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बात समझा करो इशारे में...

हो गया ख़ाक इक शरारे में,

कुछ ना बाकी रहा बेचारे में.

 

देखो हालात क्या कराते हैं,

खुद शिकारी बंधा है चारे में.

 

हार खुद हम ही मान बैठे थे,

फर्क तो कम ही था किनारे में.

 

बात ऐसी है इसलिए चुप हूँ,

बात समझा करो इशारे में.

 

जो भी होगा वो देखा जायेगा,

अब तो कश्ती है अपनी धारे में.

 

जब कभी भी मैं सांस लेता हूँ,

सोचता हूँ तुम्हारे बारे में.

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Comment

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Comment by Neelam Upadhyaya on April 11, 2011 at 10:11am

हार खुद हम ही मान बैठे थे,

फर्क तो कम ही था किनारे में

 

Bahut hi badhiya.

Comment by Sanjay Rajendraprasad Yadav on April 9, 2011 at 1:30pm

 

जब कभी भी मैं सांस लेता हूँ,

सोचता हूँ तुम्हारे बारे में.

बहुत खुबसूरत पंक्ति आप की जय हो..........................

Comment by वीनस केसरी on April 8, 2011 at 11:34pm

हो गया ख़ाक इक शरारे में,

कुछ ना बाकी रहा बेचारे में.

 

देखो हालात क्या कराते हैं,

खुद शिकारी बंधा है चारे में.

 

bahut umda sher kahe hain 

aapko bahut bahut badhai

Comment by Tilak Raj Kapoor on April 8, 2011 at 10:43pm
खूबसूरत ग़ज़ल।
बधाई।
Comment by Saahil on April 8, 2011 at 10:04pm

हार खुद हम ही मान बैठे थे,

फर्क तो कम ही था किनारे में.

 

बात ऐसी है इसलिए चुप हूँ,

बात समझा करो इशारे में.

 

waah waah! Akhilesh ji bahut umda ghazal!


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 8, 2011 at 8:53pm
बहुत खूब अखिलेश जी , अच्छी ग़ज़ल कही है आपने ,

हार खुद हम ही मान बैठे थे,
फर्क तो कम ही था किनारे में.

यह शेर मुझे काफी पसंद पड़ा | दाद कुबूल करे !

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