Added by Deepak Sharma Kuluvi on November 27, 2012 at 2:45pm — 5 Comments
Added by Shyam Narain Verma on November 27, 2012 at 2:28pm — 5 Comments
Added by Shyam Narain Verma on November 27, 2012 at 2:25pm — 1 Comment
मर्द बोला हर एक फन मर्द में ही होता है ,
औरत के पास तो सिर्फ बदन होता है .
फ़िज़ूल बातों में वक़्त ये करती जाया ,
मर्द की बात में कितना वजन होता है !
हम हैं मालिक हमारा दर्ज़ा है उससे ऊँचा ,
मगर द्गैल को ये कब सहन होता है ?
रहो नकाब में तुम आबरू हमारी हो ,
बेपर्दगी से बेहतर तो कफ़न होता है .
है औरत बस फबन मर्द के घर की 'नूतन'
राज़ औरत के साथ ये भी दफ़न होता है…
Added by shikha kaushik on November 27, 2012 at 1:30pm — 9 Comments
दिल लगाकर प्रीत बढ़ाकर चल दिये ।
अपना बनाकर दिल चुराकर चल दिये ।
अब जायेगें कब आयेगें दिल है बेकरार ,
वादा करके , गुल खिलाकर चल दिये ।
भूल ना जाये ये कहीं दुष्यन्त की तरह ,
साथ निभाकर दिल लगाकर चल दिये ।
हर किसी से दिल लगाना कितना मुश्किल ,
कभी ना भूलेगे आस दिलाकर चल दिये ।
दिल कहता रहा अब ना जाओ छोड़कर ,
वर्मा देके दिलासा , हाथ मिलाकर चल दिये ।
Added by Shyam Narain Verma on November 27, 2012 at 11:30am — 3 Comments
मुक्तिका:
हो रहे
संजीव 'सलिल'
*
घना जो अन्धकार है तो हो रहे तो हो रहे।
बनेंगे हम चराग श्वास खो रहे तो खो रहे।।
*
जमीन चाहतों की बखर हँस रही हैं कोशिशें।
बूंद पसीने की फसल बो रहे तो बो रहे।।
*
अतीत बोझ बन गया, है भार वर्तमान भी।
भविष्य चंद ख्वाब, मौन ढो…
Added by sanjiv verma 'salil' on November 27, 2012 at 9:24am — 3 Comments
धन से पत्थर पूजते ,मन में लेकर पाप
ये आडम्बर देखकर ,निर्धन देगा श्राप
निर्धन देगा श्राप ,उलट फल देगी पूजा
दीन धर्म से श्रेष्ठ , कर्म ना कोई दूजा
मन में रख सद्भाव ,करो सभी भक्ति मन से
निर्धन का हर घाव , भरो उसी शक्ति धन से
********************************************
Added by rajesh kumari on November 27, 2012 at 9:22am — 6 Comments
बहुत पहले 'दिल' और 'दिमाग' अच्छे दोस्त हुआ करते थे। उनका उठना-बैठना, देखना-सुनना, सोचना-समझना और फैसले लेना, सब कुछ साथ-साथ होता था।
फिर इक रोज़ यूँ हुआ कि 'दिल' को अपने जैसा ही एक हमख्याल 'दिल' मिला। दोनों ने एक दूसरे को देखा और देखते ही, धड़कनों की रफ़्तार बढ़ी सी मालूम हुई। मिलना-जुलना बढ़ा तो कुछ रोज़ में, दिलों की अदला-बदली भी हो गयी। अब एक दिल मचलता तो दूसरे की धड़कने भी तेज हो जातीं; एक रोता तो दूजे की धड़कने भी धीमे होने लगतीं। बस एक दिक्कत थी कि दोनों सही फैसले नहीं कर पाते…
Added by विवेक मिश्र on November 27, 2012 at 2:30am — 15 Comments
Added by सूबे सिंह सुजान on November 26, 2012 at 11:41pm — No Comments
चाँद को भी हम कब तलक देखें
न देखें तुम्हे तो क्या फलक देखें
खुद चला आया जो आफताब आँखों में
फिर क्या किसी शम्मा की झलक देखें
आने का यकीं दे चले थे मुस्कुरा के वो
कुछ और हम ये तनहा सड़क देखें
वो न देखें मेरे ये लडखडाये से कदम
देखना है तो मेरी आँखों में चमक देखें
क्या देखते हैं आप यूं काफियों को घूर कर
मिल जाए जो जहां बस सबक देखें
-पुष्यमित्र उपाध्याय
Added by Pushyamitra Upadhyay on November 26, 2012 at 10:36pm — 7 Comments
टुकड़ों टुकड़ों में ही बँटकर जाना पड़ता है
अपनी माटी से जब कटकर जाना पड़ता है
परदेशों में नौकर भर बन जाने की खातिर
लाखों लोगों में से छँटकर जाना पड़ता है
गलती से भी इंटरव्यू में सच न कहूँ, इससे
झूठे उत्तर सारे रटकर जाना पड़ता है
उसकी चौखट में दरवाजा नहीं लगा लेकिन
उसके घर में सबको मिटकर जाना पड़ता है
आलीशान महल है यूँ तो संसद पर इसमें
इंसानों को कितना घटकर जाना पड़ता है
जितना कम…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 26, 2012 at 9:30pm — 11 Comments
2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2
