हम अधिकतर कहते-सुनते रहते हैं कि चिंता व चिता में महज एक बिंदु का फर्क है। देश की करोड़ों गरीब जनता, महंगाई की आग में जल रही है और उन्हें चिंता खाई जा रही है। वे इसी चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं। महंगाई के कारण ही कुपोषण ने भी उन्हें घेर लिया है। जैसे वे गरीबी से जिंदगी की लड़ाई लड़ रहे हैं, वैसे ही महंगाई के कारण गरीब, हालात से लड़ रहे हैं। महंगाई की चिंता अब उनकी ‘चिता’ बनने लगी है। वैसे मरने के बाद ही हर किसी को चिता में लेटना पड़ता है और जीवन से रूखसत होना पड़ता है। महंगाई ने इस बात को धता बता दिया है और लोगों को जीते-जी मरने के लिए मजबूर हैं।
‘महंगाई की चिता’ में ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब गरीबों को लेटना नहीं पड़ता। गरीबी की मार झेल रहे गरीब, बरसों से ऐसे ही मुश्किल में थे, उपर से महंगाई की मार से जीवन-मरण का ले-आउट तैयार हो गया है। गरीब पहले गरीबी से त्रस्त हुआ करते थे, अब उनका एक और दुश्मन पैदा हो गई है, वह है महंगाई डायन। कहा जाता है कि डायन भी एक घर छोड़कर हाथ आजमाती है, लेकिन यहां तो उल्टा ही हो रहा है। महंगाई डायन की मार से कोई घर अछूता नहीं है। हर कहीं इसका साया मंडरा रहा है।
महंगाई ने जैसे सरकार को जकड़ ही रखी है और वह उसकी जद से बाहर ही नहीं आ पा रही है। सरकार की करनी को जनता भोग रही है और जनता को सरकार सात नाच नचा रही है, कुछ वैसा ही, जैसे महंगाई, सरकार की नाक में दम कर उसके माथे पर नाचते हुए इतराती है। महंगाई बढ़ते ही सरकारी बेचारी बन जाती है और महंगाई डायन। इस बीच सबसे ज्यादा कोई चिंतित होता है तो वह देश की करोड़ों गरीब भूखे-नंगे लोग। जिन्हें दो जून की रोटी के लिए ‘योजना आयोग’ के मोंटेक बाबू की ओर टकटकी लगाए बैठने पड़ते हैं। वे जिन्हें गरीब कह दें, वह गरीब। वे गरीबों को रातों-रात कागजों में अमीर बनाने की पूरी क्षमता रखते हैं, इसलिए गरीबों का गरीबी से अब 36 का नहीं, बल्कि 26 व 32 का आंकड़ा हो गया है।
जब भी गरीबी का दुखड़ा रोते हुए गरीब लाचारी दिखाता है, इस बीच महंगाई आ धमकती है। सरकार को हर समय धमकाती ही रहती है, जनता के जख्मों को कुरेदने का भी काम करती है। जब भी आती है, कयामत बनकर आती है। गरीबी के झटके सहने, देश की जनता आदी हो चुकी है, लेकिन महंगाई के करंट सहने की ताकत अब उनमें बाकी नहीं है। पिछले एक दशक से महंगाई की मार से जनता पूरी तरह पस्त हो चुकी है। जब सरकार की सारी ताकत फेल हो जा रही है, हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री नतमस्तक नजर आ रहे हैं, ऐसे हालात में अनपढ़ व गरीब जनता का क्या मजाल कि वे महंगाई जैसी डायन के आगे ठहर सकेगी ? यही कारण है कि ‘महंगाई की चिता’ में करोड़ों जनता घुट-घुटकर रोज मर रही हैं और जब उफ कहने की बारी आती है तो जुबान को ‘महंगाई की चिंता’ रोक लेती है।
महंगाई के कारण जनता न जाने हर दिन कितनी मौत मरती है, बाजार जाते ही वस्तुओं के दाम सुनते ही हर समय उन्हें नरक के दर्शन होते हैं। एकाएक ऐसा नजारा हो जाता है, जैसे केवल हाड़-मांस ही खड़ा हो। जनता का खून महंगाई इस तरह चूस रही है, जैसे सत्ता के मद चूर कारिंदे, गरीबों का खून बरसों से चूसते आ रहे हैं। अब बेचारी जनता क्या कर सकती है, बस ‘महंगाई की चिता’ में लेटी है और उसकी आग उसे न चाहने पर भी जलाए जा रही है। गरीबों का शरीर भले ही नहीं जल रहा है, लेकिन कलेजे रोज अनगिनत बार छलनी होते हैं। क्या करें, जब किस्मत में ही महंगाई के कारण जिंदा मरना लिखा है।
राजकुमार साहू
लेखक व्यंग्य लिखते हैं।
जांजगीर, छत्तीसगढ़
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