निकम्मा - लघुकथा –
धर्मचंद जी शिक्षा विभाग से रिटायर अधीक्षक थे। चार बेटे थे। सभी पढ़े लिखे थे। सबसे बड़ा डाक्टर था जो अमेरिका में बस गया था। दूसरा इंजीनियर आस्ट्रेलिया में था। तीसरा दिल्ली में प्रोफ़ेसर था। चौथा बेटा भी पूर्ण रूप से शिक्षित था। जॉब भी मिल रहे थे मगर दूसरे शहरों में। लेकिन वह माँ बापू को अकेले छोड़ने के पक्ष में नहीं था।अतः वह इसी प्रयास में था कि उसे अपने ही शहर में नौकरी मिले।लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अंततः उसने पिता की सलाह पर मकान के बाहरी हिस्से में एक मेडीकल स्टोर खोल…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on July 10, 2018 at 1:21pm — 15 Comments
Added by Alok Rawat on July 9, 2018 at 6:54pm — 20 Comments
माँ ....
बताओ न
तुम कहाँ हो
माँ
दीवारों में
स्याह रातों में
अकेली बातों में
आंसूओं के
प्रपातों में
बताओं न
आखिर
तुम कहाँ हो
माँ
मेरे जिस्म पर ज़िंदा
तुम्हारे स्पर्शों में
आँगन में गूंजती
आवाज़ों में
तुम्हारी डाँट में छुपे
प्यार में
बताओं न
आखिर
तुम कहाँ हो
माँ
बुझे चूल्हे के पास
या
रंभाती गाय के पास
पानी के मटके के पास…
Added by Sushil Sarna on July 9, 2018 at 5:33pm — 11 Comments
"हैलो! आदाब! ठीक तो हैं न! कहां तक पहुंच गईं आप? ज़रा अपनी घड़ी साहिबा पर भी इक नज़र तो डालियेगा!" शायर 'राज़' साहिब ने साहित्यिक सम्मेलन परिसर के मुख्य द्वार पर अगली सिगरेट का अगला लम्बा कश लेते हुए मोबाइल फ़ोन पर एक बार में ये सवाल दाग़ दिये!
"आदाब राज़ साहिब! मैं वहीं हूं अपनी क़लम संग, जहां मुझे इस वक़्त होना चाहिए!" दूसरी तरफ़ से चिर-परिचित सुरीली आवाज़ में सोशल मीडिया की आभासी सहेली शायरा शबाना ने आश्चर्य-मिश्रित लहज़े में कहा - "माना कि आप घड़ी नहीं पहनते, लेकिन अपने मोबाइल पर मेरे…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on July 8, 2018 at 9:19pm — 6 Comments
हँसमुखी चेहरे पर ये कोलगेट की मुस्कान,
बिखरी रहे ये हँसी,दमकता रहे हमेशा चेहरा,
दामन तेरा खुशियों से भरा रहे,
सपनों की दुनियां आबाद बनी रहे,
हँसती हुई आँखें कभी नम न पड़े,
कालजयी जमाना कभी आँख मिचौली न खेले,…
ContinueAdded by babitagupta on July 8, 2018 at 5:00pm — 9 Comments
सुबह आठ बजे से उसका साईकल इस एवन्यु में घूम रहा था । उसके भोंपू की आवाज़ एवन्यु के हर कोने तक पहुंच चुकी थी।
मगर न कोठी से कोई भी औरत न ही माँ के साथ बच्चा बाहर आया। उसके साईकल पर लगे बड़े, छोटे गुबारे, छोटी बड़ी कार या कोई बजाने वाले खिलौने सभी उस की तरफ झाक रहे थे । दो घंटे हो गए थे इस एवन्यु दाखल हुए। साईकल की रफ्तार भी धीमी हो चली थी। चेहरा उदास और आँखों में नमी बढने लगी अचानक ही उस ने इक कोठी के आगे साईकल आ लगाई, इक बार बेल्ल बजाई कोई जवाब नहीं आया। उसने फिर बेल्ल बजाई। थोड़ी देर बाद…
Added by Mohan Begowal on July 8, 2018 at 1:00pm — 5 Comments
'एक सेठ के पाँच पुत्र थे, दो खूब पढ़े-लिखे,एक कुछ-कुछ पढ़ा हुआ और शेष दो के लिए काला अक्षर भैंस बराबर था।सेठ के मरते समय की बात के अनुसार घर की मिल्कियत(मालिकाना हक) साल भर के लिए पाँचों भाइयों में से सर्वसम्मति से या बहुमत से चुने हुए एक भाई को सौंप दी जाती।वह घर का कामकाज देखता,अपने हिसाब से विभिन्न मदों में धन खर्च करता।कभी पहला पढ़ा-लिखा भाई मालिक होता,तो कभी दूसरा।बीच-बीच में तीसरा कम पढ़ा लिखा भी मालिक बन जाता,अन्य दो अँगूठाछाप भाइयों की मदद से।पर उसकी कुछ चल नहीं पाती।ढुलमुल रवैये…
Added by Manan Kumar singh on July 8, 2018 at 8:30am — 6 Comments
फाइलातुन _मफाइलुन_फेलुन)
आप पर किस की मिह्ऱबानी है ,
हर ग़ज़ल में जो ये रवानी है !!
