For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

मुक्तिका : अपनी माटी से जब कटकर जाना पड़ता है

टुकड़ों टुकड़ों में ही बँटकर जाना पड़ता है

अपनी माटी से जब कटकर जाना पड़ता है

 

परदेशों में नौकर भर बन जाने की खातिर

लाखों लोगों में से छँटकर जाना पड़ता है

 

गलती से भी इंटरव्यू में सच न कहूँ, इससे

झूठे उत्तर सारे रटकर जाना पड़ता है

 

उसकी चौखट में दरवाजा नहीं लगा लेकिन

उसके घर में सबको मिटकर जाना पड़ता है

 

आलीशान महल है यूँ तो संसद पर इसमें

इंसानों को कितना घटकर जाना पड़ता है

 

जितना कम हो जेबों में उतना अच्छा ‘सज्जन’

सरकारी दफ़्तर से लुटकर जाना पड़ता है

Views: 537

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 27, 2012 at 9:20pm

वीनस केसरी जी, भाई आप ठीक कह रहे हैं ये अल्फ़ाज़ हमकवाफी नहीं हैं। (रिसर्च करने के बाद पता चला)। इसलिए ये रचना ग़ज़ल नहीं है इसे मुक्तिका कहना ही बेहतर है। त्रुटि की तरफ ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद

Comment by विवेक मिश्र on November 27, 2012 at 9:06pm

/आलीशान महल है यूँ तो संसद पर इसमें

इंसानों को कितना घटकर जाना पड़ता है/- बहुत ही गहरा शे'र.
'परदेश में नौकर' और 'इंटरव्यू' वाला शे'र, लीक से अलग ख्याल के होने के कारण चौंकाते हैं. और आपके अश'आर की यही विशेषता भी रहती है. दिली दाद कबूलें. :)

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 27, 2012 at 7:06pm

श्री धर्मेन्द्र सिंह जी बहुत सुन्दर गजल रचना पढने को मिली हार्दिक बधाई, बाकी गजल पर टिप्पणी करने में सक्षम नहीं हूँ 

पर ये पंक्तियाँ सर्व्शस्रेस्थ भाव छिपाए हुए है -

उसकी चौखट में दरवाजा नहीं लगा लेकिन

उसके घर में सबको मिटकर जाना पड़ता है  - बेहद उम्दा और यथार्थ 

Comment by वीनस केसरी on November 27, 2012 at 7:03pm

// इस हिसाब से बँट और कट का काफ़िया लेना सही है या नहीं। //

इस हिसाब से बँट और कट का काफ़िया लेना सही नहीं है।

Comment by वीनस केसरी on November 27, 2012 at 6:56pm

धर्मेन्द्र भाई आपसे यही कहूँगा की किसी बात के प्रति शंकित होते हुए भी उसका अनुसरण करना बहुत अच्छी बात नहीं है, जब शंका हो तो समाधान खोजने का प्रयास करें
आपको बता दूं की ग़ालिब साहिब के तीनों मतले बिलकुल दुरुस्त हैं
क्यों हैं ?
अब इसका उत्तर खोजना हो तो दो बात याद रखते हुए अध्ययन करें
१- ग़ालिब उर्दू के शाइर हैं
२- ग़ालिब किस समय शाइरी करते थे और उस समय क्या निमय मान्य थे और क्या छूट मिलाती थी 
आपको उत्तर अवश्य मिलेगा

सादर

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 27, 2012 at 5:31pm

वीनस केसरी जी, साहब इस संबंध में मेरे मन में बहुत शक है। उदाहरण लीजिए।

नुक्ताचीं है, ग़म-ए-दिल उस को सुनाये न बने
क्या बने बात, जहाँ बात बनाये न बने (गालिब)

बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना (गालिब)

वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ
वो शब-ओ-रोज़-ओ-माह-ओ-साल कहाँ (गालिब)

इस हिसाब से बँट और कट का काफ़िया लेना सही है या नहीं।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 27, 2012 at 5:21pm

टुकड़ों टुकड़ों में ही बँटकर जाना पड़ता है

अपनी माटी से जब कटकर जाना पड़ता है--------दरख्तों ने किस्मत ही ऐसी पाई है 

 

परदेशों में नौकर भर बन जाने की खातिर

लाखों लोगों में से छँटकर जाना पड़ता है-------छटनी भी सही पारदर्शी  हो तब न नहीं तो घूस दो और तुरंत चले जाओ 

 

गलती से भी इंटरव्यू में सच न कहूँ, इससे

झूठे उत्तर सारे रटकर जाना पड़ता है------साम  दम दंड भेद सब अपनाना पड़ता है तब भी कुछ पता नहीं 

 

उसकी चौखट में दरवाजा नहीं लगा लेकिन

उसके घर में सबको मिटकर जाना पड़ता है-------ये शेर तो दिल चीर कर निकल गया बहुत कुछ कह गया 

 

आलीशान महल है यूँ तो संसद पर इसमें

इंसानों को कितना घटकर जाना पड़ता है-----करारा व्यंग्य 

 

जितना कम हो जेबों में उतना अच्छा ‘सज्जन’

सरकारी दफ़्तर से लुटकर जाना पड़ता है----------सच में सरकारी दफ्तरों में आम आदमी लुटने के डर  से जाने से घबराता है सटीक व्यंग्य 

वाह धर्मेन्द्र जी क्या खूब ग़ज़ल कही एक से बढकर एक शेर बाकी पारखी की नजरों से बच  नहीं सकते यहाँ सो वीनस जी की बात से हमें भी सीख मिली ,वर्ना हमें तो इस ग़ज़ल में रत्ती भर भी कहीं कमी नजर नहीं आ रही थी ,
 बहुत बहुत हार्दिक बधाई इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए धर्मेन्द्र जी |

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 27, 2012 at 2:51pm

बहुत सुन्दर कहन , हर शेर लाजवाब है, बधाई इस ग़ज़ल केलिए आ, धर्मेन्द्र जी.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 27, 2012 at 2:21pm

धर्मेन्द्र भाईजी... .  ???

परदेशों में नौकर भर बन जाने की खातिर
लाखों लोगों में से छँटकर जाना पड़ता है.

. ..............  वाह !

Comment by वीनस केसरी on November 27, 2012 at 1:12pm

वाह वाह वाह !!!

शानदार भाई शानदार
बेहतरीन ग़ज़ल से नवाज़ा है आपने
खूबसूरत कहन, लाजवाब तेवर और लयात्मकता तो जैसे नदी में नाव तिर रही हो ....

निवेदन है, एक बार कवाफी पर ध्यान दीजिए कर कवाफी का न हो कर रदीफ का हिस्सा है इसके बाद यह बचते हैं -
 बँट कट छँट रट मिट घट लुट

भाई जी यह अल्फ़ाज़ हमकवाफी नहीं हैं

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर updated their profile
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीया प्रतिभा जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार.. बहुत बहुत धन्यवाद.. सादर "
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय। "
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आपका हार्दिक आभार, आदरणीय"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय दयाराम जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ पांडेय सर, बहुत दिनों बाद छंद का प्रयास किया है। आपको यह प्रयास पसंद आया, जानकर खुशी…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय आदरणीय चेतन प्रकाशजी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, प्रदत्त चित्र पर बढ़िया प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीया प्रतिभा जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करती मार्मिक प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय दयाराम जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करते बहुत बढ़िया छंद हुए हैं। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday
pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय दयाराम मथानी जी छंदों पर उपस्तिथि और सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार "
Sunday
pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी छंदों पर उपस्तिथि और सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार "
Sunday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service