Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 7, 2011 at 11:26pm — 3 Comments
Added by Sanjay Rajendraprasad Yadav on April 7, 2011 at 2:00pm — 4 Comments
हो गया ख़ाक इक शरारे में,
कुछ ना बाकी रहा बेचारे में.
देखो हालात क्या कराते हैं,
खुद शिकारी बंधा है चारे में.
हार खुद हम ही मान बैठे थे,…
ContinueAdded by Akhilesh Krishnawanshi on April 7, 2011 at 1:41pm — 6 Comments
Added by neeraj tripathi on April 7, 2011 at 11:35am — 2 Comments
मै मरघट में जब जाता हूँ ,
मै मर-घट में मर जाता हूँ ,
जब मर और घट न घट पाए..
तो खुद ही मै घट जाता हूँ .//
मै मरघट को समझाता हूँ ,
कि …
ContinueAdded by Rajeev Kumar Pandey on April 7, 2011 at 10:39am — 1 Comment
Added by rajkumar sahu on April 6, 2011 at 11:44pm — No Comments
" जब बात चुक जाए और वक्त रेत की तरह हांथो से फिसल जाए , तो दिल से शिर्फ़ हाय ही निकलती है ! और पश्च्याताप के शिवा कुछ भी हाँथ नहीं लगता, फिर जिंदगी उस पश्च्याताप की आग में जलने लगती है , आप जब मेरे जीवन में आये तो यह येसी भावना से आये तो टूटी-फूटी झोपड़ी में.रुखा-सुखा खा के जीवन ब्यतीत करने के इरादे से आये थे ! लेकिन जहां मेरी जगह होनी चाहिए थी वहां आप ऊँचे-ऊँचे महलों के ख्वाब पाले थे.यह समझने में मुझे बहुत वक्त लग गया,जब बात हमें समझ में आती तब-तक बहुत देर हो चुकी थी,और आप अपने लिए…
ContinueAdded by Sanjay Rajendraprasad Yadav on April 6, 2011 at 4:24pm — No Comments
तितली के इतने रूपों को
कभी न देखा
कभी न जाना परखा मैंने ..
देखा तो बस मैंने इतना
रंगबिरंगी उडती तितली
पलक झपकते पर सिकोड़ती और…
ContinueAdded by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on April 5, 2011 at 10:13am — 5 Comments
Added by rajkumar sahu on April 4, 2011 at 12:09am — 3 Comments
खुली आंखों से भी उसे सब ख्वाब लगता हैं
वो अंधेरें घर में बस एक चिराग लगता हैं
उसके वालिद भी एक कोरी किताब ही थे
वो भी अधूरी हसरतों का जवाव लगता हैं
जिसके माथे पर हर बक्त पसीना रहता हैं
वो खुद ही पाई पाई का हिसाब लगता हैं…
ContinueAdded by अमि तेष on April 3, 2011 at 4:00pm — 2 Comments
Added by Abhinav Arun on April 3, 2011 at 2:47pm — 2 Comments
मेरे ख़्वाबों से हकीक़त का क़रार है तू ,
Added by Veerendra Jain on April 3, 2011 at 11:30am — 5 Comments
Added by rajkumar sahu on April 1, 2011 at 12:22am — 1 Comment
Added by sanjiv verma 'salil' on March 31, 2011 at 12:06pm — 3 Comments
अनमनी आकुल अखिल की आस्थाएं
(मधु गीति सं. १७२५ , दि. १४ मार्च, २०११)
अनमनी आकुल अखिल की आस्थाएं, व्यवस्था की अवस्था का सुर सुधाएं;
चेतना भरकर…
ContinueAdded by GOPAL BAGHEL 'MADHU' on March 31, 2011 at 12:00pm — 2 Comments
नीली ओढ़नी
रात की चादर
पसरे तारे
फूटी है भोर
जागते अरमान
आशा किरण
नई रौशनी
उजालों का सफर
बढ़े काफिले
साँझ की बेला
सूरज परछाईं
ढलता दिन
जीवन चक्र
चलता जाता यूँ ही
बीतते दिन
Added by Neelam Upadhyaya on March 31, 2011 at 10:38am — 3 Comments
मुक्तिका:
हुआ सवेरा
संजीव 'सलिल'
*
हुआ सवेरा मिली हाथ को आज कलम फिर.
भाषा शिल्प कथानक मिलकर पीट रहे सिर..
भाव भूमि पर नभ का छंद नगाड़ा पीटे.
बिम्ब दामिनी, लय की मेघ घटा आयी घिर..
बूँद प्रतीकों की, मुहावरों की फुहार है.
तत्सम-तद्भव पुष्प-पंखुरियाँ डूब रहीं तिर..
अलंकार की छटा मनोहर उषा-साँझ सी.
शतदल-शोभित सलिल-धार ज्यों सतत रही झिर..
राजनीति के कोल्हू में जननीति वृषभ क्यों?
बिन पाये प्रतिदान रहा बरसों…
ContinueAdded by sanjiv verma 'salil' on March 31, 2011 at 9:30am — 1 Comment
देखो हैं खेलत होरी पिया जी...
घेरे हैं उनको सखियाँ हमारी
रंग हैं लगावें जम के पिया जी...
करत है लीला रास मैं जानू
जियरा…
Added by भरत तिवारी (Bharat Tiwari) on March 30, 2011 at 6:30pm — 1 Comment
Added by अमि तेष on March 29, 2011 at 1:00pm — 4 Comments
Added by Veerendra Jain on March 28, 2011 at 3:53pm — 10 Comments
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