दोहा सलिला
गले मिले दोहा यमक
--संजीव 'सलिल'
*
जिस का रण वह ही लड़े, किस कारण रह मौन.
साथ न देते शेष क्यों?, बतलायेगा कौन??
*
ताज महल में सो रही, बिना ताज मुमताज.
शिव मंदिर को मकबरा, बना दिया बेकाज..
*
भोग लगा प्रभु को प्रथम, फिर करना सुख-भोग.
हरि को अर्पण किये बिन, बनता भोग कुरोग..
*
योग लगाते सेठ जी, निन्यान्नबे का फेर.
योग न कर दुर्योग से, रहे चिकित्सक-टेर..
*
दस सर तो देखे मगर,…
ContinueAdded by sanjiv verma 'salil' on November 12, 2011 at 1:00am — No Comments
भोर
Added by mohinichordia on November 11, 2011 at 9:00am — No Comments
Added by Rajeev Gupta on November 10, 2011 at 8:32pm — 1 Comment
अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद
दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेगें
आज़ाद ही रहे हैं आज़ाद ही रहेगें
अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद को उपरोक्त पंक्तियां अत्यंत प्रिय थी। इन्हे वह अनेक बार गुनगुनाया भी करते थे। चंद्रशेखर आज़ाद ने 27 फरवरी 1931 को ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के कंमाडर इन चीफ की हैसियत से इलाहबाद के अलेफ्रेड…
ContinueAdded by prabhat kumar roy on November 10, 2011 at 8:00am — 3 Comments
एक ग़ज़ल
आपका यूँ मुस्कुराना क्यों मुझे अच्छा लगा ?
एक होना, डूब जाना क्यों मुझे अच्छा लगा ?
जब अकेले हैं मिले, दीवानगी बढ़ती गई,
सिर हिलाना, भाग जाना क्यों मुझे अच्छा लगा ?
हाथ में मेरे, कलाई जब…
ContinueAdded by Afsos Ghazipuri on November 9, 2011 at 12:30am — 4 Comments
प्रैस रिपोर्टर : कुमुद शर्मा
रविवार की रात्री को देव प्रबोधनी एकादशी के अवसर पर त्रिवेणी कला संगम सभागार स्थित तानसेन मार्ग मंडी हॉउस नई दिल्ली में अखिल भारतीय स्वतन्त्र लेखक मंच द्वारा महाकवि कालीदास समारोह आयोजित किया गया जिस के मुख्य अतिथि भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त डाo जीo वीo जीo कृष्ण मूर्ती थे I त्रिवेणी हाल दर्शकों ,मिडिया,पत्रकारों,कलाकारों से खचाखच…
ContinueAdded by Deepak Sharma Kuluvi on November 8, 2011 at 2:45pm — No Comments
त्यागपत्र (कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
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------------- अंक - 9 --------------
रात्रि के 12 बज रहे थे. सिंह साहेब के सम्मान में एक बड़ी दवा कम्पनी ने राजधानी के एक शानदार होटल में भोज का आयोजन किया था. प्रबल बाबू उस दुनिया से बेखबर हो चुके थे, जहाँ गरीबी रेखा से भी नीचे लोग अपना जीवन बसर करते…
ContinueAdded by satish mapatpuri on November 7, 2011 at 8:00pm — 1 Comment
त्यागपत्र (कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
अंक 7 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे
-------------- अंक - 8 --------------
प्रबल प्रताप सिंह अब पूरी तरह बदल चुके थे. उनकी ममता को नैतिकता की वेदी पर अपने बच्चों का भविष्य कुर्बान करना गंवारा नहीं था. जीवन एक चढ़ान का नाम है, जहाँ से इंसान एक बार फिसलता है तो गिरता ही चला जाता है. उत्थान से…
ContinueAdded by satish mapatpuri on November 6, 2011 at 2:30pm — 1 Comment
दोहा सलिला:
गले मिले दोहा यमक
संजीव 'सलिल'
*
तेज हुई तलवार से, अधिक कलम की धार.
धार सलिल की देखिये, हाथ थाम पतवार..
*
तार रहे पुरखे- भले, मध्य न कोई तार.
तार-तम्यता बनी है, सतत तार-बे-तार..
*
हर आकार -प्रकार में, है वह निर-आकार.
देखें हर व्यापार में, वही मिला साकार..
*
चित कर विजयी हो हँसा, मल्ल जीत कर दाँव.
चित हरि-चरणों में लगा, तरा मिली हरि छाँव..
