संदली नाजुक बदन या बोलती तस्वीर है
आयतें खामोशियाँ हैं शर्म ये तफ़सीर है
सर्द हैं जुल्फों के साए सोज साँसों में भरी
कातिलाना है अदा या ख्वाब की ताबीर है
ये गजाली चश्म तेरे श्याह गहरी झील से
औ तबस्सुम होंठ पे जैसे कोई शमशीर है…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 6, 2012 at 4:05pm — 5 Comments
यह रचना उन (ढोंगी ) बाबाओं और गुरुओं के नाम जो अमरबेल से हर गली में हर रोज उग रहे है .....
Added by seema agrawal on September 6, 2012 at 10:21am — 11 Comments
सर्द सी सुबह और बेरंग सा आसमान. तेज़ बहती हवा और नशे में झूमते से दरख्तोशज़र. चौथी मंज़िल पे मेरा एक अकेला कमरा. बड़ा सा और खाली खाली. सलवटों से भरा बिस्तर, सिकुड़े सहमे से तकिए, किसी नाज़नीन के आँचल सा लहरा के लरज़ता हुआ लेटा कम्बल. सोफे पे रखा शिफर (शून्य) में ताकता खाली ट्रवेल बैग. पति-पत्नी-से अकुला के अगल-बगल मेज़ पे पड़े जिभ्भी (टंग क्लीनर) और टुथ ब्रश- किसी साहूकार के पेट सा फूला टूथपेस्ट... तो किसी गरीब की आंत सा सिकुड़ा मेरे शेविंग क्रीम का ट्यूब. दरवाज़े और दरीचों को बामुश्किल ढँक…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 6, 2012 at 8:56am — 3 Comments
रोशनी को, जिन्हें हम जलाते हैं
आज हम उनका दिन मनाते हैं.....।
जिनकी मेहनत से हमने सीखा है
जिनके बिन दुनिया एक धोखा है
ज्ञान का दीप जो जलाते हैं......
आज हम उनका दिन मनाते हैं............।
वो हवाओं को मोड देते हैं
और पत्थर को तोड देते हैं
पौधों को पेड जो बनाते हैं....
आज हम उनका दिन मनाते हैं............।
सुजान
Added by सूबे सिंह सुजान on September 5, 2012 at 11:35pm — 6 Comments
Added by deepti sharma on September 5, 2012 at 8:18pm — 9 Comments
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लो चुपके से तुमने ये क्या कह दिया,
सूनी वीणा के फिर तार बजने लगे
कलियाँ खिल के हंसीं मन मचलने लगा,
होंठों पे आज फिर गीत सजने लगे.
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सरसराती हुयी जब हवा ये चली,
घर का आँगन भी मेरा चहकने लगा.
तेरे आने की आहट से हलचल मची,
कोना कोना भी अब तो महकने लगा.
प्यार के बोल सुनने की खातिर प्रिये,
अपने बोलों को पन्छी भी तजने लगे.
कलियाँ खिल के हंसीं मन मचलने लगा, …
Added by dineshVerma on September 5, 2012 at 1:51pm — 4 Comments
"जबाब नहीं है ख़ामोशी "
जबाब नहीं है ख़ामोशी
सब जानते हैं
इसमें तो छुपा होता है
गलतियाँ स्वीकारने का हाँ
कसमसाहट भरी वो हाँ
जो हाँ कहने पर
जुबान शर्मशार हुई जाती है…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 5, 2012 at 1:25pm — 4 Comments
जिसने बताया हमको , लिखना हमारा नाम .
जिसने सिखाया हमको , कविता ,ग़ज़ल -कलाम .
समझाया जिसने हमको , दीने -धरम ,ईमान .
जिसने कहा कि एक है ,कह लो रहीम - राम .
भगवान से भी पहले ,करता नमन उन्हीं को .
मानों तो हैं खुदा वो , ना मानों तो हैं आम .…
Added by satish mapatpuri on September 5, 2012 at 3:46am — 18 Comments
शिक्षक और गुरु : कैसी अवधारणा
5 सितंबर यानि ’शिक्षक दिवस’, उद्भट दार्शनिक विद्वान और देश के द्वितीय राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्लि राधाकृष्णन का जन्मदिवस. कृतज्ञ देश आपके जन्मदिवस पर आपको भारतीय नींव की सबलता के प्रति आपकी अकथ भूमिका के लिये स्मरण करता है.…
ContinueAdded by Saurabh Pandey on September 5, 2012 at 12:30am — 24 Comments
रात थकती बुझ रही रोशन दिये की खोज में
जल रहे हैं जाम खाली साकिये की खोज में
लिख दिए किरदार सारे पड़ गये हैं नाम पर
है अधूरी ये कहानी बाकिये की खोज में
हार कर इंसान खुद से आदमीयत खोजता
जिन्दगी बेचैन फिरती हाशिये की खोज में…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 4, 2012 at 4:00pm — 11 Comments
सात कांड में रची तुलसी ने ' मानस ' ;
आठवाँ लिखने का क्यों कर न सके साहस ?
