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लरज़ते अश्कों को रोक लो तुम

छुपा के होठों से गम को अपने

लरज़ते अश्कों को रोक लो तुम |

बना लो गीतों को मेय का प्याला

छलकती बूंदों ही को कहो तुम |

 

ये गम की तड़पन से लिपट लो,

हवा दो आग को जितनी भी तुम |

सुख को हौले से फिर भी छू लो ,

लरज़ते अश्कों को रोक लो तुम |

 

मंजिल पे जख्मों को तो न देखो,

मंजिल को छू लो नयनों से अपने |

बसा के आँखों में कल के सपने,

लरज़ते अश्कों को रोक लो तुम |

 

आसान नहीं खुद को पहचान पाना,

कि रखे हैं घर में आईने इतने,

इन आइनों को तोड़ के हँस लो,

लरज़ते अश्कों को रोक लो तुम |

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Comment

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Comment by Priyanka singh on June 9, 2013 at 4:56pm

आसान नहीं खुद को पहचान पाना,

कि रखे हैं घर में आईने इतने,

इन आइनों को तोड़ के हँस लो,

बहुत बढ़िया .....शुभकामनाये 

Comment by shalini kaushik on November 27, 2012 at 12:09am

आसान नहीं खुद को पहचान पाना,

कि रखे हैं घर में आईने इतने,

इन आइनों को तोड़ के हँस लो,

लरज़ते अश्कों को रोक लो तुम |

सुन्दर भावाभिव्यक्ति

आभार गुरु  पूर्णिमा  की   बधाई

Comment by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on November 26, 2012 at 7:21pm

डा. प्राची सिंह जी, बहुत धन्यवाद | प्रथम पद की द्वीतीय पंक्ति को सबमें जोड़ा था, कुछ अलग करने की उत्कंठा थी और शीर्षक के भाव मिलाने के लिए भी|

सम्प्रेषण में समानता के लिए आपका सुझाव सर आँखों पर है, इसे कार्यान्वन करता हूँ|

Comment by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on November 26, 2012 at 7:16pm

आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी, सादर | आपका बहुत धन्यवाद| ऐसे आशीर्वादों के सहारे ही चल रहा हूँ |


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 26, 2012 at 12:12pm

सुकोमल भाव , सुन्दर शब्द संयोजन  युक्त सुमधुर गीत चंद्रेश जी, हार्दिक बधाई 

प्रथम पद की अंतिम पंक्ति को बाकी पदों की अंतिम पंक्ति से अलग क्यों रखा गया है? यदि दुसरी पंक्ति को अंतिम की जगह रखें तो सम्प्रेषण में समानता बनी रहेगी. सादर.

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 26, 2012 at 11:23am

आसान नहीं खुद को पहचान पाना,कि रखे हैं घर में आईने इतने,

इन आइनों को तोड़ के हँस लो,लरज़ते अश्कों को रोक लो तुम |   उम्दा 

 सुन्दर भाव अभियक्त  उम्दा रचना बधाई श्री चंद्रेश कुमार छात्लानीजी 

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