त्यागपत्र (कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
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-------------- अंक - 8 --------------
प्रबल प्रताप सिंह अब पूरी तरह बदल चुके थे. उनकी ममता को नैतिकता की वेदी पर अपने बच्चों का भविष्य कुर्बान करना गंवारा नहीं था. जीवन एक चढ़ान का नाम है, जहाँ से इंसान एक बार फिसलता है तो गिरता ही चला जाता है. उत्थान से अवसान रंगीन होता है और यही रंगीनी मंजिल तक पहुँचने से रोकती है. सिंह साहेब को दौलत की तराजू में इंसानियत को तौलना आ चुका था. नकली दवाओं से लोग मरते रहे और प्रबल बाबू मुआवजा की घोषणा के साथ गहरी सहानुभूति व्यक्त करते रहे. कितनी अधखिली कलियाँ असमय कुम्हला गयी पर सिंह साहेब का गुलशन गुलज़ार होता रहा. अब वे जन - प्रतिनिधि नहीं, एक लोकप्रिय सरकार के मंत्री थे. कल तक सदन में सिंह की तरह दहाड़ने वाले सिंह साहेब को पांच सितारा होटल में ऐश करने का सलीका आ चुका था. सिंह ने मखमल का लिहाफ ओढ़ लिया था. दवा के नकली कारोबारियों के जेहन से जैसे ही प्रबल बाबू का खौफ ख़तम हुआ उनकी हिम्मत और बढ़ गयी. शासन का संरक्षण अपराधियों को दुस्साहसी बना देता है.
अपने पुत्र रंजन प्रताप सिंह को विदेश में पढ़ाने का सिंह साहेब ने दृढ़ निश्चय कर लिया था. उनका यह मानना था कि जब तक रंजन विदेश से ऊँची डिग्री लेकर लौटेगा तब तक सरकारी हलकों में उनका अच्छा दबदबा हो चुका रहेगा. उनकी तमन्ना थी कि एकदिन भारत के क्षितिज पर रंजन नक्षत्र के समान प्रकाशमान हो, पर उनकी तमाम कोशिशों के बाद भी रंजन का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था. उसे यदि जुकाम होता तो डॉक्टरों की लम्बी कतार लग जाती. अपनी शान वो शौकत देखकर प्रबल बाबू को एक अज़ीब आनंद की अनुभूति होती. मनुष्य वर्त्तमान में जीने का आदी होता है और वर्त्तमान इतना स्वार्थी होता है कि भविष्य के बारे में सोचने तक की मोहलत नहीं देता. ........................................... (क्रमश:)
Comment
कहानी वाचन में हुआ व्यतिक्रम क्षम्य हो. किन्तु इस प्रवाह में कोई ओट नहीं आ पाया है.
त्यागपत्र कहानी के कैनवास और तदनुरूप कथ्य को कुछ बेहतरीन पंच-लाइनों का मिला सहयोग कहानी की रोचकता में वृद्धि कर रहा है. यथा, जीवन एक चढ़ान का नाम है, जहाँ से इंसान एक बार फिसलता है तो गिरता ही चला जाता है. या, जीवन एक चढ़ान का नाम है, जहाँ से इंसान एक बार फिसलता है तो गिरता ही चला जाता है. ........ ...
वाह !!
बहुत अच्छे, सतीश भाई जी.बहुत अच्छे.. .
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