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कोई भरी जवानी में भी,
दिल को नहीं भाता है,
कोई अधेड़ कह कर भी,
उमंगें छोड़ जाता है,

उम्र, खुद ही,
अपने मायने तलाश रही है,
अधेड़ कह कर,
अपने ही दिलों में,
तसल्ली के राग,
गा रही है,

ये संस्कार हैं हमारे,
या सामाजिक बंधन,
कि अपने ही कान,
अपने ही दिल को,
नहीं सुनते...
पर लाख कोशिशों,
के बावजूद,
क्या आप अब भी,
सपने नहीं बुनते.....

और जैसा मैंने पहले भी,
कहा है,
पतझड़ के आने से,
तने सूखे नहीं होते,
और महज़ बालों की,
सफेदी से,
दिल बूढ़े नहीं होते,

तो क्यों नहीं उन वादियों में,
बेफिक्र होकर हम विचरते,
क्यों नहीं उन आइनों में,
प्यार से अब हम संवरते,
क्यों नहीं अब वक़्त के,
इन चित्रों में हम रंग भरते,
क्यों नहीं अपनी समझ से,
उम्र का मतलब समझते,

हमारी अवस्था,
इन छोटी छोटी खुशियों में भी,
जब तमन्नाओं का साथ,
पाती हैं,
तो बरबस ही,
किसी शायर की ये पंक्तियाँ,
याद आती हैं,

कि लाख मुश्किलें सही पर,
क्या मुस्कुराना छोड़ दें,
और ज़लज़लों के खौफ से क्या,
घर बनाना छोड़ दें.

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Comment by neeraj tripathi on April 9, 2011 at 3:59pm
aabhar ganeshji

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 8, 2011 at 8:56pm

पतझड़ के आने से,
तने सूखे नहीं होते,
और महज़ बालों की,
सफेदी से,
दिल बूढ़े नहीं होते,

 

बहुत खूब नीरज जी , क्या बात कही है , बहुत ही सुंदर भाव , अच्छी अभिव्यक्ति, बधाई हो ...

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