त्यागपत्र (कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
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-------------- अंक - 7 --------------
प्रबल बाबू की खामोशी यह बता रही थी कि उनके भीतर विचारों का सैलाब उमड़ रहा है. कहीं नेक विचार उनके भीतर के जग रहे शैतान को पराजित न कर दे, यह सोचकर अध्यक्ष ने उनकी स्वार्थपरता को हवा देना जारी रखा. ........ 'आज समाज में आपकी प्रतिष्ठा है, आपके पास बंगला - मोटर, नौकर - चाकर क्या नहीं है ? ' ............ उमाकांत जी को पता था कि सिंह साहेब के पास बाप -दादाओं की छोड़ी हुई कोई बड़ी सम्पति नहीं है. ................. उमाकांत जी ने अपना धाराप्रवाह व्याख्यान जारी रखा - ' प्रबल बाबू ! मैं जानता हूँ, आप निष्कपट, निश्छल और सरल ह्रदय के सज्जन व्यक्ति हैं. सच मानिए, मैं आपका शुभेच्छु हूँ .................... कल जब आप मंत्री नहीं होंगे, तो क्या ये आदर्श, ये विचार आपके परिवार को एक वक़्त का भोजन दे सकते हैं ?............यह दुनिया उसीके सामने झुकती है सिंह साहेब, जिसका समाज में स्टेटस होता है .............. मैं ये नहीं कहता कि लोगों की मदद न करें, जनहित एवं लोकहित की भावना न रखें ............. बस मैं ये कहना चाहता हूँ कि व्यावहारिक बनिए ................... नैतिकता अभाव की संतान है किन्तु, आपको तो किस्मत ने सब कुछ दिया है प्रबल बाबू. आप जन नेता होने के साथ एक पिता भी हैं, क्या आपको शौक नहीं होगा कि आपकी बेटी किसी रईस और सम्पन्न घराने की बहु हो ? ........... बेटा विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त करे ? मैं आपके बड़े भाई के समान हूँ, गलत सलाह नहीं दूंगा.' अध्यक्ष महोदय के व्यक्तिवादी भाषण की आशातीत प्रतिक्रया हुई. आज का इंसान इस कदर कमजोर हो चुका है कि स्वार्थ से टक्कर होते ही टूट जाता है. संगत से गुण होत है - संगत से गुण जात, ये कहावत एक बार फिर अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करने जा रही थी. पता नहीं, वो लोग कैसे होते हैं, जिनके लिए कहा गया है कि चन्दन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग. प्रबल प्रताप सिंह का चरित्र - निर्माण करनेवाले तत्वों में ही शायद कोई खोट थी.
प्रबल प्रताप सिंह को अब यही सोचना हितकर लग रहा था कि उनका इकलौता पुत्र विदेशों में शिक्षा ग्रहण करके उनका नाम रौशन करे - बिटिया शीला किसी बड़े घराने की बहु बने और इन सपनों को मूर्त रूप देने के लिए नैतिकता की नहीं - संपदा की आवश्यकता होगी. इंसान जैसा सोचता है - स्थितियाँ वैसी ही नज़र आती हैं. गोस्वामी जी की कल्पना साकार हो रही थी कि - जाके ह्रदय भावना जैसी, प्रभु मूरत देखि तिन तैसी. इंसान के भीतर का शैतान अनुकूल वातावरण पाते ही अंगड़ाई लेकर जाग उठता है. .............. (क्रमश:)
Comment
त्यागपत्र में वर्तमान सामाजिक परिवेश और उसकी विसंगतियां प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त हो रही हैं सतीश जी ! इस विस्तृत फलक की परिकल्पना और प्रस्तुति के हार्दिक साधुवाद !!
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