँ, भारत देश विशाल।
विविध पर्व भी हैं मगर, मनें सनातन चाल।४।
*
गंगा में डुबकी लगा, करते हैं सब स्नान।
करते पाने पुण्य फिर, अन्न धन्न का दान।५।
*
कहो मकर संक्रांत…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 14, 2022 at 10:39am — 3 Comments
1222 - 1222 - 1222 - 1222
हँसी में उनकी हमने वो छुपा ख़ंजर नहीं देखा
हसीं मंज़र ही देखा था पस-ए-मंज़र नहीं देखा
वो जैसा उनको देखा है कोई दिलबर नहीं देखा
हसीं तो ख़ूब देखे हैं रुख़-ए-अनवर नहीं देखा
ज़माने में कहीं तुम सा कोई ख़ुद-सर नहीं देखा
सितमगर तो कई देखे मगर दिलबर नहीं देखा
वो मेरे ज़ाहिरी ज़ख़्मों को मुझसे पूछते हैं क्या
दिवानों ने कभी दिल में चुभा नश्तर नहीं देखा
जो कहते थे…
ContinueAdded by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on January 13, 2022 at 6:03pm — 8 Comments
इस जग में दाता बता .....दोहे
इस जग में दाता बता, कोई ऐसा तीर ।
बहता हो जिस तीर पर, बिना दर्द का नीर ।।
इस जग में दाता बता, कोई ऐसा तीर ।
मिल जाए जिस घाट पर, सुख का थोड़ा नीर ।।
इस जग में दाता बता, कोई ऐसा तीर ।
मिट जाए जिस तीर पर, जग की सारी पीर ।।
इस जग में दाता बता, कोई ऐसा तीर ।
राँझे से आकर मिले, उसकी बिछुड़ी हीर ।।
इस जग में दाता बता, कोई ऐसा तीर ।
जहाँ बने बिगड़ी हुई, बन्दों की तकदीर…
Added by Sushil Sarna on January 13, 2022 at 1:12pm — 1 Comment
2122 2122 212
आख़िरश वो जिसकी ख़ातिर सर गया
इश्क़ था सो बे वफ़ाई कर गया
आरज़ू-ए-इश्क़ दिल में रह गई
जुस्तजू-ए-इश्क़ से दिल भर गया
दिल की दुनिया दर्द का बाजार है
दर-ब-दर…
ContinueAdded by Aazi Tamaam on January 13, 2022 at 12:30pm — 6 Comments
.
कहीं ये उन के मुख़ालिफ़ की कोई चाल न हो
सो चाहते हैं कि उन से कोई सवाल न हो.
.
कोई फ़िराक़ न हो और कोई विसाल न हो
उठे वो मौज कि अपना हमें ख़याल न हो.
.
तेरी तलब में हमें वो मक़ाम पाना है
कि लुट भी जाएँ तो लुट जाने का मलाल न हो.
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हमें सफ़र जो ये बख़्शा है क्या बने इसका
न हो उरूज अगर इस में या ज़वाल न हो.
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बशर न हो तो ख़ुदा भी न हो जहाँ में कोई
न हो जहाँ में ख़ुदा तो कोई वबाल न हो.
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मैं चाहता हूँ ये दुनिया वहाँ…
Added by Nilesh Shevgaonkar on January 12, 2022 at 9:00am — 4 Comments
1222 1222 1222 1222
लिखें हिंदी कहें हिंदी पढ़ें हिंदी जहाँ हिंदी
अगर है हिंद की संतान फिर बोले यहाँ हिंदी
बताता छंद चौपाई है पिंगल शास्त्र अपना क्या
हमारे देश की यह मात्र भाषा है रवाँ हिंदी
सिखाया पाठशाला में है इसकी संस्कृत जननी
वतन का नाम हिंदोस्तान हमारा कारवाँ हिंदी
यही है ध्येय चारो ओर इसका ध्वज भी लहराये
हमारे देश के हर प्रांत में गूंजे सदाँ हिंदी
न शर्मायें विदेशों में कभी हिंदी अगर…
ContinueAdded by Deepanjali Dubey on January 10, 2022 at 4:30am — 2 Comments
मेरे पिता मेरा गर्व - लघुकथा -
सुरेखा जी समाज शास्त्र की अध्यापिका होने के कारण सातवीं कक्षा के बच्चों को "सामाजिक स्तर" क्या होता है। इस विषय पर पढ़ा रहीं थीं। कुछ छात्र सही तौर पर समझ नहीं पा रहे थे। अतः सुरेखा जी ने सभी छात्रों को…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on January 8, 2022 at 1:00pm — 6 Comments
मैं पुलिस हूँ
मैं पुलिस हूँ, मित्र हूँ
मैं आपका ही प्यार हूँ
आपकी खातिर खड़ा हूँ
आपका अधिकार हूँ
मैं पुलिस हूँ
शपथ सेवा की उठाया हूँ करूँगा आमरण
धीर साहस के लिए मैंने किया वर्दी-वरण
जुल्म-अत्याचार से चाहे प्रकृति की मार से
रात-दिन रक्षा करूँगा आपका बन आवरण
मैं अहर्निश कमर कसकर
वेदना में भी विहँसकर
कर्म को तैयार हूँ
मैं पुलिस हूँ
मैं पुलिस…
ContinueAdded by आशीष यादव on January 5, 2022 at 9:23am — 4 Comments
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