आठवे में लिखा जाता सिया का विद्रोह ;
पर त्यागते कैसे श्री राम यश का मोह ?
लिखते…
Added by shikha kaushik on September 4, 2012 at 3:00pm — 15 Comments
मैं तो बस इक गुरु का शिष्य हूँ
बहुत उकसा के पूछा
बताओ कौन हो तुम
क्या हो तुम ???
तुम दिखावटी हो
या सच में फूल हो
नहीं नहीं
शायद तुम खार हो
कितना ग़ज़ब लगता है
तुम्हारा अलग अलग सा दिखना
किसने पैदा किया है तुम्हे
कोई जादूगर
बागवान था क्या ??
गेंदे के फूल से
गुलाब की खुशबू
लाजवाब है ये कारीगरी
खुदाई सी लगती है
पर है हकीकत
चाँद तारा या आफताब
क्या हो तुम
या जर्रा-ए-कायनात…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 4, 2012 at 1:30pm — 3 Comments
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 4, 2012 at 11:30am — 10 Comments
वक़्त भी क्या चीज है यारों
हर ओर हकूमत, इसकी छाई है
कही छाया है मातम की
तो कहीं बजी शहनाई है l
गिरगिट सा है रंग बदलता
हर्षित, भयभीत, भ्रमित कर
परिचय जग को अपना देता
रंक से राजा पल में बनता
वक़्त जिस पर मेहरबान हुआ
क्षणभर भी न टिकता जग में
काल का भयंकर जब वार हुआ
रावण राजा बड़ा निराला
अहं स्वयं के शिकार हुआ
क्षण भर में परलोक सिधारा
दुस्साहस जब वक़्त से
टकराने का था उसने किया
ग्रसित करता पलभर में…
Added by PHOOL SINGH on September 4, 2012 at 10:00am — 8 Comments
ओबीओ में विशाल मेंला लगा था
छंद कवियों का तांता लगा था |
मैंने वहां ;दोहा;नाम से कविता दागी
प्राचार्य ने यह दोहा नहीं कह हटा दी |
मैंने फिर छन्-पकैयां लिख लगा दिए
गुरुवर ने नरम हो कुछ सुझाव दिए |
एक अलबेला कूद पड़े बोंले मानलो
सिष्य से प्राचार्य बना देंगे जानलो |
गुरुवर बोंले ये कर्म योगी का…
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 4, 2012 at 5:30am — 14 Comments
स्वर में अमृत घोलो जी
फिर अधरों को खोलो जी |
नहीं खर्च कुछ होने का
मीठा – मीठा बोलो जी |.
देने वाला कैसे दे ?
हाथ मलिन…
Added by अरुण कुमार निगम on September 3, 2012 at 9:30pm — 15 Comments
Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 3, 2012 at 9:00pm — 20 Comments
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on September 3, 2012 at 6:30pm — 24 Comments
"जिन्दगी का कोरा सच "
सच
जिन्दगी का
कभी ग़ज़ल बना
कभी नज्म
कभी रुबाइयाँ
लिखते रहे
गुनगुनाते रहे
सुनते रहे
सुनाते रहे
क्या क्या न लिखा
धुप छाँव
राह, मंजिल
पड़ाव
गुल, गुलशन
खार
कभी जिन्दगी
इक भार
दोस्त, यार
फिर दुनिया में
भ्रष्टाचार
हाहाकार
कभी सम्मान
कभी तिरस्कार
कभी लगती रही
ये व्यापार
खुद दुकानदार
कभी नफरत
तो कभी प्यार
बार बार
लेकिन
हर…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 3, 2012 at 4:19pm — 19 Comments
अर्पण करते स्व-जीवन शिक्षा की अलख जगाने में ,
रत रहते प्रतिपल-प्रतिदिन शिक्षा की राह बनाने में .
आओ मिलकर करें स्मरण नमन करें इनको मिलकर ,
जिनका जीवन हुआ सहायक हमको सफल बनाने में…
Added by shalini kaushik on September 3, 2012 at 1:58pm — 5 Comments
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