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व्यंग्य - बेचारा भ्रष्टाचार !

देश, भ्रष्टाचार की आग में तप रहा है और भ्रष्टाचारी एसी की ठंडकता का मजा ले रहे हैं। इस छोर से लेकर उस छोर तक केवल भ्रष्टाचार ही छाया हुआ है। भ्रष्टाचार पर भ्रष्टाचार हो रहे हैं और हम हाथ पर हाथ धरे चुप बैठे हैं। देश में इतने बड़े पैमाने पर पहली बार भ्रष्टाचार होने की बात उजागर हुई है, उससे भ्रष्टाचार का रूतबा बढ़ना स्वाभाविक लगता है, मगर जिनके कारण भ्रष्टाचार का जन्म हुआ है, उन्हें तो हम भुला दे रहे हैं ? केवल भ्रष्टाचार पर ही ठिकरा फोड़ रहे हैं, जबकि सब किया धराया तो उन सफेदपोशों का है, जो देश के खजाने को जब चाह रहे, तब खोखला करने तुले हैं। जिस तरह सरकार के सामने जनता खिलौना बनकर रह गई है, कुछ उसी तरह की स्थिति भ्रष्टाचार के समक्ष भी निर्मित हो गई है, क्योंकि समस्या की असली जड़ तो सफेदपोश भ्रष्टाचारी ही हैं। जो भ्रष्टाचार पर भ्रष्टाचार कर रहे हैं और बच निकल रहे हैं। ऐसा लगता है कि यहां जनता के पास कोसने के लिए जैसे भ्रष्टाचार को फ्री कर रखे हैं।

मेरा मानना है कि भ्रष्टाचार के प्रति हम सब का सहानुभूति होनी चाहिए, क्योंकि जब हम भ्रष्टाचारियों की करतूत को भूल जाते हैं और सफेदपोश भ्रष्टाचारी, लोगों की आंखों का तारा बने फिरते हैं। वे जब चाहते हैं, तब सत्ता की कुर्सी पर काबिज होते हैं और भ्रष्टाचार कर हमारी छाती पर मूंग दलते हैं। फिर भी हम कहां सड़क पर उतरते हैं ? कब हम विरोध की सोचते हैं ? ऐसे में भ्रष्टाचार को कैसे हम पूरी तरह दोष दे सकते हैं ?

भ्रष्टाचार का काला साया का असर हर जगह नजर आता है। दिन हो या फिर रात, भ्रष्टाचार का भूत कहीं भी सफेदपोशों पर सवार रहता है। आखिर भ्रष्टाचारियों की हिम्मत इतनी बढ़ क्यों रही है ? जाहिर सी बात है, जनता जनार्दन यही सोच रही है, मेरा क्या जाता है ? यही बात हर किसी के दिमाग में है और भ्रष्टाचारी मजे कर रहे हैं। जब पानी सिर से उपर जाने के हालात बने हैं तो अब हम भ्रष्टाचार को दोष दे रहे हैं। भला, जनता का पैसा लुट रहा है और वहीं हम चुप हैं तो इसमें बेचारा भ्रष्टाचार को कटघरे में खड़े करने का क्या मतलब ? यहां तो वही बात हो रही है, करे कोई और भरे कोई। भ्रष्टाचारी अपनी तिजोरियों को भर रहे हैं और देश के खजाने को चूना पर चूना लग रहा है, बावजूद हमारी आंखें नहीं खुल रही है। इस परिस्थिति में हमें बेचारे भ्रष्टाचार की बेचारगी पर तरस खानी चाहिए।

वैसे भी हमें माफ करने की पुरानी आदत है। भ्रष्टाचार भी हमारे सामने आकर क्षमायाचना करे तो हमारा दिल पिघलना ही चाहिए और उसे माफ करने, एक भी पल का संकोच नहीं करना चाहिए। एक बात है, जनता खुद पर तरस खाती नहीं दिख रही है, ऐसा होता तो बरसों से बंद जुबान जरूर खुलती। भ्रष्टाचारी तो एसी में ऐश को कैस करने कोई भी पल नहीं गंवा रहा है और भ्रष्टाचारी आंकड़ों पर भी चार चांद लगा रहे हैं। मैं तो भ्रष्टाचार को बेचारा ही कहूंगा, क्योंकि वह तो बलि का बकरा है, जो न जाने कब से अपनी खैर मनाने की सोच रहा है, मगर जनता के जुबानी हथियार से केवल भ्रष्टाचार ही आहत हो रहा है, न कि भ्रष्टाचारी। बेचारा भ्रष्टाचार !


राजकुमार साहू
लेखक व्यंग्य लिखते हैं

जांजगीर, छत्तीसगढ़
मोबा - 098934-94714

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