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जिन्दगी का सच-विरह

विरह की बेला चुप सी आती

कर्मभूमि और गृहस्ती में

होले होले कदम बढाती

सुख समृधि को, मिटा

अंतर्मन में भेद करा

मन की शांति, भंग कर जाती

काल चक्र सा एक रचा

रह रह कर

भ्रम जाल में हमें फंसाती

ढंग बेढंग के करतब करा

इन्सान से हमको,

पशु बनाती

वक़्त की नजाकत को समझ

नट बना, इंसान नचाती

ऐसा अपना रंग दिखाती

जब तक समझ में

आता कुछ भी

तब तक सब कुछ

धुल में सब कुछ ये मिलाती

पल भर में ये नेत्र भिगो

हमारे अस्तिव का बोध कराती

लहर…

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Added by PHOOL SINGH on November 5, 2012 at 2:30pm — 1 Comment

हरिगीतिका छंद

छम छम करे हरी पाँव पैजनि ,, करधनी कटि साजती

चलते ठुमुक नन्द लाल निरखति,, काम कोटिन लाजती 

यों लाग माखन देखि मुख हरि ,, काग मन लालच भयो 

जूठन मिले जो आज हरि मुख ,, सोच आँगन वह गयो

चिदानन्द शुक्ल "संदोह "

Added by Chidanand Shukla on November 5, 2012 at 1:42pm — 2 Comments

"विरह गीत" - लतीफ़ ख़ान, दल्लीराजहरा.

विरहन का क्या गीत अरे मन |

प्रियतम प्रियतम, साजन साजन ||



जब से हुए पी आँख से ओझल,

प्राण है व्याकुल साँस है बोझल,

किस विध हो अब पी के दर्शन || विरहन का...



प्रीत है झूटी सम्बन्ध झूटा,

सौगंध झूटी अनुबन्ध झूटा,

मिथ्या मन का हर गठबन्धन || विरहन का...



जब दर्पण में रूप सँवारूँ,

अपनी छवि में पी को निहारूँ,

मेरी व्यथा से अनभिज्ञ दर्पण || विरहन का...



दुख विरहन का किस ने जाना,

अपने भी अब मारें…

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Added by लतीफ़ ख़ान on November 5, 2012 at 1:30pm — 5 Comments

कुछ दोहे

कितना कुछ सुलगा बुझा, तेरे-मेरे बीच

ख्‍वाबों में भी हम मिले, अपने जबड़े भींच

कैसे फूलों में लगी, ऐसी भीषण आग

कोयल तो जलकर मरी, शेष बचे बस नाग

जबसे तुम प्रियतम गए, गूंगा है आकाश

तृन-टुनगों पर हैं पड़े, अरमानों की लाश

बिखरा-बिखरा दिन ढला, सूनी-सूनी शाम

तारों पर लिखता रहा, चंदा तेरा नाम

तुम बिन कविता क्‍या लिखूं, दोहा, रोला, छंद

भाव चुराते शब्‍द हैं, लय भी कुंठित, मंद

Added by राजेश 'मृदु' on November 5, 2012 at 12:46pm — 7 Comments

मुक्तछंद कविता सम जीवन...

मुक्तछंद कविता सम जीवन,

तुकबंदी की बात कहाँ है ||

लय, रस, भाव, शिल्प संग प्रीति |

वैचारिक सुप्रवाह की रीति ||

अलंकार से कथ्य चमकता |

उपमानों से शब्द दमकता ||

यगण-तगण जैसे पाशों से,

होता कोई साथ कहाँ है |

मुक्तछंद कविता सम जीवन,

तुकबंदी की बात कहाँ है ||

अनियमित औ स्वच्छंद गति है |

भावानुसार प्रयुक्त यति है ||

अभिव्यक्ति ही प्रधान विषय है |

तनिक नहीं इसमें संशय है ||

ह्रदयचेतना से सिंचित ये,

ऐसा यातायात कहाँ है |

मुक्तछंद…

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Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on November 5, 2012 at 8:38am — 12 Comments

कैसे धर लूं धीर पिया मैं इन आँखों की प्याली में

रो रोकर हार गया काजल

हार गये बिछुए कंगना

समझा दो तुम ही तुम बिन

अब कैसे जिएगा ये अंगना

कैसे आयें प्राण कहो अब नथ,बिंदियाँ और लाली में

कैसे धर लूं धीर पिया मैं इन आँखों की प्याली में



सब देखें छत चढ़ चढ़ चन्दा,

पर मेरा चन्दा रूठ गया

दिल का बसने वाला था जो

कितना पीछे छूट गया

कैसे रंग रहे होली में कैसी चमक दिवाली में

कैसे धर लूं धीर पिया मैं इन आँखों की प्याली में



जनम जनम की कसमें सारी

इक क्षण में ही तोड़ चले

तुम क्या जानो अंखियों से…

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Added by Pushyamitra Upadhyay on November 4, 2012 at 9:44pm — 5 Comments

तृष्णा हर ले साकी

 
 