*…
Added by sanjiv verma 'salil' on November 5, 2011 at 1:23pm — No Comments
छत्तीसगढ़ के 11 बरस होने पर राज्य सरकार जहां प्रदेश के सभी जिलों में राज्योत्सव जैसे आयोजन कर खुशियां मनाने में जुटी हैं, वहीं एक तबका ऐसा भी है, जो अपने सीने में अपनों की मौत का दर्द लिए बैठा है। समय गुजरने के बाद भी उनकी टीस कम होने का नाम नहीं ले रही है। राज्य सरकार की बेरूखी ने उनकी तकलीफों को और बढ़ा दी है।
साल भर पहले 5 अगस्त 2010 को जम्मू के ‘लेह’ में बादल फटने से जिले के दर्जनों गांवों से रोजी-रोटी की तलाश में गए मजदूरों की बड़ी संख्या में मौत हो गई और सैकड़ों लोग घायल हो गए, जिसका…
Added by rajkumar sahu on November 5, 2011 at 12:02pm — No Comments
त्यागपत्र (कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
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-------------- अंक - 7 --------------
प्रबल बाबू की खामोशी यह बता रही थी कि उनके भीतर विचारों का सैलाब उमड़ रहा है. कहीं नेक विचार उनके भीतर के जग रहे शैतान को पराजित न कर दे, यह सोचकर अध्यक्ष ने उनकी स्वार्थपरता को हवा देना जारी रखा. ........ 'आज समाज…
ContinueAdded by satish mapatpuri on November 5, 2011 at 11:30am — 2 Comments
हम अधिकतर कहते-सुनते रहते हैं कि चिंता व चिता में महज एक बिंदु का फर्क है। देश की करोड़ों गरीब जनता, महंगाई की आग में जल रही है और उन्हें चिंता खाई जा रही है। वे इसी चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं। महंगाई के कारण ही कुपोषण ने भी उन्हें घेर लिया है। जैसे वे गरीबी से जिंदगी की लड़ाई लड़ रहे हैं, वैसे ही महंगाई के कारण गरीब, हालात से लड़ रहे हैं। महंगाई की चिंता अब उनकी ‘चिता’ बनने लगी है। वैसे मरने के बाद ही हर किसी को चिता में लेटना पड़ता है और जीवन से रूखसत होना पड़ता है। महंगाई ने इस बात को धता…
ContinueAdded by rajkumar sahu on November 4, 2011 at 11:12pm — No Comments
त्यागपत्र (कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
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-------------- अंक - 6 ---------------
दोषी लोगों को सज़ा दिलाने के लिए प्रबल प्रताप सिंह कृतसंकल्प थे, किन्तु राजनीतिक हलकों में उनकी पहुँच अच्छी थी. पार्टी अध्यक्ष उमाकांत ने सिंह साहेब से स्वयं मिलकर कहा - ' आपने जिन लोगों को दोषी करार दिया…
Added by satish mapatpuri on November 4, 2011 at 2:00am — 2 Comments
ये जो जिस्म है, क्या तिलिस्म है,
कुदरत की कैसी ये किस्म है?
मैं बहक गया, वो चहक गया,
मैं तो शोला था, सो दहक गया।…
ContinueAdded by Subhash Trehan on November 3, 2011 at 3:50pm — No Comments
त्यागपत्र (कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
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-------------- अंक - 5 ---------------
... एक दिन सुबह-सुबह प्रबल बाबू ने समाचार पत्र उठाया ही था किउन्हें सांप सूंघ गया... " नकली दवा के कारण सात लोगों की मौत "
खबर ने तो उन्हें झकझोर कर रख दिया. समाचार के विस्तार में लिखा था -- " सरकारी अस्पताल…
ContinueAdded by satish mapatpuri on November 3, 2011 at 3:00am — 2 Comments
ताजा सिर्फ सियासी है.
Added by AVINASH S BAGDE on November 2, 2011 at 9:00pm — 4 Comments
मुझे पता है कि देश में संभवतः कोई विषय ऐसा नहीं होगा, जिस पर अब तक पीएचडी ( डॉक्टर ऑफ फिलास्फी ) नहीं हुई होगी। कई विषय तो ऐसे हैं, जिसे रगडे पर रगड़े जा रहे हैं। कुछ समाज के काम आ रहे हैं तो कुछ कचरे की टोकरी की शोभा बढ़ा रहे हैं। ये अलग बात है कि कुछ विषय ही इतने भाग्यशाली हैं कि उसे जो भी अपनाता है, वह बुलंदी छू लेता है। पीएचडी के लिए मुझे लगता है कि आपमें विषय चयन की काबिलियत होनी चाहिए, उसके बाद फिक्र करने की जरूरत नहीं होती। विषय तय होने के बाद सामग्रियां जहां-तहां से मिल ही जाती हैं,…
ContinueAdded by rajkumar sahu on November 2, 2011 at 11:00am — 1 Comment
त्यागपत्र (कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
-------------- अंक - 4 --------------- '
अंक 3 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे
मैं कुछ समझा नहीं ..' प्रबल बाबू के माथे पर बल पड़ गए थे. उनकी इस असहज स्थिति का लाभ उठाने में उमाकान्त जी ने कोई कसर नहीं छोड़ी. अपने सपाट से चेहरे पर कुटिल मुस्कान लाते हुए उन्होंने तत्क्षण कहा -…
ContinueAdded by satish mapatpuri on November 2, 2011 at 2:00am — 3 Comments
पुरुषों की सत्ता बोलें या
Added by AVINASH S BAGDE on November 1, 2011 at 8:00pm — 6 Comments
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