ये ग़ज़ल उसके नाम करता हूँ
शायरी जिसकी मेहरबानी है
शायरी में नहीं है कुछ मेरा
हर ग़ज़ल यार की निशानी है
आप को छोड़ कर कहाँ जाएँ ,
आप के साथ ज़िन्दगानी है !!
आप मक्ते में साथ होते हो ,
हर ग़ज़ल आप की निशानी है !!
प्यार के ही तो सारे किस्से हैं
प्यार की ही तो हर कहानी है
उसको भी…
ContinueAdded by राज लाली बटाला on July 8, 2018 at 8:30am — 7 Comments
(2122-2122-2122-212)
मुश्किलें कितनी हैं अपने दरमियाँ गिनता रहा ।
बैठ कर मैं राह की दुश्वारियाँ गिनता रहा ।
आँखों में अश्कों का दरिया चढ़ के जब उतरा तो फ़िर,
मैं तो बस ख़्वाबों की डूबी कश्तियाँ गिनता रहा ।
और करता भी तो क्या वो नौजवां बेरोज़गार,
दी हैं कितनी नौकरी कीअरज़ियाँ गिनता रहा ।
राजनेता को न था मतलब किसी इंसान से,
वो तो केवल धोतियाँ और टोपियाँ गिनता रहा ।
वो रहे गिनते मुनाफ़ा कारख़ाने का उधर,…
ContinueAdded by Gurpreet Singh jammu on July 8, 2018 at 7:50am — 18 Comments
मौसम विभाग ने तो मई के अंतिम सप्ताह में ही सम्भावना व्यक्त कर दी थी कि इस साल औसत से कहीं अधिक बारिश होगी । सभी लोग इस खबर को पढ़ कर खुश भी थे । कल रात से ही मानसून का सिस्टम सक्रिय हो गया । बहुत तेज़ गरज के साथ बादलों की आवाजाही होने लगी।
Added by MUZAFFAR IQBAL SIDDIQUI on July 7, 2018 at 11:30pm — 9 Comments
"अब तो बता दो कि 'गुड टेररिज़्म (आतंकवाद)' और 'बैड टेररिज़्म' में वाक़ई क्या फ़र्क है?" एक धर्मावलंबी ने कहा।
"वही फ़र्क है न, जो इंसां की ज़िन्दगी में 'गुड टाइम' और 'बैड टाइम' में है; जो 'गुड ह्यूमन' और 'बैड ह्यूमन' के बीच में है!" दूसरे ने जवाब दिया।
"जी नहीं, अंतर वही है, जो 'गुड ह्यूमन' के 'बैड टाइम' और 'बैड ह्यूमन' के 'गुड टाइम' के बीच में है!" एक हारे हुए परेशां शिक्षित बेरोज़गार ने अपनी पथराई आंखों से दो बूंदे टपकाते हुए कहा - "नासमझी या दुर्भाग्य से 'गुड टाइम' किसी…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on July 7, 2018 at 6:30pm — 2 Comments
चन्दन सा महका कर मन को बरसे काले मेह
चन्दन सा महका कर मन को
बरसे काले मेह
बूँद-बूँद में व्यथा समेटे
दहके कोई देह
हर आहट के धोखे ने
मुझको तहस-नहस कर डाला
सूनी वेदी पर खड़ी रही मैं
लिए हाथ में वर की माला
आएगा कि नहीं? हृदय में
उठते सौ संदेह
चन्दन सा महका कर मन को
बरसे काले मेह
बूँद-बूँद में व्यथा समेटे
दहके कोई देह
प्यास प्रेम की वो पहचाने
जो…
ContinueAdded by SudhenduOjha on July 7, 2018 at 3:08pm — No Comments
चाहा ये दिल तेरा पाना हम को।
महका के राहों को जाना हम को।
कहते कोई तो अफ़साना हम भी,
कैसे बुनता ताना बाना हम को।
आये जाये मिलकर बैठे बिछड़ें,
कहना जो भी होता पाना हम को।
कैसा होगा अब ये हम का जीना,
जब राहों इन आना जाना हम को।
औरत बन के तुझको भी आना होगा,
क्यूँ होता इलजाम निभाना हम को।
Added by Mohan Begowal on July 7, 2018 at 3:07pm — 8 Comments
1222 1222 1222 1222
यहां इंसानियत से गर सभी का राबिता होता ।।
यकीनन मुल्क का यह सर नहीं झुकता मिला होता ।।1
मुहब्बत के उसूलों को अगर उसने पढ़ा होता ।
न कोई तिश्नगी होती न कोई हादसा होता ।।2
बहुत बेचैन दरिया की उसे पहचान है शायद ।
वग़रना वह समंदर तो नदी को ढूढ़ता होता ।।3
तुम्हारी शर्त को हम मान लेते बेसबब यारों।
हमें अंजामे रुसवाई अगर इतना पता होता ।।4
सियासत दां…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on July 7, 2018 at 2:00pm — 13 Comments
२२१ २१२१ २२२ १२१२
कहते नहीं हैं आपसे रस्ता सुझाइये
राहों में यूँ न देश की रोड़ा लगाइये।१।
आता है भेड़िया तो कुछ हरकत दिखाइये
कमजोर गर ये हाथ हैं हल्ला मचाइये।२।
कहते हो दूसरों की है सूरत अगर मगर
खुद को भी रोशनी में ये दर्पण दिखाइये।३।
होती नहीं है भोर इक सूरज उगे से ही
गर देखनी हो भोर तो खुद को जगाइये।४।
बातों को दिल की रोज ही ऐ …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 7, 2018 at 12:00pm — 13 Comments
आग़ोश -ए-जवानी ...