मुग्ध हुआ देख तेरे चितवन नयनों का प्याला,
मेरे नयनों में लेलु थोड़ी,तेरी मुग्ध…
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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 4, 2012 at 5:30pm — 5 Comments

ग़ज़ल "बह्र मुजारे मुसम्मन अखरब मक्फूफ़ महजूफ"

===========ग़ज़ल=============

बह्र मुजारे मुसम्मन अखरब मक्फूफ़ महजूफ

वज्न- २ २ १ - २ १ २ १ - १ २ २ १ - २ १ २



चेह्रा है आपका या हसीं माहताब है

ये नाजुकी बदन की बड़ी लाजबाब है



गोरा बदन है ऐसे के छू लें तो सुर्ख हो…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on November 4, 2012 at 4:50pm — 6 Comments

मेरा पहला ब्याह (हास्य कविता)

मेरा पहला ब्याह (हास्य कविता)

मजदूर व्यापारी कामगार 

शिक्षित हो या बेरोजगार 
होता क्रेज कब हो सगाई 
ब्याह रचे घर आये लुगाई 
यौवन रथ  खड़ा था द्वार 
मुझे हो गया उनसे  प्यार …
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Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on November 4, 2012 at 2:52pm — 13 Comments

वैदेही सोच रही मन में यदि प्रभु यहाँ मेरे होते !!

वैदेही सोच रही मन में यदि प्रभु यहाँ मेरे होते 

लव-कुश की बाल -लीलाओं का आनंद प्रभु संग में लेते .



जब प्रभु बुलाते लव -कुश को आओ पुत्रों समीप जरा ,

घुटने के बल चलकर जाते हर्षित हो जाता ह्रदय मेरा ,

फैलाकर बांहों का घेरा लव-कुश को गोद उठा लेते !

वैदेही सोच रही मन में यदि प्रभु यहाँ मेरे होते !!



ले पकड़ प्रभु की ऊँगली जब लव-कुश चलते धीरे -धीरे ,

किलकारी दोनों…

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Added by shikha kaushik on November 3, 2012 at 11:30pm — 9 Comments

सबसे मिलना तो इक बहाना है

सबसे मिलना तो इक बहाना है

कौन अपना है अजमाना है 



मै कोई ख्वाब आँखों में सजाता ही नहीं

इल्म होता जो बिखर जाना है



बड़े जतन से रक्खा था सहेजा था जिसे 

सब्र का लुट रहा वही खज़ाना है



है मिरी हिम्मत पत्थर या संगेदिल तू

ये वक्त तुझको भी अजमाना है


ग़मों की दरिया को ग़र है ऐतबार मुझपे

तो फ़र्ज़ मुझको भी समंदर का निभाना है



झूंठ है की मै तेरा कुछ भी नहीं मगर

रिश्ता खुद से…
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Added by ajay sharma on November 3, 2012 at 11:00pm — 3 Comments

गजल कहने की कोशिश जारी है-

मोटी-चमड़ी पतला-खून ।
नंगा भी पहने पतलून ।

भेंटे नब्बे खोखे नोट -
भांजे दर्शन अफलातून ।

भुना शहीदी दादी-डैड
*शीर्ष-घुटाले लगता चून ।
*सिर मुड़ाना / चोटी के घुटाले

पंजा बना शिकंजा खूब-
मातु-कलेजी खाए भून ।

मिली भगत सत्ता पुत्रों से
लूटा तेली लकड़ी-नून ।

दस हजार की रविकर थाल
उत फांके हों दोनों जून ।

Added by रविकर on November 3, 2012 at 5:00pm — 10 Comments

भ्रष्टाचार मुनि और महारानी कटारिया (हास्य व्यंग )

ध्रष्ट मुनि के कर्ण प्रिय वचन सुन भ्रष्ट मुनि पुनः समाधी में चले गए. इधर ध्रष्ट मुनि अपने चेहरे पर कुटिल  मुस्कान बिखेरते हुए  अपने कक्ष में विश्राम हेतु गए. कक्ष में पहुँचने पर ध्रष्ट  मुनि ने अपने अनुचर से विटामिन 'आर' और विटामिन ' के ' के १०१ इंजेक्शन लगवाये और शैया पर लेट आगे की रणनीति क्या हो विचार करने लगे. विचार- करते करते कब नींद आ गयी मुनि को पता ही न चला. रात्रि  का अंतिम प्रहर था मुनि गहरी निद्रा में थे कि तभी उनके कक्ष का तापमान बढ़ने लगा. बढ़ते तापमान…
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Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on November 3, 2012 at 2:30pm — 9 Comments

वाह -वाह क्या बात है !

काव्यगोष्ठी , परिचर्चा

कभी किसी विषय का विमोचन ,

आये दिन होते रहते

कविता पाठ के मंचन .

बाज़ न आते आदत से

ये कवियों की जो जात है .

वाह -वाह क्या बात है !

वाह -वाह क्या बात है !



इन्हें आदत है बोलने की

ये बोलते जायेंगे ,

हमारा क्या है , हम भी

सुनेंगे , ताली बजायेंगे .

