टुकड़ों टुकड़ों में ही बँटकर जाना पड़ता है
अपनी माटी से जब कटकर जाना पड़ता है
परदेशों में नौकर भर बन जाने की खातिर
लाखों लोगों में से छँटकर जाना पड़ता है
गलती से भी इंटरव्यू में सच न कहूँ, इससे
झूठे उत्तर सारे रटकर जाना पड़ता है
उसकी चौखट में दरवाजा नहीं लगा लेकिन
उसके घर में सबको मिटकर जाना पड़ता है
आलीशान महल है यूँ तो संसद पर इसमें
इंसानों को कितना घटकर जाना पड़ता है
जितना कम हो जेबों में उतना अच्छा ‘सज्जन’
सरकारी दफ़्तर से लुटकर जाना पड़ता है
Comment
वीनस केसरी जी, भाई आप ठीक कह रहे हैं ये अल्फ़ाज़ हमकवाफी नहीं हैं। (रिसर्च करने के बाद पता चला)। इसलिए ये रचना ग़ज़ल नहीं है इसे मुक्तिका कहना ही बेहतर है। त्रुटि की तरफ ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद
/आलीशान महल है यूँ तो संसद पर इसमें
इंसानों को कितना घटकर जाना पड़ता है/- बहुत ही गहरा शे'र.
'परदेश में नौकर' और 'इंटरव्यू' वाला शे'र, लीक से अलग ख्याल के होने के कारण चौंकाते हैं. और आपके अश'आर की यही विशेषता भी रहती है. दिली दाद कबूलें. :)
श्री धर्मेन्द्र सिंह जी बहुत सुन्दर गजल रचना पढने को मिली हार्दिक बधाई, बाकी गजल पर टिप्पणी करने में सक्षम नहीं हूँ
उसकी चौखट में दरवाजा नहीं लगा लेकिन
उसके घर में सबको मिटकर जाना पड़ता है - बेहद उम्दा और यथार्थ
// इस हिसाब से बँट और कट का काफ़िया लेना सही है या नहीं। //
इस हिसाब से बँट और कट का काफ़िया लेना सही नहीं है।
धर्मेन्द्र भाई आपसे यही कहूँगा की किसी बात के प्रति शंकित होते हुए भी उसका अनुसरण करना बहुत अच्छी बात नहीं है, जब शंका हो तो समाधान खोजने का प्रयास करें
आपको बता दूं की ग़ालिब साहिब के तीनों मतले बिलकुल दुरुस्त हैं
क्यों हैं ?
अब इसका उत्तर खोजना हो तो दो बात याद रखते हुए अध्ययन करें
१- ग़ालिब उर्दू के शाइर हैं
२- ग़ालिब किस समय शाइरी करते थे और उस समय क्या निमय मान्य थे और क्या छूट मिलाती थी
आपको उत्तर अवश्य मिलेगा
सादर
वीनस केसरी जी, साहब इस संबंध में मेरे मन में बहुत शक है। उदाहरण लीजिए।
नुक्ताचीं है, ग़म-ए-दिल उस को सुनाये न बने
क्या बने बात, जहाँ बात बनाये न बने (गालिब)
बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना (गालिब)
वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ
वो शब-ओ-रोज़-ओ-माह-ओ-साल कहाँ (गालिब)
इस हिसाब से बँट और कट का काफ़िया लेना सही है या नहीं।
टुकड़ों टुकड़ों में ही बँटकर जाना पड़ता है
अपनी माटी से जब कटकर जाना पड़ता है--------दरख्तों ने किस्मत ही ऐसी पाई है
परदेशों में नौकर भर बन जाने की खातिर
लाखों लोगों में से छँटकर जाना पड़ता है-------छटनी भी सही पारदर्शी हो तब न नहीं तो घूस दो और तुरंत चले जाओ
गलती से भी इंटरव्यू में सच न कहूँ, इससे
झूठे उत्तर सारे रटकर जाना पड़ता है------साम दम दंड भेद सब अपनाना पड़ता है तब भी कुछ पता नहीं
उसकी चौखट में दरवाजा नहीं लगा लेकिन
उसके घर में सबको मिटकर जाना पड़ता है-------ये शेर तो दिल चीर कर निकल गया बहुत कुछ कह गया
आलीशान महल है यूँ तो संसद पर इसमें
इंसानों को कितना घटकर जाना पड़ता है-----करारा व्यंग्य
जितना कम हो जेबों में उतना अच्छा ‘सज्जन’
सरकारी दफ़्तर से लुटकर जाना पड़ता है----------सच में सरकारी दफ्तरों में आम आदमी लुटने के डर से जाने से घबराता है सटीक व्यंग्य
वाह धर्मेन्द्र जी क्या खूब ग़ज़ल कही एक से बढकर एक शेर बाकी पारखी की नजरों से बच नहीं सकते यहाँ सो वीनस जी की बात से हमें भी सीख मिली ,वर्ना हमें तो इस ग़ज़ल में रत्ती भर भी कहीं कमी नजर नहीं आ रही थी ,
बहुत बहुत हार्दिक बधाई इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए धर्मेन्द्र जी |
बहुत सुन्दर कहन , हर शेर लाजवाब है, बधाई इस ग़ज़ल केलिए आ, धर्मेन्द्र जी.
धर्मेन्द्र भाईजी... . ???
परदेशों में नौकर भर बन जाने की खातिर
लाखों लोगों में से छँटकर जाना पड़ता है.
. .............. वाह !
वाह वाह वाह !!!
शानदार भाई शानदार
बेहतरीन ग़ज़ल से नवाज़ा है आपने
खूबसूरत कहन, लाजवाब तेवर और लयात्मकता तो जैसे नदी में नाव तिर रही हो ....
निवेदन है, एक बार कवाफी पर ध्यान दीजिए कर कवाफी का न हो कर रदीफ का हिस्सा है इसके बाद यह बचते हैं -
बँट कट छँट रट मिट घट लुट
भाई जी यह अल्फ़ाज़ हमकवाफी नहीं हैं
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