न, न
रहने दो
कुछ न कहो
ख़ामोश रहो
मैं
तुम्हारी ख़ामोशी में
तुम्हें सुन सकता हूँ
तुम
एक अथाह और
शांत सागर हो
मैं
चाहतों का सफ़ीना हूँ
इसे अल्फाज़ की मौजों पर
रवानी दे दो
मेरे वज़ूद को
आग़ोश -ए-जवानी दे दो
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on July 6, 2018 at 12:00pm — 6 Comments
"मैं ... मैं समय हूँ!"
"चुप कर यह "मैं .. मैं" ! मालूम है कि तू समय है और इस सृष्टि का सब कुछ मय समय है तय समय में!" विज्ञान और तकनीक ने एक स्वर में व्यंग्य किया।
"लेकिन तू कितनी भी फुर्ती से कहीं से भी फिसल ले, तुझे अपनी हथेली में किसी कठपुतली की तरह नचा सकते हैं हम, भले मुट्ठी में तुझे क़ैद न कर सकें, समझे!" 'तकनीक' ने 'विज्ञान' के कंधों पर टांगें पसारते हुए आगे की तरफ़ क़दमताल कर अपनी हथेली दिखा कर पलटाते हुए कहा।
"इतने आत्ममुग्ध मत हो! जीत-हार,…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on July 6, 2018 at 9:59am — 5 Comments
जमींदार रामलोचन की आर्थिक स्थिति उस स्तर पर पहुंच गई थी जहाँ कहा जाता है कि हाथी बिक गया जंजीर ढ़ो रहे हैं।
उधर गाँव के टेलर का लड़का हाथी खरीदने को आतुर था। तीनों पहर के भोजन की निश्चिंतता न थी, लेकिन बंगलौर के किसी फैशन संस्थान में नामांकन के लिए इंटरव्यू दे आया था । वहाँ फीस की रकम सुनकर ही समझ गया था ये रकम सीधे तरीके से वह हफ्ते भर में नहीं जुटा सकता ।
घर लौटने के रास्ते में उसने हर सीधे टेढ़े तरीके से सोचा तब उसे लगा जमींदार के घर में ही उसकी मंशा पूरी हो सकती है, वरना गाँव में…
Added by Kumar Gourav on July 6, 2018 at 8:00am — 4 Comments
हाथ लगा जो गाल पर, पटकेंगे धर केश ।
दुनिया संग बदल रहा, गाँधी का ये देश।।
नैतिकता का पाठ अब, पढ़े-पढ़ाये कौन ?
मात-पिता-बच्चे सभी, ले मोबाइल मौन।।
'तुम' धन 'मैं' जब 'हम' हुए, दोनों हुए विशेष।
'हम' ऋण 'तुम' जैसे हुए, नहीं बचा अवशेष ।।
रीति जहां की देख कर, मन चंचल, मुख मौन।
मतलब के सधते सभी, पूछें तुम हो कौन ?
छप कर बिकता था कभी, जिंदा था आचार।
जबसे बिक छपने लगा, मृत लगते अखबार।।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 5, 2018 at 9:51pm — 13 Comments
समय बड़ा बलवान - लघुकथा –
माँ मरणासन्न स्थिति में चारपाई पर पड़ी थी। संजीव चारपाई के पास बैठा आँसू बहा रहा था।
"क्यों रोये जा रहा है पगले? जाना तो सभी को एक दिन पड़ता ही है"।
"माँ, मैं इसलिये नहीं रो रहा हूँ। मेरे रोने की वज़ह कुछ और है"?
"अरे सब भूल जा अब। मेरा आखिरी वक्त है, खुशी खुशी विदा कर दे”|
"नहीं माँ, मैं जीवन भर सुशीला को माफ़ नहीं कर सकूंगा"?
"ओह, तो तू अपनी घरवाली सुशीला से नाराज है क्योंकि वह तेरे साथ मुझे देखने नहीं आई"?
"माँ, तू बहुत…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on July 5, 2018 at 5:16pm — 16 Comments
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