पल्ले पड़े न पड़े , कोई फर्क नहीं

बस ढiक का तीन पात है .

वाह -वाह क्या बात है !

वाह -वाह क्या बात है !



ये निठल्ले , निकम्मे कवि

बे बात के ही पड़ते…

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Added by praveen singh "sagar" on November 3, 2012 at 2:00pm — 7 Comments

मेरे जीवन साथी

वचन दिया जो तुमने प्रीतम

जीवन भर साथ निभाने का

पवित्र अग्नि को साक्षी मान

परिस्तिथियों से ना घबराने का

 

साथ फेरों का बंधन दे

अपना बनाया मेरा मन

हर ख़ुशी कर, मुझे अर्पण

प्रेम की ज्योति चित जगा

कदम मिलाकर चलूंगी में भी

बन संगनी तेरी हमदम

 

सूर्योदय से सूर्यास्त तक

तुझे निहारूं

लम्बी उम्र की दुआ मैं मांगूं

नेत्र में तेरा अक्स बना

तुझे मैं चाहूं उम्र भर

हर पल और जीवन…

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Added by PHOOL SINGH on November 3, 2012 at 1:07pm — No Comments

पापा मम्मी आप भी आओ

पापा मम्मी आप भी आओ



उन पुरानी गलिओं से फिर

ख्याल अपने दिल तक आये

आँगन में थे खिलते उन कलियों से

सवाल अपने दिल तक आये

दौरते आते सारे किस्से

कोई बैठकर मुझे सुनाओ

आँखे तरस रही दर्शन को

पापा मम्मी आप भी आओ





गहरी जाती उन घाटीयों से

संकराति गूंजे घूम रही हैं

चट्टानों पे रेत की बूंदे

अब भी मानो झूम रही हैं

भूलते जाते उन पन्नो से

पुरानी कुछ गजलें सुनाओ …

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Added by AJAY KANT on November 3, 2012 at 12:27pm — 3 Comments

आज के दिन दिनांक 3 नवम्बर,1688 को जयपुर के संथापक सवाई जय सिंह का जन्म हुआ था, उन्हें काव्यमय श्रद्धांजलि -

 

वेध शालाओ के संथापक -
धर्म ज्योतिष व् संस्कृति के मसीहा,
राजाओ में राजा एक हुए तनहा 
राजनीतिज्ञ,कुशल प्रशासक 
जयपुर के संस्थापक
अश्वमेघ यज्ञ के अंतिम चक्रवर्ती
जाकी शोभा जगत में…
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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 3, 2012 at 11:23am — 2 Comments

यूं ही खामोश रहो ...

जब कभी मेरी बात चले 

ख़्वाब में भी कोई ज़िक्र चले 

मेरे हमदम मेरे हमराज़ 

यूं ही खामोश रहो 

शायद ही कभी 

ठिठुरते हुए बिस्तर पे 

कभी चांदनी बरसे 

या फिर झील के ठहरे हुए पानी में 

कभी लहरे मचले 

जब कभी आँखों के समंदर में 

कोई चाँद उतरे 

मेरे हमदम मेरे हमराज 

यूं ही खामोश रहो…

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Added by Gul Sarika Thakur on November 2, 2012 at 10:05pm — 9 Comments

गीत: उत्तर, खोज रहे... --संजीव 'सलिल'

गीत:

उत्तर, खोज रहे...

संजीव 'सलिल'

*

उत्तर, खोज रहे प्रश्नों को, हाथ न आते।

मृग मरीचिकावत दिखते, पल में खो जाते।

*

कैसा विभ्रम राजनीति, पद-नीति हो गयी।

लोकतन्त्र में लोभतन्त्र, विष-बेल बो गयी।।

नेता-अफसर-व्यापारी, जन-हित मिल खाते...

*

नाग-साँप-बिच्छू, विषधर उम्मीदवार हैं।

भ्रष्टों से डर मतदाता करता गुहार है।।

दलदल-मरुथल शिखरों को बौना बतलाते...

*

एक हाथ से दे, दूजे से ले लेता है।

संविधान बिन पेंदी नैया खे लेता…

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Added by sanjiv verma 'salil' on November 2, 2012 at 5:56pm — 7 Comments

किस्मत भी मुझको चिढाने लगी है दोस्तों ..........

मौत भी अब तो बहाने बनाने लगी है दोस्तों

देखकर उनको ये भी नखरे दिखाने लगी है दोस्तों



हार जाना ही था शायद हिम्मत को मेरी

किस्मत भी मुझको चिढाने लगी है दोस्तों



क्या थी जिन्दगी और क्या हो गई है

रौशनी भी अब डराने लगी है दोस्तों



खो गये मेरे ख्वाब इस शहर में न जाने कहाँ

हकीक़त ही बस अब भाने लगी है दोस्तों



हो गई दोस्ती मेरी गमो से कुछ यूँ

खुशियाँ अब मुझको रुलाने लगी है दोस्तों 



कहो तुम ही अब अंजाम-ए-जिन्दगी क्या हो…

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Added by Sonam Saini on November 2, 2012 at 1:55pm — 12 Comments

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