टिप्पणी भी अब नहीं छपती हमारी ।
छापते हम गैर की गाली-गँवारी ।
कक्ष-कागज़ मानते कोरा नहीं अब-
ख़त्म होती क्या गजल की अख्तियारी ।
राष्ट्रवादी आज फुर्सत में बिताते -
कल लड़ेंगे आपसी वो फौजदारी ।
नाक पर उनके नहीं मक्खी दिखाती-
मक्खियों ने दी बदल अपनी सवारी ।
ढूँढ़ लफ्जों को, गजल कहना कठिन है-
चल नहीं सकती यहाँ रविकर उधारी ।।
Added by रविकर on November 26, 2012 at 8:00pm — 12 Comments
Added by Shyam Narain Verma on November 26, 2012 at 5:00pm — 9 Comments
आखिरकार कसाब मारा गया! एक लम्बा चला आ रहा विरोध और इंतज़ार ख़त्म हुआ! इस मृत्यु से उन सभी शहीदों जिन्होंने कि देशरक्षा के लिए अपने प्राण निस्वार्थ अर्पण कर दिए के परिजनों को मानसिक शांति तो मिली होगी किन्तु उन्होंने जो खोया उसकी भरपाई नहीं हो सकती|
कसाब को मारना सिर्फ एक कदम था निष्क्रियता से उबरने के लिए, हालांकि ये बहुत जरुरी भी था| मगर सवाल ये उठता है कि क्या कसाब को मार देना ही उन शहीदों के लिए श्रृद्धांजलि होगी? क्या कसाब ही अंतिम समस्या थी? शायद नहीं! कसाब उस समस्या का सौंवा हिस्सा…
Added by Pushyamitra Upadhyay on November 26, 2012 at 4:49pm — 1 Comment
तबादला
तबादला कोई खौफ नहीं,
नियमित घटना है,
रहो सदा तैयार इसके लिए,
यह नौकरी का हिस्सा है ।
कभी पसंद का,तो कभी मुश्किल का होता है,
कभी सुख तो कभी दुख देता है,
परिवर्तन संसार का नियम है यारो,
तबादले को खुशी से अपनालों यारो ।
बेमौसम तबादले तकलीफ़ देते हैं,
पत्नी…
ContinueAdded by akhilesh mishra on November 26, 2012 at 3:00pm — 3 Comments
नक्कारों में
गूंज रही फिर
तूती की आवाज
नहीं जागना
आज पहरूए
खुल जाएगा राज
लाचार कदम
बेबस जनता के
होते ही
कितने हाथ
आधे को
जूठी पत्तल है
आधे को
नहीं भात
अकदम सकदम
जरठ मेठ है
और भीरू
युवराज
भव्य राजपथ
हींस रहे हैं
सौ-सौ गर्धवराज
आओ खेलें
सत्ता-सत्ता
जी भर खेलें
फाग
झूम-झूम कर
आज पढ़ेंगें
सारी गीता
नाग
जाओ
इस नमकीन शहर से
तूती अपने…
Added by राजेश 'मृदु' on November 26, 2012 at 12:30pm — 2 Comments
देखा है
क्रूर वक़्त को,
पैने पंजों से नोचते
कोमल फूलों की मासूमियत
और बिलखते बिलखते
फूलों का बनते जाना पत्थर,
देखा है
पत्थर को गुपचुप रोते
फिर कोमलता पाने को
फूल सा खिल जाने को
मुस्काने को, खिलखिलाने को,
देखा है
अटूट पत्थर का
फूल बन जाना
फिर कोमलता पाना
महकना, मुस्काना, इतराना,
देखा है
सब कुछ बदलते
आकाश से पाताल तक
फिर भी मैं वही हूँ…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on November 26, 2012 at 9:38am — 10 Comments
कर्म के ही हल सदा रखती है कन्धों पे नियति
Added by ajay sharma on November 26, 2012 at 12:00am — 3 Comments
छुपा के होठों से गम को अपने
लरज़ते अश्कों को रोक लो तुम |
बना लो गीतों को मेय का प्याला
छलकती बूंदों ही को कहो तुम |
ये गम की तड़पन से लिपट लो,
हवा दो आग को जितनी भी तुम |
सुख को हौले से फिर भी छू लो ,
लरज़ते अश्कों को रोक लो तुम |
मंजिल पे जख्मों को तो न देखो,
मंजिल को छू लो नयनों से अपने |
बसा के आँखों में कल के सपने,
लरज़ते अश्कों को रोक लो तुम |
आसान नहीं खुद को पहचान…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on November 25, 2012 at 11:17pm — 6 Comments
तेरे नयनों में भर आये नीर तो, लहू मैं बहा दूं माँ,
न्योच्छार तुझपे जीवन करूँ, क्या जिस्म क्या है जाँ |
तू धीर गंभीर हिमाला को
मस्तक पे धारण करे |
तू चंचल गंगा जमुना का
प्रतिक्षण वरण करे |
विविध भी एक हैं , देख ले चाहे जहां |
जब उठा के लगा दें
हम मस्तक पे धूल |
बसंत है चारों तरफ
खिले मुस्कान के फूल |
नफरत भी बन जाती है, प्रेम का समाँ |
तेरे बेटों की ओ माँ
बस यही है आरजू…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on November 25, 2012 at 11:16pm — 5 Comments
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